Tuesday, September 11, 2012

प्राचीन श्री कल्कि विष्णु मन्दिर - सम्भल


 भगवान श्री कल्कि की अवतार भूमि सम्भल में स्थित प्राचीन श्री कल्कि विष्णु मन्दिर का इतिहास भी बहुत रोचक व अनोखा है। कल्कि नगरी सम्भल में भगवान श्री कल्कि विष्णु का यह मन्दिर अपने वास्तु शास्त्र, अपने श्री विग्रह, अपनी वाटिका, अपने साथ स्थित भगवान शिव के कल्केश्वर रूप और अपने शिखर पर बैठने वाले तोतों के कारण अद्भुत है। भगवान श्री कल्कि के मन्दिर में स्थित श्री विग्रह के वक्ष स्थल से निकलता तेज आलौकिक एवं दर्शनीय है। भगवान के इस मन्दिर में मूर्ति को स्पर्श करना मना है, और भगवान की नित्य पूज्य और भक्तों द्वारा लाए गए प्रसाद का भोग पुजारी जी ही करा सकते हैं, जैसा कि दक्षिण भारत के अधिकांश मंदिरों में होता है। इस मन्दिर में मुख्य मन्दिर के निकट ही एक शिवालय भी स्थित है जिसमें भगवान शंकर की मूछों वाली प्रतिमा अपने आप में अेकेली है।

          इस मन्दिर का इतिहास भी सम्भल के इतिहास की भांति पौराणिक है। सम्भल के पौराणिक तीर्थों और मन्दिरों व कूपों के साथ मानचित्र में इसका उल्लेख ‘मनुश्री कल्कि मन्दिर’ के नाम से मिलता है। जो सम्भल के केन्द्र में स्थित हरि मन्दिर के निकट दर्शाया गया है। लेकिन मन्दिर की वर्तमान स्थिति का सम्बन्ध होल्कर साम्राज्य से है। जिसकी कथा कुछ इस प्रकार है।

          एक समय इन्दौर राज्य के राजा अपने दल के साथ नवाब रामपुर के निमंत्रण पर रामपुर जा रहे थे। मार्ग के बीच उनका दल रास्ता भटक गया और वह सम्भल के निकट पहुँच गया। राजा ने मंत्री से कहा कि वह किसी राहगीर से सही मार्ग मालूम करें। संयोग से एक ब्राह्मण उधर से गुजर रहे थे, मंत्री जी ने उन्हें बुलाकर राजा के समक्ष मार्ग के बारे में जानकारी ली। तत्पश्चात् राजा ने ब्राह्मण से पूछा कि आप क्या करते हैं, और उनका नाम व पता क्या है। ब्राह्मण देवता ने अपना नाम, पता बताने के पश्चात् बताया कि वह ज्योतिष का कार्य करते हैं। तब राजा ने कहा कि वह उनकी रामपुर यात्रा के सम्बन्ध में कुछ बतायें। तब पण्डित जी ने कहा कि उनकी रामपुर यात्रा के प्रवास की समाप्ति पर नवाब रामपुर उन्हें भूरे रंग का हाथी भेंट में देंगे। इसके बाद राजा अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गये।

         और विधि के अद्भुत संयोग से इन्दौर नरेश को उनकी यात्रा की समाप्ति पर नवाब रामपुर ने उन्हें भूरे रंग का हाथी भेंट में दिया। राजा विस्मित हो उन्हीं पण्डित जी के विषय में सोचने लगे। वह फिर अपने दल के साथ सम्भल लौटे और अपने मंत्री द्वारा पण्डित जी को खोज कर बुलाया। उन्होंने कहा कि हे ब्राह्मण श्रेष्ठ आपकी भविष्यवाणी बिल्कुल सच निकली। हमें नवाब रामपुर ने भूरे रंग का हाथी ही भेंट में दिया है। हम आपकी ज्योतिष विद्या से बहुत प्रभावित हैं। हम चाहते हैं कि आप सपरिवार हमारे साथ इन्दौर चलें और हमारे राज ज्योतिषी बनें।

