tag:blogger.com,1999:blog-29474066794779962922023-11-15T07:58:14.881-08:00मानव जीवन के शुद्ध विचार Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.comBlogger87125tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-11377917478754870042012-09-11T07:19:00.001-07:002012-09-11T07:19:42.817-07:00प्राचीन श्री कल्कि विष्णु मन्दिर - सम्भल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
भगवान श्री कल्कि की अवतार भूमि सम्भल में स्थित प्राचीन श्री कल्कि विष्णु मन्दिर का इतिहास भी बहुत रोचक व अनोखा है। कल्कि नगरी सम्भल में भगवान श्री कल्कि विष्णु का यह मन्दिर अपने वास्तु शास्त्र, अपने श्री विग्रह, अपनी वाटिका, अपने साथ स्थित भगवान शिव के कल्केश्वर रूप और अपने शिखर पर बैठने वाले तोतों के कारण अद्भुत है। भगवान श्री कल्कि के मन्दिर में स्थित श्री विग्रह के वक्ष स्थल से निकलता तेज आलौकिक एवं दर्शनीय है। भगवान के इस मन्दिर में मूर्ति को स्पर्श करना मना है, और भगवान की नित्य पूज्य और भक्तों द्वारा लाए गए प्रसाद का भोग पुजारी जी ही करा सकते हैं, जैसा कि दक्षिण भारत के अधिकांश मंदिरों में होता है। इस मन्दिर में मुख्य मन्दिर के निकट ही एक शिवालय भी स्थित है जिसमें भगवान शंकर की मूछों वाली प्रतिमा अपने आप में अेकेली है।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> इस मन्दिर का इतिहास भी सम्भल के इतिहास की भांति पौराणिक है। सम्भल के पौराणिक तीर्थों और मन्दिरों व कूपों के साथ मानचित्र में इसका उल्लेख ‘मनुश्री कल्कि मन्दिर’ के नाम से मिलता है। जो सम्भल के केन्द्र में स्थित हरि मन्दिर के निकट दर्शाया गया है। लेकिन मन्दिर की वर्तमान स्थिति का सम्बन्ध होल्कर साम्राज्य से है। जिसकी कथा कुछ इस प्रकार है।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> एक समय इन्दौर राज्य के राजा अपने दल के साथ नवाब रामपुर के निमंत्रण पर रामपुर जा रहे थे। मार्ग के बीच उनका दल रास्ता भटक गया और वह सम्भल के निकट पहुँच गया। राजा ने मंत्री से कहा कि वह किसी राहगीर से सही मार्ग मालूम करें। संयोग से एक ब्राह्मण उधर से गुजर रहे थे, मंत्री जी ने उन्हें बुलाकर राजा के समक्ष मार्ग के बारे में जानकारी ली। तत्पश्चात् राजा ने ब्राह्मण से पूछा कि आप क्या करते हैं, और उनका नाम व पता क्या है। ब्राह्मण देवता ने अपना नाम, पता बताने के पश्चात् बताया कि वह ज्योतिष का कार्य करते हैं। तब राजा ने कहा कि वह उनकी रामपुर यात्रा के सम्बन्ध में कुछ बतायें। तब पण्डित जी ने कहा कि उनकी रामपुर यात्रा के प्रवास की समाप्ति पर नवाब रामपुर उन्हें भूरे रंग का हाथी भेंट में देंगे। इसके बाद राजा अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गये।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> और विधि के अद्भुत संयोग से इन्दौर नरेश को उनकी यात्रा की समाप्ति पर नवाब रामपुर ने उन्हें भूरे रंग का हाथी भेंट में दिया। राजा विस्मित हो उन्हीं पण्डित जी के विषय में सोचने लगे। वह फिर अपने दल के साथ सम्भल लौटे और अपने मंत्री द्वारा पण्डित जी को खोज कर बुलाया। उन्होंने कहा कि हे ब्राह्मण श्रेष्ठ आपकी भविष्यवाणी बिल्कुल सच निकली। हमें नवाब रामपुर ने भूरे रंग का हाथी ही भेंट में दिया है। हम आपकी ज्योतिष विद्या से बहुत प्रभावित हैं। हम चाहते हैं कि आप सपरिवार हमारे साथ इन्दौर चलें और हमारे राज ज्योतिषी बनें।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> राजा के बहुत आग्रह पर उन्होंने यह प्रस्तव स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उन्होंने इन्दौर में अपना काफी समय व्यतीत किया। राजा के देहान्त के बाद महारानी ने स्वयं शासन संभाला। जब एक लम्बी अवधि बीत गई, तब पण्डित जी को अपने जन्म स्थान सम्भल की स्मृति प्रबल हो आई और उन्होंने रानी से वहाँ जाने की अनुमति मांगी। रानी ने अनुमति प्रदान करते हुए कहा वह अपने गृह नगर के लिए कुछ चाहते हैं तो मांग लें। पण्डित जी ने कहा हे रानी ! अगर आप कुछ देना ही चाहती है तो सम्भल के प्राचीन श्री कल्कि मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा दें क्योंकि सम्भल का हरि मन्दिर तो यवनों के अधिकार में चला गया है जिसकी कसक सम्भल के निवासियों को बहुत है और प्राचीन मनुश्री कल्कि मन्दिर जो कि हरि मन्दिर के परकोटे में स्थित है, अतः वही हरि मन्दिर का विकल्प बन सकता है। रानी साहिबा ने पण्डित जी की इस बात को मान लिया और इस प्रकार श्री कल्कि विष्णु मन्दिर वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ। यह रानी और कोई नहीं अपितु रानी अहिल्याबाई होल्कर की सासु माँ कृष्णा माँ साहिब थीं और वह पण्डित जी श्री कल्कि विष्णु मन्दिर के वर्तमान व्यवस्थापक और पुजारी पं0 महेन्द्र प्रसाद शर्मा के पूर्वज थे।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br /></div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br /></div>
<br class="Apple-interchange-newline" /></div>
Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-63190980851720915072012-09-11T07:18:00.002-07:002012-09-11T07:18:04.231-07:00युगावतार भगवान श्री कल्कि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div align="center" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<span class="style6" style="border: 0px; margin: 0px;"><strong style="border: 0px; margin: 0px;"><span class="style13" style="border: 0px; font-weight: normal; margin: 0px; text-align: justify;">आज</span><span style="font-weight: normal; text-align: justify;"> वर्तमान समय में सम्पूर्ण धार्मिक जगत श्री कल्कि भगवान के बारे में जानने को उत्सुक है। आज विश्व में मानवता त्राहि - त्राहि कर रही है और जो पापाचार बढ़ रहे हैं उनको देखकर बहुत कष्ट होता है। इस स्थिति में सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार भगवान के अवतार की ओर ध्यान जाता है। जैसे कि भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -</span> <br class="Apple-interchange-newline" /><br style="border: 0px; margin: 0px;" />‘‘ यदा यदा हिधर्मस्य ग्लार्निभवति भारतः अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम, </strong></span><strong style="border: 0px; margin: 0px;"><br style="border: 0px; margin: 0px;" />परित्राणय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।’’