          राजा के बहुत आग्रह पर उन्होंने यह प्रस्तव स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उन्होंने इन्दौर में अपना काफी समय व्यतीत किया। राजा के देहान्त के बाद महारानी ने स्वयं शासन संभाला। जब एक लम्बी अवधि बीत गई, तब पण्डित जी को अपने जन्म स्थान सम्भल की स्मृति प्रबल हो आई और उन्होंने रानी से वहाँ जाने की अनुमति मांगी। रानी ने अनुमति प्रदान करते हुए कहा वह अपने गृह नगर के लिए कुछ चाहते हैं तो मांग लें। पण्डित जी ने कहा हे रानी ! अगर आप कुछ देना ही चाहती है तो सम्भल के प्राचीन श्री कल्कि मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा दें क्योंकि सम्भल का हरि मन्दिर तो यवनों के अधिकार में चला गया है जिसकी कसक सम्भल के निवासियों को बहुत है और प्राचीन मनुश्री कल्कि मन्दिर जो कि हरि मन्दिर के परकोटे में स्थित है, अतः वही हरि मन्दिर का विकल्प बन सकता है। रानी साहिबा ने पण्डित जी की इस बात को मान लिया और इस प्रकार श्री कल्कि विष्णु मन्दिर वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ। यह रानी और कोई नहीं अपितु रानी अहिल्याबाई होल्कर की सासु माँ कृष्णा माँ साहिब थीं और वह पण्डित जी श्री कल्कि विष्णु मन्दिर के वर्तमान व्यवस्थापक और पुजारी पं0 महेन्द्र प्रसाद शर्मा के पूर्वज थे।



युगावतार भगवान श्री कल्कि


आज वर्तमान समय में सम्पूर्ण धार्मिक जगत श्री कल्कि भगवान के बारे में जानने को उत्सुक है। आज विश्व में मानवता त्राहि - त्राहि कर रही है और जो पापाचार बढ़ रहे हैं उनको देखकर बहुत कष्ट होता है। इस स्थिति में सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार भगवान के अवतार की ओर ध्यान जाता है। जैसे कि भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं - 

‘‘ यदा यदा हिधर्मस्य ग्लार्निभवति भारतः अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम, 

परित्राणय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।’’

          अर्थात् जब - जब धर्म की हानि होती है, भूमि पर भार बढ़ता है तब-तब धर्म की संस्थापना के लिए, साधुजनों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए मैं युग-युग में अवतार लेता हूँ।

          भगवान सूर्य के प्रकाश की पहली किरण जब भारत की पवित्र भूमि को छूती थी तो सारा वातावरण पूजा की घंटियों और शंखनाद से गूंज उठता था। मंदिरों के पट खुल जाते थे और भगवान का अभिषेक सारे भारत में एक साथ आरम्भ हो जाता था। भारत भूमि ऋषिओं और देवताओं की भूमि है, इसके कण - कण में आध्यात्मिक चेतना है, जो भगवान का नाम लेकर जागती थी और भगवान का कीर्तन करते हुए सोती थी। महर्षि वेद-व्यास जी ने श्रीमद् भागवत् के 12 स्कन्ध के दूसरे अध्याय में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि श्री कृष्ण जब अपनी लीला संवरण करके परम धाम को पधार गये उसी समय से कलियुग ने संसार में प्रवेश किया। उसी के कारण मनुष्यों की मति - गति पाप की ओर ढुलक गयी। धर्म कष्ट से प्राप्त होता है और अधः पतन सुखों से, इसलिए भोली भाली जनता को गिरने में देर नहीं लगी।

         सत्य सनातन धर्म शाश्वत धर्म है। भगवान का मानवता के उत्थान, दुष्टों के संहार, धर्म की संस्थापना और भक्तों की रक्षा के लिए पंच भौतिक संसार में साक्षात् होना ही अवतार कहलाता है। केवल भगवत् अवतार से ही धर्म की पूर्ण संस्थापना हो सकती है। महात्माओं के आने से केवल आंशिक रूप से ही सत्य की स्थापना हो पाती है।

          युग परिवर्तनकारी भगवान श्री कल्कि के अवतार का प्रायोजन विश्व कल्याण है। भगवान का यह अवतार ‘‘निष्कलंक भगवान’’ के नाम से भी जाना जायेगा। श्रीमद् भागवत महापुराण में विष्णु के अवतारों की कथाएं विस्तार से वर्णित हैं। इसके बारहवें स्कन्ध के द्वितीय अध्याय में भगवान के कल्कि अवतार की कथा कुछ विस्तार से दी गई, कहा गया है कि सम्भल ग्राम में विष्णुयश नामक श्रेष्ठ ब्राह्मण के पुत्र के रूप में भगवान कल्कि का जन्म होगा। वे देवदत्त नाम के घोड़े पर आरूढ़ होकर अपनी कराल करवाल (तलवार) से दुष्टों का संहार करेंगे तभी सतयुग का प्रारम्भ होगा।

‘‘ सम्भल ग्राम, मुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः
 भवने विष्णुयशसः कल्कि प्रादुर्भाविष्यति।।

          भगवान श्री कल्कि सत्य सनातन धर्म में प्राण पुरूष की भाँति स्थान रखते हैं। कलियुग में सतयुग की ओर युग की धारा को मोड़ने की सामथ्र्य भगवान के ऐसे ही तेजस्वी रूप में संभव है। आज मनुष्य हौर उसके द्वारा बुना हुआ सामाजिक ताना बाना इन सभी बुराईयों से ग्रसित हो गये हैं। जहाँ धर्म, सत्य, न्याय, कर्तव्य, मातृ-पितृ भक्ति, गौसेवा, ज्ञान, सुसंस्कार, वैदिक गरिमा, सच्चे ब्रह्मानुरागी और संतोषी ब्राह्मण और उनका सम्मान करने वाले वीर और आन वाले क्षत्रिय और समाज के हितैषी, दानी और उदार वैश्य, कर्तव्य पथ पर चलने वाले शूद्र और देवी शक्ति की प्रतीक नारि शुचिता पर टिकना बहुत कठिन हो गया है। आज धर्म के नाम पर तथाकथित धर्मगुरू अपने शिष्यों और भक्तों को ईश्वर के वास्तविक रूप का ज्ञान कराने की बजाए स्वय ईश्वर बन बैठे हैं। जब गुरू ही ईश्वर हो जाए, तब कैसे और कौन करायेगा हमें ईश्वर की पहचान ? अधर्म और गुरूडम को, असत्य और अन्याय को और अविश्वास और अश्रद्धा को समाप्त करने भगवान श्री विष्णु का अन्तिम अवतार सम्भल में होगा। समस्त विश्व का कल्याण इस अवतार का प्रायोजन है।

          भगवान श्री कल्कि निष्कलंक अवतार हैं। उनके पिता का नाम विष्णुयश और माता का नाम सुमति होगा। उनके भाई जो उनसे बड़े होंगे क्रमशः सुमन्त, प्राज्ञ और कवि नाम के नाम के होंगे। याज्ञवलक्य जी पुरोहित और भगवान परशुराम उनक गुरू होंगे। भगवान श्री कल्कि की दो पत्नियाँ होंगी - लक्ष्मी रूपी पद्मा और वैष्णवी शक्ति रूपी रमा। उनके पुत्र होंगे - जय, विजय, मेघमाल तथा बलाहक।