</strong></div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> अर्थात् जब - जब धर्म की हानि होती है, भूमि पर भार बढ़ता है तब-तब धर्म की संस्थापना के लिए, साधुजनों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए मैं युग-युग में अवतार लेता हूँ।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> भगवान सूर्य के प्रकाश की पहली किरण जब भारत की पवित्र भूमि को छूती थी तो सारा वातावरण पूजा की घंटियों और शंखनाद से गूंज उठता था। मंदिरों के पट खुल जाते थे और भगवान का अभिषेक सारे भारत में एक साथ आरम्भ हो जाता था। भारत भूमि ऋषिओं और देवताओं की भूमि है, इसके कण - कण में आध्यात्मिक चेतना है, जो भगवान का नाम लेकर जागती थी और भगवान का कीर्तन करते हुए सोती थी। महर्षि वेद-व्यास जी ने श्रीमद् भागवत् के 12 स्कन्ध के दूसरे अध्याय में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि श्री कृष्ण जब अपनी लीला संवरण करके परम धाम को पधार गये उसी समय से कलियुग ने संसार में प्रवेश किया। उसी के कारण मनुष्यों की मति - गति पाप की ओर ढुलक गयी। धर्म कष्ट से प्राप्त होता है और अधः पतन सुखों से, इसलिए भोली भाली जनता को गिरने में देर नहीं लगी।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> सत्य सनातन धर्म शाश्वत धर्म है। भगवान का मानवता के उत्थान, दुष्टों के संहार, धर्म की संस्थापना और भक्तों की रक्षा के लिए पंच भौतिक संसार में साक्षात् होना ही अवतार कहलाता है। केवल भगवत् अवतार से ही धर्म की पूर्ण संस्थापना हो सकती है। महात्माओं के आने से केवल आंशिक रूप से ही सत्य की स्थापना हो पाती है।</div>
<div align="justify" class="style5" style="background-color: white; border: 0px; color: #860000; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> युग परिवर्तनकारी भगवान श्री कल्कि के अवतार का प्रायोजन विश्व कल्याण है। भगवान का यह अवतार ‘‘निष्कलंक भगवान’’ के नाम से भी जाना जायेगा। श्रीमद् भागवत महापुराण में विष्णु के अवतारों की कथाएं विस्तार से वर्णित हैं। इसके बारहवें स्कन्ध के द्वितीय अध्याय में भगवान के कल्कि अवतार की कथा कुछ विस्तार से दी गई, कहा गया है कि सम्भल ग्राम में विष्णुयश नामक श्रेष्ठ ब्राह्मण के पुत्र के रूप में भगवान कल्कि का जन्म होगा। वे देवदत्त नाम के घोड़े पर आरूढ़ होकर अपनी कराल करवाल (तलवार) से दुष्टों का संहार करेंगे तभी सतयुग का प्रारम्भ होगा।</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 12px;">
<br /></div>
<div align="center" class="style11" style="background-color: white; border: 0px; color: #850301; font-family: Verdana;">
<strong style="border: 0px; margin: 0px;">‘‘ सम्भल ग्राम, मुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> भवने विष्णुयशसः कल्कि प्रादुर्भाविष्यति।।</strong></div>
<div align="justify" class="style11" style="background-color: white; border: 0px; color: #850301; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> भगवान श्री कल्कि सत्य सनातन धर्म में प्राण पुरूष की भाँति स्थान रखते हैं। कलियुग में सतयुग की ओर युग की धारा को मोड़ने की सामथ्र्य भगवान के ऐसे ही तेजस्वी रूप में संभव है। आज मनुष्य हौर उसके द्वारा बुना हुआ सामाजिक ताना बाना इन सभी बुराईयों से ग्रसित हो गये हैं। जहाँ धर्म, सत्य, न्याय, कर्तव्य, मातृ-पितृ भक्ति, गौसेवा, ज्ञान, सुसंस्कार, वैदिक गरिमा, सच्चे ब्रह्मानुरागी और संतोषी ब्राह्मण और उनका सम्मान करने वाले वीर और आन वाले क्षत्रिय और समाज के हितैषी, दानी और उदार वैश्य, कर्तव्य पथ पर चलने वाले शूद्र और देवी शक्ति की प्रतीक नारि शुचिता पर टिकना बहुत कठिन हो गया है। आज धर्म के नाम पर तथाकथित धर्मगुरू अपने शिष्यों और भक्तों को ईश्वर के वास्तविक रूप का ज्ञान कराने की बजाए स्वय ईश्वर बन बैठे हैं। जब गुरू ही ईश्वर हो जाए, तब कैसे और कौन करायेगा हमें ईश्वर की पहचान ? अधर्म और गुरूडम को, असत्य और अन्याय को और अविश्वास और अश्रद्धा को समाप्त करने भगवान श्री विष्णु का अन्तिम अवतार सम्भल में होगा। समस्त विश्व का कल्याण इस अवतार का प्रायोजन है।</div>
<div align="justify" class="style11" style="background-color: white; border: 0px; color: #850301; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> भगवान श्री कल्कि निष्कलंक अवतार हैं। उनके पिता का नाम विष्णुयश और माता का नाम सुमति होगा। उनके भाई जो उनसे बड़े होंगे क्रमशः सुमन्त, प्राज्ञ और कवि नाम के नाम के होंगे। याज्ञवलक्य जी पुरोहित और भगवान परशुराम उनक गुरू होंगे। भगवान श्री कल्कि की दो पत्नियाँ होंगी - लक्ष्मी रूपी पद्मा और वैष्णवी शक्ति रूपी रमा। उनके पुत्र होंगे - जय, विजय, मेघमाल तथा बलाहक।</div>
<div align="justify" class="style11" style="background-color: white; border: 0px; color: #850301; font-family: Verdana;">
<br style="border: 0px; margin: 0px;" /> भगवान का स्वरूप (सगुण रूप) परम दिव्य एवम् ज्योतिमय होता है। उनके स्परूप की कल्पना उनके परम अनुग्रह से ही की जा सकती है। भगवान श्री कल्कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड नायक हैं। शक्ति पुरूषोत्तम भगवान श्री कल्कि अद्वितीय हैं। भगवान श्री कल्कि दुग्ध वर्ण अर्थात् श्वेत अश्व पर सवार हैं। अश्व का नाम देवदत्त है। भगवान का रंग गोरा है, परन्तु क्रोध में काला भी हो जाता है। भगवान पीले वस्त्र धारण किये हैं। प्रभु के हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित है। गले में कौस्तुभ मणि सुशोभित है। भगवान पूर्वाभिमुख व अश्व दक्षिणामुख है। भगवान श्री कल्कि के वामांग में लक्ष्मी (पद्मा) और दाएं भाग में वैष्णवी (रमा) विराजमान हैं। पद्मा भगवान की स्वरूपा शक्ति और रमा भगवान की संहारिणी शक्ति हैं। भगवान के हाथों में प्रमुख रूप से नन्दक व रत्नत्सरू नामक खड्ग (तलवार) है। शाऽं्ग नामक धनुष और कुमौदिकी नामक गदा है। भगवान कल्कि के हाथ में पांचजन्य नाम का शंख है। भगवान के रथ अत्यन्त सुन्दर व विशाल हैं। रथ का नाम जयत्र व गारूड़ी है। सारथी का नाम दारूक है। भगवान सर्वदेवमय व सर्ववेदमय हैं। सब उनकी विराट स्वरूप की परिधि में हैं। भगवान के शरीर से परम दिव्य गंध उत्पन्न होती है जिसके प्रभाव से संसार का वातावरण पावन हो जाता है।</div>