          भगवान का स्वरूप (सगुण रूप) परम दिव्य एवम् ज्योतिमय होता है। उनके स्परूप की कल्पना उनके परम अनुग्रह से ही की जा सकती है। भगवान श्री कल्कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड नायक हैं। शक्ति पुरूषोत्तम भगवान श्री कल्कि अद्वितीय हैं। भगवान श्री कल्कि दुग्ध वर्ण अर्थात् श्वेत अश्व पर सवार हैं। अश्व का नाम देवदत्त है। भगवान का रंग गोरा है, परन्तु क्रोध में काला भी हो जाता है। भगवान पीले वस्त्र धारण किये हैं। प्रभु के हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित है। गले में कौस्तुभ मणि सुशोभित है। भगवान पूर्वाभिमुख व अश्व दक्षिणामुख है। भगवान श्री कल्कि के वामांग में लक्ष्मी (पद्मा) और दाएं भाग में वैष्णवी (रमा) विराजमान हैं। पद्मा भगवान की स्वरूपा शक्ति और रमा भगवान की संहारिणी शक्ति हैं। भगवान के हाथों में प्रमुख रूप से नन्दक व रत्नत्सरू नामक खड्ग (तलवार) है। शाऽं्ग नामक धनुष और कुमौदिकी नामक गदा है। भगवान कल्कि के हाथ में पांचजन्य नाम का शंख है। भगवान के रथ अत्यन्त सुन्दर व विशाल हैं। रथ का नाम जयत्र व गारूड़ी है। सारथी का नाम दारूक है। भगवान सर्वदेवमय व सर्ववेदमय हैं। सब उनकी विराट स्वरूप की परिधि में हैं। भगवान के शरीर से परम दिव्य गंध उत्पन्न होती है जिसके प्रभाव से संसार का वातावरण पावन हो जाता है।
 

Thursday, May 10, 2012

मात्र देह नहीं हम


जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि हम देह से अलग हैं, तब तक जालिम लोग हम पर जुल्म करते रहेंगे। हमें गुलाम बनाते रहेंगे। हमें बेहाल कर डालेंगे। भय के कारण ही जुल्म होता है। एक कथा है कि एक राक्षस ने एक आदमी को पकड लिया। वह उससे अपना सारा काम लेता रहता था। जब कभी वह काम न करता, तो राक्षस कहता- तुझे खा जाऊंगा, चट कर जाऊंगा। शुरू में तो मनुष्य डरता रहा, परंतु जब वह धमकी असहृनीय हो गई, तो उसने कहा- ले, खाना है, तो खा ही डाल। पर राक्षस को उसे खाना तो था नहीं, उसे तो एक गुलाम चाहिए था, जो उसके सारे काम निबटा दे। खा जाने पर उसका काम कौन करता? वह तो उसे सिर्फ खाने की धमकी दिया करता था। परंतु ज्यों ही उसे यह जवाब मिला कि खा जा, उस समय से उसका जुल्म बंद हो गया।
जालिम लोग यह जानते हैं कि लोग देह से चिपके रहने वाले हैं। इनकी देह को कष्ट पहुंचा, तो ये गुलाम बन जाएंगे। परंतु जहां देह की आसक्ति छोड दी कि तुरंत सम्राट बन जाएंगे। सारी साम‌र्थ्य आपके हाथों में आ जाएगी। फिर आप पर किसी का हुक्म नहीं चलेगा। जुल्म करने का आधार ही टूट जाएगा। उसकी बुनियाद ही इस भावना पर है कि मैं देह हूं। वे समझते हैं कि इनकी देह को सताया कि ये वश में आ जाएंगे। इसीलिए वे धमकी की भाषा बोलते हैं।
मैं देह हूं इसी भावना के कारण ही दूसरों को हम पर जुल्म करने की इच्छा होती है। परंतु इंग्लैंड के शहीद क्रेन्मर ने कहा था- मुझे जलाते हो? जला डालो, लेकिन हमें कौन जला सकता है, हम तो धर्म की ऐसी ज्योति जला रहे हैं कि उसे कोई बुझा नहीं सकता। शरीर रूपी इस मोमबत्ती को, इस चरबी को जलाकर सत-तत्वों की ज्योति जलाए रखना ही तो हमारा काम है। देह मिट जाएगी, वह तो मिटने वाली ही है।
सुकरात को विष देकर मारने की सजा दी गई। उन्होंने कहा- मैं अब बूढा हो गया हूं। चार दिन के बाद देह छूटने वाली ही थी। जो मरने वाला था, उसे मारकर आप लोग कौन-सी बहादुरी कर रहे हैं? जिस दिन सुकरात को जहर दिया जाना था, उससे पहली रात वे शिष्यों को आत्मा के अमरत्व की शिक्षा दे रहे थे।
सारांश यह है कि जब तक देह की आसक्ति है, तब तक भय है। तब तक रक्षा नहीं हो सकती। तब तक सतत डर लगा रहेगा। यह डर बना रहेगा कि कहीं नींद में सांप आकर न काट खाए। चोर आकर चोरी न कर ले। लोग सिरहाने डंडा रखकर सोते हैं। क्यों? कहते हैं- कहीं चोर आ जाए तो? जरा सोचो, कहीं चोर वही डंडा उठाकर उसी के सिर पर मार दे तो? चोर डंडा लाना भूल भी जाए, तो वे उसके लिए तैयार रखते हैं। नींद में आखिर रक्षा कौन करेगा?
मुझे देह के लिए भय नहीं होता, क्योंकि मैं किसी न किसी शक्ति पर विश्वास करके सोता हूं। जिस शक्ति पर भरोसा रखकर भेडिया, बाघ, सिंह आदि जीव सोते हैं, उसी के भरोसे मैं भी सोता हूं। बाघ को भी तो नींद आती है, जो सारी दुनिया से बैर होने के कारण हर घडी पीछे देखता रहता है। यदि उस शक्ति पर विश्वास न होता, तो कुछ बाघ सोते और कुछ जागकर पहरा देते। जिस शक्ति पर विश्वास रखकर क्रूर भेडिया, बाघ, सिंह आदि जीव सोते हैं, उसी विश्वव्यापक शक्ति की गोद में मैं भी सो रहा हूं। मां की गोद में बच्चा निश्चिंत सोता है। वह मानो उस समय दुनिया का बादशाह होता है। हमें चाहिए कि हम भी उसी विश्वंभर माता की गोद में इसी तरह प्रेम, विश्वास और ज्ञानपूर्वक सोने का अभ्यास करें।
जिस शक्ति के आधार पर हमारा यह सारा जीवन चल रहा है, उसका हमें अधिकाधिक परिचय कर लेना चाहिए। उस शक्ति की उत्तरोत्तर प्रतीति होनी चाहिए। इस शक्ति में हमें जितना विश्वास पैदा होगा, उतनी ही अधिक हमारी रक्षा हो सकेगी। जैसे-जैसे हमें इस शक्ति में विश्वास होता जाएगा, वैसे-वैसे हमारा विकास होता जाएगा।
हमें देह की नहीं,आत्मा (आत्म-तत्व) की रक्षा करनी है। जब तक देह स्थित आत्मा का विचार नहींआता, तब तक मनुष्य साधारण क्रियाओं में ही तल्लीन रहता है। भूख लगी तो खा लिया, प्यास लगी तो पानी पी लिया, नींद आई तो सो गए। इससे अधिक वह कुछ नहींजानता। इन्हीं बातों के लिए वह लडेगा, इन्हींकी प्राप्ति का लोभ मन में रखेगा। इन दैहिक क्रियाओं में ही मगन रहेगा। विकास का आरंभ तो इसके बाद होता है। इस समय आत्मा सिर्फ देखती रहती है। जिस तरह मां कुएं की ओर घुटनों चलते हुए बच्चे के पीछे सतर्क खडी देखती रहती है, उसी प्रकार आत्मा हम पर निगाह रखती है। इस स्थिति को उपद्रष्टा (साक्षी रूप में सब देखने वाला) कहा जाता है।
व्यक्ति अपने को देह रूप समझकर क्रिया-व्यवहार करता है, लेकिन आगे चलकर वह जागता है। उसे भान होता है कि अरे, मैं तो पशु की तरह जीवन बिता रहा हूं। व्यक्ति जब इस तरह सोचता है, तब उसकी नैतिक भूमिका की शुरुआत होती है। तब पग-पग पर वह उचित-अनुचित का विचार करने लगता है। विवेक से काम लेने लगता है। उसकी विश्लेषण बुद्धि जाग्रत होती है। स्वच्छंदता की जगह संयम आता है। जब व्यक्ति इस नैतिक भूमिका में आता है, तब आत्मा केवल चुप बैठकर नहीं देखती, वह भीतर से अनुमोदन करती है। शाबाश- जैसी धन्यता की आवाज अंदर से आती है। तब आत्मा केवल उपद्रष्टा न रहकर अनुमंता बन जाती है। कोई भूखा द्वार पर आ जाए, आप अपनी परोसी थाली उसे दे दें और फिर रात को अपनी इस सत्कृति को याद करें, तो देखिए मन को कितना आनंद मिलता है। भीतर से आत्मा की हल्की सी आवाज आती है- बहुत अच्छा किया। हृदयस्थ परमात्मा हमें प्रोत्साहन और प्रेरणा देते हैं। तब व्यक्ति भोगमय जीवन छोडकर नैतिक जीवन की भूमिका में आ खडा होता है।
इसके बाद की भूमिका है नैतिक जीवन में कर्तव्य करते हुए अपने मन के सभी मैलों को धोने का यत्न करना। परंतु जब मनुष्य ऐसा प्रयत्न करते-करते थकने लगता है, तब वह प्रार्थना करता है- हे भगवन, मेरे प्रयत्नों की, मेरी शक्ति की पराकाष्ठा हो गई है। अत: मुझे अधिक शक्ति दे..। जब तक मनुष्य को यह अनुभव नहीं होता कि अपने सभी प्रयत्नों के बावजूद वह अकेला ही पर्याप्त नहीं है, तब तक प्रार्थना का मर्म उसकी समझ में नहीं आता। जब अपनी सारी शक्ति लगाने पर भी वह पर्याप्त जान नहीं पडती, तभी आर्तभाव से द्रौपदी की तरह परमात्मा को पुकारना चाहिए। तब परमात्मा शाब्दिक शाबाशी न देते हुए सहायता के लिए दौड आता है।