<div style="background-color: white; border: 0px; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 12px; margin: 0px;">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" style="border: 0px; margin: 0px; width: 680px;"><tbody style="border: 0px; margin: 0px;">
<tr style="border: 0px; margin: 0px;"><td style="border: 0px; margin: 0px;"> </td></tr>
</tbody></table>
</div>
</div>
Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-84963085240385413832012-05-10T04:18:00.001-07:002012-05-10T04:18:34.551-07:00मात्र देह नहीं हम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span></span><br />
जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि हम देह से अलग हैं, तब तक जालिम
लोग हम पर जुल्म करते रहेंगे। हमें गुलाम बनाते रहेंगे। हमें बेहाल कर
डालेंगे। भय के कारण ही जुल्म होता है। एक कथा है कि एक राक्षस ने एक आदमी
को पकड लिया। वह उससे अपना सारा काम लेता रहता था। जब कभी वह काम न करता,
तो राक्षस कहता- तुझे खा जाऊंगा, चट कर जाऊंगा। शुरू में तो मनुष्य डरता
रहा, परंतु जब वह धमकी असहृनीय हो गई, तो उसने कहा- ले, खाना है, तो खा ही
डाल। पर राक्षस को उसे खाना तो था नहीं, उसे तो एक गुलाम चाहिए था, जो उसके
सारे काम निबटा दे। खा जाने पर उसका काम कौन करता? वह तो उसे सिर्फ खाने
की धमकी दिया करता था। परंतु ज्यों ही उसे यह जवाब मिला कि खा जा, उस समय
से उसका जुल्म बंद हो गया।<br />
जालिम लोग यह जानते हैं कि लोग देह से चिपके रहने वाले हैं। इनकी देह को
कष्ट पहुंचा, तो ये गुलाम बन जाएंगे। परंतु जहां देह की आसक्ति छोड दी कि
तुरंत सम्राट बन जाएंगे। सारी सामर्थ्य आपके हाथों में आ जाएगी। फिर आप पर
किसी का हुक्म नहीं चलेगा। जुल्म करने का आधार ही टूट जाएगा। उसकी बुनियाद
ही इस भावना पर है कि मैं देह हूं। वे समझते हैं कि इनकी देह को सताया कि
ये वश में आ जाएंगे। इसीलिए वे धमकी की भाषा बोलते हैं।<br />
मैं देह हूं इसी भावना के कारण ही दूसरों को हम पर जुल्म करने की इच्छा
होती है। परंतु इंग्लैंड के शहीद क्रेन्मर ने कहा था- मुझे जलाते हो? जला
डालो, लेकिन हमें कौन जला सकता है, हम तो धर्म की ऐसी ज्योति जला रहे हैं
कि उसे कोई बुझा नहीं सकता। शरीर रूपी इस मोमबत्ती को, इस चरबी को जलाकर
सत-तत्वों की ज्योति जलाए रखना ही तो हमारा काम है। देह मिट जाएगी, वह तो
मिटने वाली ही है।<br />
सुकरात को विष देकर मारने की सजा दी गई। उन्होंने कहा- मैं अब बूढा हो
गया हूं। चार दिन के बाद देह छूटने वाली ही थी। जो मरने वाला था, उसे मारकर
आप लोग कौन-सी बहादुरी कर रहे हैं? जिस दिन सुकरात को जहर दिया जाना था,
उससे पहली रात वे शिष्यों को आत्मा के अमरत्व की शिक्षा दे रहे थे। <br />
सारांश यह है कि जब तक देह की आसक्ति है, तब तक भय है। तब तक रक्षा नहीं
हो सकती। तब तक सतत डर लगा रहेगा। यह डर बना रहेगा कि कहीं नींद में सांप
आकर न काट खाए। चोर आकर चोरी न कर ले। लोग सिरहाने डंडा रखकर सोते हैं।
क्यों? कहते हैं- कहीं चोर आ जाए तो? जरा सोचो, कहीं चोर वही डंडा उठाकर
उसी के सिर पर मार दे तो? चोर डंडा लाना भूल भी जाए, तो वे उसके लिए तैयार
रखते हैं। नींद में आखिर रक्षा कौन करेगा?<br />
मुझे देह के लिए भय नहीं होता, क्योंकि मैं किसी न किसी शक्ति पर
विश्वास करके सोता हूं। जिस शक्ति पर भरोसा रखकर भेडिया, बाघ, सिंह आदि जीव
सोते हैं, उसी के भरोसे मैं भी सोता हूं। बाघ को भी तो नींद आती है, जो
सारी दुनिया से बैर होने के कारण हर घडी पीछे देखता रहता है। यदि उस शक्ति
पर विश्वास न होता, तो कुछ बाघ सोते और कुछ जागकर पहरा देते। जिस शक्ति पर
विश्वास रखकर क्रूर भेडिया, बाघ, सिंह आदि जीव सोते हैं, उसी विश्वव्यापक
शक्ति की गोद में मैं भी सो रहा हूं। मां की गोद में बच्चा निश्चिंत सोता
है। वह मानो उस समय दुनिया का बादशाह होता है। हमें चाहिए कि हम भी उसी
विश्वंभर माता की गोद में इसी तरह प्रेम, विश्वास और ज्ञानपूर्वक सोने का
अभ्यास करें। <br />
जिस शक्ति के आधार पर हमारा यह सारा जीवन चल रहा है, उसका हमें अधिकाधिक
परिचय कर लेना चाहिए। उस शक्ति की उत्तरोत्तर प्रतीति होनी चाहिए। इस
शक्ति में हमें जितना विश्वास पैदा होगा, उतनी ही अधिक हमारी रक्षा हो
सकेगी। जैसे-जैसे हमें इस शक्ति में विश्वास होता जाएगा, वैसे-वैसे हमारा
विकास होता जाएगा। <br />
हमें देह की नहीं,आत्मा (आत्म-तत्व) की रक्षा करनी है। जब तक देह स्थित
आत्मा का विचार नहींआता, तब तक मनुष्य साधारण क्रियाओं में ही तल्लीन रहता
है। भूख लगी तो खा लिया, प्यास लगी तो पानी पी लिया, नींद आई तो सो गए।
इससे अधिक वह कुछ नहींजानता। इन्हीं बातों के लिए वह लडेगा, इन्हींकी
प्राप्ति का लोभ मन में रखेगा। इन दैहिक क्रियाओं में ही मगन रहेगा। विकास
का आरंभ तो इसके बाद होता है। इस समय आत्मा सिर्फ देखती रहती है। जिस तरह
मां कुएं की ओर घुटनों चलते हुए बच्चे के पीछे सतर्क खडी देखती रहती है,
उसी प्रकार आत्मा हम पर निगाह रखती है। इस स्थिति को उपद्रष्टा (साक्षी रूप
में सब देखने वाला) कहा जाता है।<br />
व्यक्ति अपने को देह रूप समझकर क्रिया-व्यवहार करता है, लेकिन आगे चलकर
वह जागता है। उसे भान होता है कि अरे, मैं तो पशु की तरह जीवन बिता रहा
हूं। व्यक्ति जब इस तरह सोचता है, तब उसकी नैतिक भूमिका की शुरुआत होती है।
तब पग-पग पर वह उचित-अनुचित का विचार करने लगता है। विवेक से काम लेने
लगता है। उसकी विश्लेषण बुद्धि जाग्रत होती है। स्वच्छंदता की जगह संयम आता
है। जब व्यक्ति इस नैतिक भूमिका में आता है, तब आत्मा केवल चुप बैठकर नहीं
देखती, वह भीतर से अनुमोदन करती है। शाबाश- जैसी धन्यता की आवाज अंदर से
आती है। तब आत्मा केवल उपद्रष्टा न रहकर अनुमंता बन जाती है। कोई भूखा
द्वार पर आ जाए, आप अपनी परोसी थाली उसे दे दें और फिर रात को अपनी इस
सत्कृति को याद करें, तो देखिए मन को कितना आनंद मिलता है। भीतर से आत्मा