Wednesday, February 22, 2012

सभी की हर इच्छा पूरी करतीं हैं मां पाषाण देवी

पाषाण देवी के बारे में कहा जाता है कि सच्चे मन से पूजा करने पर यहां भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है। इससे भक्तों की माता में अटूट श्रद्धा है। मंदिर की स्थापना कुमाऊं के पहले कमिश्नर ट्रेल ने करवाई थी।
प्राकृतिक रूप पत्थर में नवदुर्गा नवों मुखों की प्रतिकृति की पूजा आदिकाल से ही की जा रही है। इतिहासकार प्रो. अजय रावत ने अपनी पुस्तक नैनीताल वैकेंस में लिखा है कि सन् 1823 में जब कुमाऊं कमिश्नर जीडब्ल्यू ट्रेल कुमाऊं के अस्सी साला भूमि बंदोबस्त के लिए नैनीताल पहुंचे। तो उन्होंने ठंडी सडक पर गुजरते समय एक गुफा से घंटी की आवाज सुनी। साथ चल रहे हिंदू पटवारी से पाषाण देवी मंदिर स्थापना के लिए कहा। इतिहास में इसका इतना ही जिक्र है।
पाषाण देवी मंदिर में जो प्रतिकृति है। उसमें मां के 9 मुख बने हैं, कहा जाता है कि मां की चरण पादुकायें झील के अंदर हैं। इसलिए झील के जल को कैलास मानसरोवर की तरह पवित्र माना जाता रहा है। पिछली 5 पीढियों से मंदिर का पुजारी भट्ट परिवार है। वर्तमान पुजारी जगदीश भट्ट ने बताया कि मां पाषाण देवी के भक्त पूरे देश में फैले हैं। मंगल और शनिवार तथा हर नवरात्र पर मां को चोली पहनाने की परंपरा है।

Tuesday, February 7, 2012

भोले की पूजा-अर्चना के नाम फाल्गुन

 माघ माह समापन के नजदीक है। सात फरवरी को माघ महीना संपन्न हो जाएगा और शुरू होगा फाल्गुन महीना। उल्लास एवं उमंग से भरा फाल्गुन महीना भोलेनाथ की पूजा-अर्चना को समर्पित होता है।

फाल्गुन महीने में प्रकृति भी नूतन रूप में नजर आने लगती है। इस समय बसंत दस्तक दे चुका होता है। इसके साथ ही मानव जीवन में भी नई ऊर्जा का संचार होता रहता है। फाल्गुन महीने में ठंड का असर भी कम होने लगता है। इसी उल्लास एवं उमंग के साथ फाल्गुन महीने में फाल्गुनी कांवड यात्रा का रंग भी घुलता है। यह कांवड यात्रा कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से शुरू होती है और फिर शिव रात्रि में होता है शिवालयों में जलाभिषेक। इसके अलावा अमावस्या और पूर्णिमा स्नान पर्व को श्रद्धालु गंगा स्नान करते हैं। शास्त्रों के अनुसार फाल्गुन महीने की उत्पत्ति उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र से हुई है।
एक और मान्यता के अनुसार फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही भगवान शिव शंकर और सती का विवाह हरिद्वार के कनखल में ही हुआ था। इसलिए धर्मनगरी में फाल्गुन महीने का अलग ही महत्व है। ज्योतिषाचार्य विपिन कुमार पाराशर बताते हैं कि सावन और फाल्गुन दो ही ऐसे महीने हैं, जो भगवान शिव शंकर की पूजा-अर्चना के नाम होते हैं। उन्होंने बताया कि इन दोनों महीनों में भगवान भोले नाथ की पूजा करने से समस्त मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।







Thursday, February 2, 2012

मनसा देवी मंदिर में यथास्थिति के आदेश

ऐतिहासिक माता मनसा देवी मंदिर में पूजास्थल बोर्ड द्वारा करवाए जा रहे सफेद पेंट का मामला पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में पहुंच गया है। मानवाधिकार कार्यकत्र्ता रंजन लखनपाल द्वारा दायर इस याचिका पर प्राथमिक सुनवाई के बाद न्यायाधीश एमएम कुमार व न्यायाधीश एके मित्तल पर आधारित खंडपीठ ने सभी प्रतिवादियों को आगामी 28 मार्च के लिए नोटिस जारी कर दिया है। साथ ही यथास्थिति के आदेश भी जारी किए हैं। इस याचिका में लखनपाल ने कहा है कि माता मनसा देवी का मंदिर सैकडों वर्ष पुराना है व यह हमारी ऐतिहासिक धरोहर है। इस मंदिर के साथ हर समुदाय के लोगों की आस्था जुडी है। यहां पर सैकडों वर्ष पुरानी ऐतिहासिक तस्वीरें मौजूद हैं। उनका कहना है कि माता मनसा देवी पूजा स्थल बोर्ड अब पूरे परिसर में सफेद पेंट करवा रहा है। याचिका में कहा गया है कि बोर्ड के इस फैसले से इस मंदिर को मिला प्राकृतिक रूप पूर्ण रूप से बदल जाएगा और ऐतिहासिक व पुरातन काल की तस्वीरें छिप जाएंगी। उन्होंने आग्रह किया कि इस प्रकार मंदिर का नक्शा बदलने से रोका जाए। खंडपीठ ने कहा है कि अगली तारीख तक यथास्थिति रहेगी। विशेष बात यह है कि कुछ समय पहले भी प्राचीन मंदिर का विवाद हाईकोर्ट पहुंचा था। वहां पर श्रद्धालुओं द्वारा चढाए जाने वाले सोने-चांदी के आभूषणों से बनने वाले सिक्कों की बिक्री का मामला तूल पकड गया था।