की हल्की सी आवाज आती है- बहुत अच्छा किया। हृदयस्थ परमात्मा हमें
प्रोत्साहन और प्रेरणा देते हैं। तब व्यक्ति भोगमय जीवन छोडकर नैतिक जीवन
की भूमिका में आ खडा होता है।<br />
इसके बाद की भूमिका है नैतिक जीवन में कर्तव्य करते हुए अपने मन के सभी
मैलों को धोने का यत्न करना। परंतु जब मनुष्य ऐसा प्रयत्न करते-करते थकने
लगता है, तब वह प्रार्थना करता है- हे भगवन, मेरे प्रयत्नों की, मेरी शक्ति
की पराकाष्ठा हो गई है। अत: मुझे अधिक शक्ति दे..। जब तक मनुष्य को यह
अनुभव नहीं होता कि अपने सभी प्रयत्नों के बावजूद वह अकेला ही पर्याप्त
नहीं है, तब तक प्रार्थना का मर्म उसकी समझ में नहीं आता। जब अपनी सारी
शक्ति लगाने पर भी वह पर्याप्त जान नहीं पडती, तभी आर्तभाव से द्रौपदी की
तरह परमात्मा को पुकारना चाहिए। तब परमात्मा शाब्दिक शाबाशी न देते हुए
सहायता के लिए दौड आता है। <br />
</div>Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-45759442971811834022012-02-22T20:07:00.002-08:002012-02-22T20:07:30.456-08:00सभी की हर इच्छा पूरी करतीं हैं मां पाषाण देवी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पाषाण देवी के बारे में कहा जाता है कि सच्चे मन से पूजा करने पर
यहां भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है। इससे भक्तों की माता में अटूट
श्रद्धा है। मंदिर की स्थापना कुमाऊं के पहले कमिश्नर ट्रेल ने करवाई थी।<br />
प्राकृतिक रूप पत्थर में नवदुर्गा नवों मुखों की प्रतिकृति की पूजा
आदिकाल से ही की जा रही है। इतिहासकार प्रो. अजय रावत ने अपनी पुस्तक
नैनीताल वैकेंस में लिखा है कि सन् 1823 में जब कुमाऊं कमिश्नर जीडब्ल्यू
ट्रेल कुमाऊं के अस्सी साला भूमि बंदोबस्त के लिए नैनीताल पहुंचे। तो
उन्होंने ठंडी सडक पर गुजरते समय एक गुफा से घंटी की आवाज सुनी। साथ चल रहे
हिंदू पटवारी से पाषाण देवी मंदिर स्थापना के लिए कहा। इतिहास में इसका
इतना ही जिक्र है।<br />
पाषाण देवी मंदिर में जो प्रतिकृति है। उसमें मां के 9 मुख बने हैं, कहा
जाता है कि मां की चरण पादुकायें झील के अंदर हैं। इसलिए झील के जल को
कैलास मानसरोवर की तरह पवित्र माना जाता रहा है। पिछली 5 पीढियों से मंदिर
का पुजारी भट्ट परिवार है। वर्तमान पुजारी जगदीश भट्ट ने बताया कि मां
पाषाण देवी के भक्त पूरे देश में फैले हैं। मंगल और शनिवार तथा हर नवरात्र
पर मां को चोली पहनाने की परंपरा है। </div>Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-16765792539832784502012-02-07T22:16:00.000-08:002012-02-07T22:16:03.251-08:00भोले की पूजा-अर्चना के नाम फाल्गुन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
माघ माह समापन के नजदीक है। सात फरवरी को माघ महीना संपन्न हो जाएगा और शुरू होगा फाल्गुन महीना। उल्लास एवं उमंग से भरा फाल्गुन महीना भोलेनाथ की पूजा-अर्चना को समर्पित होता है।<br />
<br />
फाल्गुन महीने में प्रकृति भी नूतन रूप में नजर आने लगती है। इस समय बसंत दस्तक दे चुका होता है। इसके साथ ही मानव जीवन में भी नई ऊर्जा का संचार होता रहता है। फाल्गुन महीने में ठंड का असर भी कम होने लगता है। इसी उल्लास एवं उमंग के साथ फाल्गुन महीने में फाल्गुनी कांवड यात्रा का रंग भी घुलता है। यह कांवड यात्रा कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से शुरू होती है और फिर शिव रात्रि में होता है शिवालयों में जलाभिषेक। इसके अलावा अमावस्या और पूर्णिमा स्नान पर्व को श्रद्धालु गंगा स्नान करते हैं। शास्त्रों के अनुसार फाल्गुन महीने की उत्पत्ति उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र से हुई है।<br />
एक और मान्यता के अनुसार फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही भगवान शिव शंकर और सती का विवाह हरिद्वार के कनखल में ही हुआ था। इसलिए धर्मनगरी में फाल्गुन महीने का अलग ही महत्व है। ज्योतिषाचार्य विपिन कुमार पाराशर बताते हैं कि सावन और फाल्गुन दो ही ऐसे महीने हैं, जो भगवान शिव शंकर की पूजा-अर्चना के नाम होते हैं। उन्होंने बताया कि इन दोनों महीनों में भगवान भोले नाथ की पूजा करने से समस्त मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-91669899427676834302012-02-02T02:40:00.001-08:002012-02-02T02:40:55.325-08:00मनसा देवी मंदिर में यथास्थिति के आदेश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ऐतिहासिक माता मनसा देवी मंदिर में पूजास्थल बोर्ड द्वारा करवाए जा रहे सफेद पेंट का मामला पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में पहुंच गया है। मानवाधिकार कार्यकत्र्ता रंजन लखनपाल द्वारा दायर इस याचिका पर प्राथमिक सुनवाई के बाद न्यायाधीश एमएम कुमार व न्यायाधीश एके मित्तल पर आधारित खंडपीठ ने सभी प्रतिवादियों को आगामी 28 मार्च के लिए नोटिस जारी कर दिया है। साथ ही यथास्थिति के आदेश भी जारी किए हैं।
इस याचिका में लखनपाल ने कहा है कि माता मनसा देवी का मंदिर सैकडों वर्ष पुराना है व यह हमारी ऐतिहासिक धरोहर है। इस मंदिर के साथ हर समुदाय के लोगों की आस्था जुडी है। यहां पर सैकडों वर्ष पुरानी ऐतिहासिक तस्वीरें मौजूद हैं। उनका कहना है कि माता मनसा देवी पूजा स्थल बोर्ड अब पूरे परिसर में सफेद पेंट करवा रहा है। याचिका में कहा गया है कि बोर्ड के इस फैसले से इस मंदिर को मिला प्राकृतिक रूप पूर्ण रूप से बदल जाएगा और ऐतिहासिक व पुरातन काल की तस्वीरें छिप जाएंगी। उन्होंने आग्रह किया कि इस प्रकार मंदिर का नक्शा बदलने से रोका जाए। खंडपीठ ने कहा है कि अगली तारीख तक यथास्थिति रहेगी।
विशेष बात यह है कि कुछ समय पहले भी प्राचीन मंदिर का विवाद हाईकोर्ट पहुंचा था। वहां पर श्रद्धालुओं द्वारा चढाए जाने वाले सोने-चांदी के आभूषणों से बनने वाले सिक्कों की बिक्री का मामला तूल पकड गया था।</div>Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-4591589252977060742012-01-09T23:40:00.001-08:002012-01-09T23:40:21.495-08:00सवा लाख से एक लड़ाऊंगुरु गोविंद सिंह जी से प्रेरणा लेकर कोई भी उच्चतम जीवन उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है। उनका जन्मदिन प्रकाश पर्व [नानकशाही कैलेंडर के अनुसार 31दिसंबर] के रूप में मनाया जाता है..
गुरु गोविंद सिंह जी का जीवन बहुपक्षीय एवं बहुआयामी था। उनसे प्रेरित होकर मनुष्य न सिर्फ जीवन के उच्चतम उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है, बल्कि जीवन की आम समस्याओं से निपटने के लिए भी मार्गदर्शन हासिल कर सकता है।
संत-सिपाही :गुरु जी संत भी थे और सिपाही भी। उन्होंने हमेशा गरीबों-पीडितों की रक्षा और अत्याचार के विरोध के लिए ही तलवार उठाई। औरंगजेबके सिपहसालार सैदखां से युद्ध करते समय जब गुरु जी ने उस पर वार किया, तो वह घायल होकर गिर पडा। गुरु जी ने अपनी ढाल से उस पर छाया की और मरहम-पट्टी का प्रबंध भी किया। कहा जाता है कि गुरु जी के तीरों में सोना मढा होता था, ताकि मरने वाले को अंतिम संस्कार का सामान मिल सके और यदि वह घायल होता है, तो उसे इलाज का खर्च मिल सके। गुरु जी का यह उच्च आचरण मनुष्य को सिखाता है कि परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों, मानवीय मूल्यों को कभी नहीं भूलना चाहिए।
समता के सरपरस्त :गुरु गोविंद सिंह जी का सारा संघर्ष मानवता की रक्षा के लिए था। उन्होंने दबे-कुचले लोगों को एकत्र कर खालसा का सृजन कर ऐसी शक्तिशाली सेना तैयार की, जिसने अपने समय की सबसे बडी सैनिक शक्तियों को परास्त किया। चिडियन तेमैं बाज तुडाऊं और सवा लाख से एक लडाऊं का घोष करके गुरु जी ने जनता की उस सोई शक्ति को जगा दिया, जो अपने सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए बडी से बडी ताकत से भिडने में समर्थ है। यही नहीं, गुरु जी ने इनहिंते राजेउपजाऊं कहकर शक्तिहीन जनता को राजनीतिक शक्ति हासिल करने लायक भी बनाया। उनका संदेश है कि सभी मनुष्य समान हैं और व्यवस्थाओं में उनकी भागीदारी बराबर है।
आध्यात्मिक नेतृत्व :गुरु गोविंद सिंह जी ने मनुष्य को आदर्श आचरण धारण करने के लिए प्रतिबद्ध किया। गुरु जी द्वारा प्रदत्त पांच ककार उच्च एवं आदर्श जीवन के प्रतीक हैं। केश श्रेष्ठ चिंतन, कृपाण शक्ति, कछहरा सदाचार, कडा संयम और कंघा स्वच्छता एवं निर्मलता का प्रतीक है।
कवि एवं भाषाविद :अकाल उसतति,जापु साहिब, जफरनामा जैसी कृतियों के रचयिता गुरु गोविंद सिंह जी कवियों एवं विद्वानों का बहुत आदर करते थे। उनके विद्या दरबार में 52कवियों समेत सर्वाधिक विद्वान थे जो निरंतर साहित्य-सृजन में लगे रहते थे।
सर्ववंशबलिदानी :गुरु जी के परदादा पंचम पातशाहगुरु अर्जुन देव जी ने शहीदी देकर बलिदान परंपरा शुरू की। गुरु जी के पिता नवम गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी ने चांदनी चौक में शीश दिया। गुरु जी के चारों साहिबजादेभी मानवता की रक्षा हेतु कुर्बान हुए। गुरु गोविंद सिंह जी ने सिद्ध कर दिया कि सत्य और मानवता की रक्षा के लिए बलिदान करना पडे, तो पीछे नहीं हटना चाहिए।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-72951233276216985152011-08-12T06:11:00.000-07:002011-08-12T06:12:16.670-07:00सोने का हिंडोला और श्रद्धा की डोरबादलों की लुका-छिपी के साथ कडी धूप व उमस भरी गर्मी भी लाखों श्रद्धालुओं की आस्था को डिगा नहीं पायी। उन्होंने स्वर्ण-रजत निर्मित हिंडोले में विराजमान बांके बिहारी को श्रद्धा व विश्वास की डोर से झुलाया। मंदिर के पट खुलते ही वातावरण प्रभु की जय-जयकार से गूंज उठा।
<br />
<br />नयनाभिराम दर्शनों की अभिलाषा लेकर वृंदावन आये भक्तों का हृदय पट खुलते ही आनंद के सागर में हिलोरेंमारने लगा। देशी-विदेशी पुष्पों की सुगंध आत्मविभोर करती रही। श्रद्धालुओं दबाव दर्शन खुलने के साथ से पट बंद होने तक बराबर बना रहा। यूं पहले से कम भीड रही, परंतु पांच लाख श्रद्धालुओं के आने का अनुमान लगाया जा रहा है। दुसायतस्थित राधासनेहबिहारी मंदिर में ठाकुर जी स्वर्ण-रजत हिंडोले में विराजे। राधा दामोदर मंदिर, राधाबल्लभमंदिर, राधारमणमंदिर, राधाबिहारी,लालाबाबूमंदिर समेत अनेक देवालयों में हजारों श्रद्धालु झूलनोत्सवके दर्शनार्थ उमडे। अनेक समाजसेवी संस्थाओं ने श्रद्धालुओं की सुविधार्थ शीतल जल की प्याऊ लगायीं।
<br />
<br />श्री वृन्दावन विकास समिति ने बिहारी जी पुलिस चौकी पर खोया-पाया शिविर लगाया। बसेरा गु्रप ने अटल्लाचुंगी पर श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरित किया। बसेरा गु्रप चेयरमैन रामकिशन अग्रवाल ने वितरण शिविर का आरंभ किया।
<br />
<br />करहआश्रम में तीज पर ठा.सीताराम महाराज का झूलन उत्सव महंत वैष्णव दास के सान्निध्य में मना। शुभारम्भ महंत धर्मदास ने दीप प्रज्ज्वलन कर किया। इस अवसर पर सच्चिदानंद दास, राधिका दास, बिहारीलाल वशिष्ठ, संतदासउपस्थित थे। संचालन प्रबंधक भगत ने किया।
<br />
<br />ठाकुर जी ने किया सुखसेजपर विश्राम
<br />
<br />बांकेबिहारीमहाराज हिंडोले में दर्शन देने के उपरांत रात्रि विश्राम, वर्ष में एक दिन ही सजने वाली सुख सेज पर किया। जहां पान का बीडा, रजत कलश में जल, रजत कंघी, आदमकद रजत आईनेएवं लड्डू आदि रखे जाते हैं।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-71899222615821552882011-06-12T04:32:00.000-07:002011-06-12T04:33:51.492-07:00चलो शिव-शंभू के धामकैलास-मानसरोवर यात्रा आज से दिल्ली से शुरू हो रही है। कैलास पर्वत को ही भगवान शिव का धाम माना जाता है। वहां तक पहुंचने की इस यात्रा में होता है आस्था, आध्यात्मिकता और रोमांच का समागम..<br /><br />कैलास मानसरोवर यात्रा में हुई अनुभूति का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। कैलाश पर्वत की परिक्रमा के दौरान मन पर्वत की नैसर्गिकताऔर दिव्यता से जुड जाता है। श्रद्धापूरितमन जैसा स्मरण करता है, शिवमययह पर्वत उसे वैसा ही रूप दिखा देता है।