Monday, January 9, 2012

सवा लाख से एक लड़ाऊं

गुरु गोविंद सिंह जी से प्रेरणा लेकर कोई भी उच्चतम जीवन उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है। उनका जन्मदिन प्रकाश पर्व [नानकशाही कैलेंडर के अनुसार 31दिसंबर] के रूप में मनाया जाता है.. गुरु गोविंद सिंह जी का जीवन बहुपक्षीय एवं बहुआयामी था। उनसे प्रेरित होकर मनुष्य न सिर्फ जीवन के उच्चतम उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है, बल्कि जीवन की आम समस्याओं से निपटने के लिए भी मार्गदर्शन हासिल कर सकता है। संत-सिपाही :गुरु जी संत भी थे और सिपाही भी। उन्होंने हमेशा गरीबों-पीडितों की रक्षा और अत्याचार के विरोध के लिए ही तलवार उठाई। औरंगजेबके सिपहसालार सैदखां से युद्ध करते समय जब गुरु जी ने उस पर वार किया, तो वह घायल होकर गिर पडा। गुरु जी ने अपनी ढाल से उस पर छाया की और मरहम-पट्टी का प्रबंध भी किया। कहा जाता है कि गुरु जी के तीरों में सोना मढा होता था, ताकि मरने वाले को अंतिम संस्कार का सामान मिल सके और यदि वह घायल होता है, तो उसे इलाज का खर्च मिल सके। गुरु जी का यह उच्च आचरण मनुष्य को सिखाता है कि परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों, मानवीय मूल्यों को कभी नहीं भूलना चाहिए। समता के सरपरस्त :गुरु गोविंद सिंह जी का सारा संघर्ष मानवता की रक्षा के लिए था। उन्होंने दबे-कुचले लोगों को एकत्र कर खालसा का सृजन कर ऐसी शक्तिशाली सेना तैयार की, जिसने अपने समय की सबसे बडी सैनिक शक्तियों को परास्त किया। चिडियन तेमैं बाज तुडाऊं और सवा लाख से एक लडाऊं का घोष करके गुरु जी ने जनता की उस सोई शक्ति को जगा दिया, जो अपने सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए बडी से बडी ताकत से भिडने में समर्थ है। यही नहीं, गुरु जी ने इनहिंते राजेउपजाऊं कहकर शक्तिहीन जनता को राजनीतिक शक्ति हासिल करने लायक भी बनाया। उनका संदेश है कि सभी मनुष्य समान हैं और व्यवस्थाओं में उनकी भागीदारी बराबर है। आध्यात्मिक नेतृत्व :गुरु गोविंद सिंह जी ने मनुष्य को आदर्श आचरण धारण करने के लिए प्रतिबद्ध किया। गुरु जी द्वारा प्रदत्त पांच ककार उच्च एवं आदर्श जीवन के प्रतीक हैं। केश श्रेष्ठ चिंतन, कृपाण शक्ति, कछहरा सदाचार, कडा संयम और कंघा स्वच्छता एवं निर्मलता का प्रतीक है। कवि एवं भाषाविद :अकाल उसतति,जापु साहिब, जफरनामा जैसी कृतियों के रचयिता गुरु गोविंद सिंह जी कवियों एवं विद्वानों का बहुत आदर करते थे। उनके विद्या दरबार में 52कवियों समेत सर्वाधिक विद्वान थे जो निरंतर साहित्य-सृजन में लगे रहते थे। सर्ववंशबलिदानी :गुरु जी के परदादा पंचम पातशाहगुरु अर्जुन देव जी ने शहीदी देकर बलिदान परंपरा शुरू की। गुरु जी के पिता नवम गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी ने चांदनी चौक में शीश दिया। गुरु जी के चारों साहिबजादेभी मानवता की रक्षा हेतु कुर्बान हुए। गुरु गोविंद सिंह जी ने सिद्ध कर दिया कि सत्य और मानवता की रक्षा के लिए बलिदान करना पडे, तो पीछे नहीं हटना चाहिए।