- पिछले वर्ष 2010में कैलास-मानसरोवर की यात्रा पर गए महंत केशव गिरि इस यात्रा से अभिभूत होकर अपनी अनुभूति इस प्रकार व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं, यह यात्रा बेशक लंबी और काफी कठिन मार्गो से होकर गुजरती है, लेकिन यह मन को आनंदित करने वाली होती है। जून से सितंबर तक चलने वाली इस यात्रा में सैकडों यात्री तिब्बत पहुंचकर आराध्य महादेव शिव के धाम का दर्शन करते हैं। कैलास-मानसरोवर यात्रा मात्र आस्था ही नहीं, बल्कि यात्रा के रोमांच के लिए भी प्रसिद्ध है। दो देशों द्वारा संचालित होने वाली इस यात्रा में देश के विभिन्न प्रांतों से लोग एक-साथ इस यात्रा पर जाते हैं, इसलिए उनके बीच भाईचारा भी बढता है। मान्यता है कि कैलास-मानसरोवर शिव का धाम है।<br /><br />विचारक बीडीकसनियालकहते हैं कि ध्यान और तप के देवता शिव हैं। शिव के अनुयायी मुक्ति का मार्ग ध्यान और तपस्या को ही मानते हैं। पूरा हिमालय शिव की भूमि है। कैलास पर्वत को ही उनका आवास माना जाता है। भगवान शिव का धाम कैलास-मानसरोवर तिब्बत में पडता है। तिब्बत इस समय चीन के आधिपत्य में है। जिस कारण यात्रियों को पासपोर्ट, वीजा, स्वास्थ्य परीक्षण जैसी प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है। <br /><br />इस धार्मिक यात्रा का जिम्मा कुमाऊं मंडल विकास निगम को दिया गया है। यात्रा दिल्ली से शुरू होकर काठगोदाम, अल्मोडा, पिथौरागढहोते हुए आधार शिविर धारचूलापहुंचती है। जहां से दो घंटे की यात्रा वाहन से करने के बाद यात्रा के पैदल पडाव तय किए जाते हैं। इन पडावों पर याक पशु भी किराये पर किया जा सकता है। प्रत्येक यात्री को दिल्ली और गुंजीपडाव पर स्वास्थ्य परीक्षण से गुजरना होता है। सफल यात्री ही कैलाश-मानसरोवर के दर्शन कर पाते हैं। कैलाश-मानसरोवर की परिक्रमा का जिम्मा चीन सरकार का रहता है। परिक्रमा कर वापस दिल्ली लौटने में 28दिन का समय लगता है।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-8726141924009841392011-05-29T04:13:00.000-07:002011-05-29T04:15:01.631-07:00कालेश्वर में स्नान करने से मिलता है पांचों तीर्थो का फलकालेश्वरकाअर्थ है कालस्यईश्वरयानी काल का स्वामी। उज्जैनकेमहाकाल मंदिर के बाद कालेश्वरएकमात्रऐसा मंदिर है जिसके गर्भ गृह में ज्योर्तिलिंगस्थापितहै। यहां भगवान शिव एक अद्भुत लिंगरूपमेंविराजमान हैं।<br /><br />कालेश्वरमेंस्थित कालीनाथमंदिरका इतिहास पांडवों जुडाहै। जनश्रुतिकेअनुसार इस स्थल पर पांडव अज्ञातवास के दौरान आए थे और इसका प्रमाण ब्यासनदीके तट पर उनके द्वारा बनाई गई पौडियोंसेमिलता है। बताया जाता है कि पांडव जब यहां आए तो भारत के पांच प्रसिद्ध तीथरेंहरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन,नासिकव रामेश्वरमकाजल अपने साथ लाए थे और जल को यहां स्थित तालाब में डाल दिया था जिसे पंचतीर्थीकेनाम से जाना जाता है। तबसे पंचतीर्थीतथा व्यास नदी में स्नान को हरिद्वार में स्नान के तुल्य माना गया है। <br /><br />किवदंतीकेअनुसार महर्षि व्यास ने यहां घोर तपस्या की थी। इसका प्रमाण इस स्थल पर स्थित ऋषि-मुनियों की समाधियां से मिलता है। मंदिर का निर्माण पांडवों, कुटलैहडएवंजम्मू की महारानी व राजा गुलेरनेकरवाया था। इस तीर्थ स्थल के साथ महाकाली के विचरण का महात्म्यभीजुडाहै।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-21458066778796634132011-05-10T22:22:00.000-07:002011-05-10T22:24:20.934-07:00कालेश्वर में स्नान करने से मिलता है पांचों तीर्थो का फलकालेश्वरकाअर्थ है कालस्यईश्वरयानी काल का स्वामी। उज्जैनकेमहाकाल मंदिर के बाद कालेश्वरएकमात्रऐसा मंदिर है जिसके गर्भ गृह में ज्योर्तिलिंगस्थापितहै। यहां भगवान शिव एक अद्भुत लिंगरूपमेंविराजमान हैं।<br /><br />कालेश्वरमेंस्थित कालीनाथमंदिरका इतिहास पांडवों जुडाहै। जनश्रुतिकेअनुसार इस स्थल पर पांडव अज्ञातवास के दौरान आए थे और इसका प्रमाण ब्यासनदीके तट पर उनके द्वारा बनाई गई पौडियोंसेमिलता है। बताया जाता है कि पांडव जब यहां आए तो भारत के पांच प्रसिद्ध तीथरेंहरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन,नासिकव रामेश्वरमकाजल अपने साथ लाए थे और जल को यहां स्थित तालाब में डाल दिया था जिसे पंचतीर्थीकेनाम से जाना जाता है। तबसे पंचतीर्थीतथा व्यास नदी में स्नान को हरिद्वार में स्नान के तुल्य माना गया है। <br /><br />किवदंतीकेअनुसार महर्षि व्यास ने यहां घोर तपस्या की थी। इसका प्रमाण इस स्थल पर स्थित ऋषि-मुनियों की समाधियां से मिलता है। मंदिर का निर्माण पांडवों, कुटलैहडएवंजम्मू की महारानी व राजा गुलेरनेकरवाया था। इस तीर्थ स्थल के साथ महाकाली के विचरण का महात्म्यभीजुडाहै।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-7041463161126003162011-04-20T05:42:00.000-07:002011-04-20T05:44:17.421-07:00शंकर-सुवन केसरी नंदनहनुमदुपासना कल्पद्रुमनामक प्राचीन ग्रंथ में लिखा है- चैत्र मासिसितेपक्षेपौर्णमास्यांकुजेऽहनि।मौलीमेखलयायुक्तकौपीन परिधारक।अर्थात चैत्र मास के शुक्लपक्ष में मंगलवार और पूर्णिमा के संयोग की बेला में मूंज की मेखला से युक्त लंगोटी पहने तथा यज्ञोपवीत धारण किए हुए हनुमानजी का आविर्भाव हुआ।<br /><br />स्कंदपुराणके वैष्णवखंडके 40वेंअध्याय के 43वेंश्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि मेष राशि में सूर्य के उच्च स्थिति में होने पर चित्रा नक्षत्र से संयुक्त चैत्रीपूर्णिमा के दिन हनुमानजी का अवतरण हुआ। वहीं आनंद रामायण में भी चैत्रीपूर्णिमा को ही हनुमानजी की जयंती-तिथि माना गया है।<br /><br />हालांकि अयोध्या की हनुमानगढीतथा देश के कुछ हिस्सों में कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भी हनुमान जयंती मनाई जाती है। इसके पीछे वायुपुराण का वह संदर्भ है, जिसमें कहा गया है कि अमावस्या के दिन समाप्त होने वाले आश्रि्वन मास की चतुर्दशी तिथि, मंगलवार और स्वाति नक्षत्र के संयोग में मेष लग्न के समय भगवान शंकर हनुमानजी के रूप में उत्पन्न हुए। लेकिन ज्यादातर स्थानों में चैत्रीपूर्णिमा के दिन ही हनुमान-जयंती का उत्सव मनाया जाता है।<br /><br />ग्रंथों में हनुमानजी के रुद्रावतारअर्थात् भगवान शंकर का अंश होने से संबंधित अनेक कथाएं मिलती है। एक कथा के अनुसार, शिवजी ने श्रीरामचंद्र जी की स्तुति की और यह वर मांगा कि प्रभो!मैं दास्यभावसे आपकी सेवा करना चाहता हूं. श्रीरामचंद्रजीने शिवजी के प्रेम से वशीभूत होकर तथास्तु कहा। कालांतर में शिवजी हनुमान के रूप में अवतरित होकर श्रीरामचंद्र जी के प्रमुख सेवक बनें।<br /><br />विनयपत्रिकाके पदों में गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमानजी को रुद्रावतार,महादेव, वामदेव,कालाग्नि,वानराकारविग्रहपुरारी,मंमथ-मथनआदि शिव-सूचक नामों से संबोधित किया है।<br /><br />दोहावलीमें तुलसी इस विषय में कहते है- जेहिसरीररति राम सोंसोइआदरहिंसुजान/ रुद्रदेहतजिनेहबसवानर भेहनुमान/ जानिराम-सेवा सरस समुझिकरबअनुमान/पुरुषा तेसेवक भएहर तेभेहनुमान।<br /><br />हनुमान चालीसा में भी तुलसीदास ने हनुमानजी को संकर सुवनकहकर रुद्रावतारघोषित किया।<br /><br />एक तरफ भगवान शंकर रामचंद्र जी को अपना आराध्य मानते हैं, वहीं दूसरी ओर श्रीराम रामेश्वर के रूप में उनका पूजन करते है। शिवजी पर चढने वाले बिल्व पत्रों पर राम-नाम लिखने का तात्पर्य भी हरि-हर की एकरूपता है। तत्वतये दोनों एक ही है। बस नाम, स्वरूप और गुण का भेद है। हनुमानजी का शंकर-सुवन होकर रामदूत बनना इसका प्रमाण है।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-74686176013857367242011-04-08T03:58:00.000-07:002011-04-08T03:59:35.785-07:00राम ने की थी शक्ति पूजाचित्रकूट में स्फटिक शिला वर्षो से लोगों की आस्था का केंद्र बनी हुई है। मान्यता है कि इस पर बैठकर ही श्रीराम ने रावण से युद्ध करने से पहले शक्ति पूजा की थी. <br /><br />एक बार चुनिकुसुम सुहाए, <br /><br />मधुकर भूषण राम बनाये। <br /><br />सीतहिंपहिरायेप्रभु सादर, <br /><br />बैठे फटिक शिला पर सुंदर।<br /><br />तुलसी दास जी ने ये पंक्तियां श्रीरामचरितमानस में लिखी थीं। ये पक्तियांवास्तव में चित्रकूट में परांबाजगदीश्वरीजगदाराध्याश्रीसीतारूपिणीमहामाया की भाव-भक्ति भरी उस पूजा की ओर इंगित करती हैं, जिसके बारे में मान्यता है कि अखिल बह्मंाडनायक श्रीराम जी ने स्फटिक शिला पर बैठकर की थी। युगों से चित्रकूट आने वाली लाखों श्रद्धालु मंदाकिनी के तीर पर विशालकाय अर्जुन के वृक्ष की छाया से आच्छादित इस विशालकाय चित्रण पर अपना शीश नवातेहैं। <br /><br />आदि कवि वाल्मीकि हों, तुलसी हों या फिर कविवरनिराला, सभी ने चित्रकूट में राम की शक्ति पूजा को व्याख्यायितकिया है। ग्रंथों में उल्लेख है कि श्रीराम ने अपने जीवन काल में दो विशेष आराधनाएंकी थीं, जिनके विशेष आराधना स्थल चित्रकूट और रामेश्वरमरहे। <br /><br />तपस्थलीमाने जाने वाले चित्रकूट के प्रमुख संत स्वामी सनकादिककहते हैं, वास्तव में चित्रकूट सुखविलासहै। यहां श्रीराम अपने पूर्णतमपरमात्मा के स्वरूप में विद्यमान हैं। चित्रकूट में उन्होंने मां भगवती सीता के स्वरूप में मां भगवती की आराधना की है। महाकवि कालिदासव निराला जी के साथ ही देवी भागवत जैसे ग्रंथ भी इस बात की ताकीद करते हैं। वे कविवरनिराला रचित अनामिका को अपने सुमधुर कंठ से गाते हुए कहते हैं - मात दशभुजाविश्व ज्योति मैं हूं, आश्रित/ हो विद्ध शक्ति में है खल महिषासुर मर्दित / जन रंजन चरण कमल तल / धन्य सिंह गर्जित/यह मेरा प्रतीक मात समझा इंगित/ मै, सिंह इसी भाव से करूंगा अभिनंदन.। <br /><br />सनकादिककहते है कि चित्रकूट वह तीर्थ है, जहां प्रभु श्रीराम ने दशानन के संहार के लिए साढे ग्यारह साल मां भगवती की तपस्या की थी।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-41984955339580409622011-03-05T04:51:00.000-08:002011-03-05T05:00:34.387-08:00परिवेश ही शिव है ऐसी वाणी बोलिए...विज्ञान की बिगबैंगथ्योरी के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक महा विस्फोट से हुई थी। इस सिद्धंातके बरक्सहम शिव तत्व को रख सकते हैं, जो ऊर्जा के रूप में हमारे पूरे परिवेश में व्याप्त है। सृष्टि के जन्म से अंत तक का परिवेश शिव तत्व है, जिसमें डूबने के लिए हमें जागरूक होना होगा अपने परिवेश और समाज के प्रति.। आर्ट ऑफ लिविंग के प्रणेताश्री श्री रविशंकर का नजरिया: <br /><br />शिव वहां होते हैं, जहां मन का विलय होता है। ईश्वर को पाने के लिए लंबी तीर्थ यात्रा पर जाने की आवश्यकता नहीं। हम जहां पर हैं, वहां अगर ईश्वर नहीं मिलता, तो अन्य किसी भी स्थान पर उसे पाना असंभव है। जिस क्षण हम स्वयं में स्थित, केंद्रित हो जाते हैं, तो पाते हैं कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। शोषितों में, वंचितों में, पेड-पौधों, जानवरों में. सभी जगह। इसी को ध्यान कहते हैं। <br /><br />शिव के कई नामों में से एक है विरुपक्ष्। अर्थात जो निराकार है, फिर भी सब देखता है। हमारे चारों ओर हवा है और हम उसे महसूस भी करते हैं, लेकिन अगर हवा हमें महसूस करने लगे तो क्या होगा? आकाश हमारे चारों ओर है, हम उसे पहचानते हैं, लेकिन कैसा होगा अगर वह हमें पहचानने लगे और हमारी उपस्थिति को महसूस करे? ऐसा होता है। केवल हमें इस बात का पता नहीं चलता। वैज्ञानिकों को यह मालूम है और वे इसे सापेक्षताका सिद्धंातकहते हैं। जो देखता है और जो दिखता है; दोनों दिखने पर प्रभावित होते हैं। ईश्वर हमारे चारों ओर है और हमें देख रहा है। वह हमारा पूरा परिवेश है। वह दृष्टा, दृश्य और दृष्टितहै। यह निराकार दैवत्वशिव है और इस शिव तत्व का अनुभव करना शिवरात्रि है। <br /><br />साधारणतया उत्सव में जागरूकता खो जाती है, लेकिन उत्सव में जागरूकता के साथ गहरा विश्राम शिवरात्रि है। जब हम किसी समस्या का सामना करते हैं, तब सचेत व जागृत हो जाते हैं। जब सब कुछ ठीक होता है, तब हम विश्राम में रहते हैं। अद्यंतहिनम्अर्थात जिसका न तो आदि है न अंत, सर्वदावही शिव है। सबका निर्दोष शासक, जो निरंतर सर्वत्र उपस्थित है। हमें लगता है शिव गले में सर्प लिए कहीं बैठे हुए हैं, लेकिन शिव वह हैं, जहां से सब कुछ जन्मा है, जो इसी क्षण सब कुछ घेरे हुए है, जिनमें सारी सृष्टि विलीन हो जाती है। इस सृष्टि में जो भी रूप देखते हैं, सब उसी का रूप है। वह सारी सृष्टि में व्याप्त है। न वह कभी जन्मा है न ही उनका कोई अंत है। वह अनादि है। <br /><br />शिव के पांच रूप हैं- जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश। इन पांचों तत्वों की समझ तत्व ज्ञान है। शिव तत्व में हम उनके पांचों रूपों का आदर करते हैं। हम उदार हृदय से शुभेच्छा करें कि संसार में कोई भी व्यक्ति दुखी न रहे। सर्वे जन: सुखिनोभवंतु.। पृथ्वी के सभी तत्वों में देवत्व है। वृक्षों, पर्वतों, नदियों और लोगों का सम्मान किए बिना कोई पूजा संपूर्ण नहीं होती। सब के सम्मान को दक्षिणा कहते हैं। दक्षिणा का अर्थ है कुछ देना। जब हम किसी भी विकृति के बिना, कुशलता से समाज में रहते हैं, क्रोध, चिंता, दुख जैसी सब नकारात्मक मनोवृत्तियोंका नाश होता है। हम अपने तनाव, चिताएं और दुख दक्षिणा के रूप में प्रकृति और परिवेश को दे दें और अपना समय दुखियों-पीडितोंकी सेवा को समर्पित कर दें। यही शिव की सच्ची उपासना सिद्ध होगी। <br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br />बेजामिनफ्रैंकलिनने अपनी सफलता का कारण बताते हुए कहा था, मैंने तय किया है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं बोलूंगा और जितना भी बोलूंगा, वह उस व्यक्ति की अच्छाइयों के बारे में ही होगा। वाणी के इसी संयम को अध्यात्म में वाचिक तप कहा जाता है अर्थात अपनी वाणी पर कठोर वचनों को न आने देने का प्रयास। श्रीमद्भगवद्गीतामें तीन प्रकार के तप गिनाए गए हैं- शारीरिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप।<br /><br />वाचिक तप के बारे में उल्लेख है, उद्वेग उत्पन्न न करने वाला वाक्य बोलना, प्रिय, हितकारकऔर सत्य वचन बोलना और स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है। <br /><br />हमारे जीवन में वाणी के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसको वश में करने से व्यक्ति बहुत ऊंचा उठता है। इसके विपरीत अनियंत्रित वाणी वाले व्यक्ति को अमूमन जीवन में सफलता नहीं मिल पाती। जब व्यक्ति अपनी वाणी से किसी को ठेस नहीं लगाता और सदैव मीठा बोलता है, उसके इष्ट-मित्रों का दायरा अधिक होता है और लोगों के सहयोग व समर्थन के कारण वह अधिक शक्तिशाली बनकर उभरता है। इसके विपरीत कटु वचन बोलने वाला जीवन में अकेला पडता चला जाता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के लिए वाचिक तप का अत्यंत महत्व है। <br /><br />गीता में कर्म के तीन साधन बताए गए हैं, जिनमें एक साधन वाणी भी है। ऋग्वेद के एक मंत्र का आशय है कि जिस प्रकार छलनी में छानकर सत्तू को साफ करते हैं, वैसे ही जो लोग मन, बुद्धि अथवा ज्ञान की छलनी से छान कर वाणी का प्रयोग करते हैं, वे हित की बातों को समझते हैं अथवा शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। जो बुद्धि से शुद्ध कर के वचन बोलते हैं, वे अपने हित को भी समझते हैं और जिस को बात बता रहे हैं, उसके हित को भी समझते हैं। सोच-समझकर शब्दों का उच्चारण या बोलने में ही, कहने और सुनने वाले का हित-भाव छिपा हुआ है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य निहित रहते हैं। <br /><br />मधुरता से कही गई बात हर प्रकार से कल्याणकारी होती है। परंतु वही बात कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बडे अनर्थ का कारण बन जाती है। आज के समय में, जब कठोर वाणी के कारण रोड रेजजैसे अनेक अपराध बढ रहे हैं, ऐसे समय में वाणी का संयम बहुत ही जरूरी है। आज के आपाधापी के समय में यदि हम सदा मधुर, सार्थक और चमत्कारपूर्ण वचन नहीं बोल सकते, तो कम से कम वाणी में संयम का हमारा प्रयास अवश्य होना चाहिए। <br /><br />महात्मा विदुर ने कहा है कि कटु वचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्मस्थलोंको घायल कर देते हैं, जिसके कारण घायल व्यक्ति दिन-रात दुखी रहता है। उनका परामर्श है कि ऐसे कटु वाग्बाणोंका त्याग करने में अपना और औरों का भला होता है। बाणों से हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाडे से काटा गया वृक्ष फिर उग जाता है, लेकिन वाणी से कटु वचन कहकर किए गए घाव कभी नहीं भरते। इसलिए जो मनुष्य कठोर वचन बोलता है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, दूसरों के बारे में नहीं। स्वार्थी नहीं, बल्कि परमार्थी बनने के लिए आपको कठोर वचनों को छोडना ही पडेगा। <br /><br />मनुस्मृति में मनुष्य के जीवन के लिए जरूरी दस बातें बताई गई हैं, जिनमें पहली जो चार बातें हैं, वे बोलने के संबंध में ही हैं। जिनमें कहा गया है कि हम कठोर न बोलें। कोई भी बात मधुरता से, मृदुलतासे और अपनी वाणी में अपने हृदय का रस घोल कर कहनी चाहिए। कठोर वाणी का तो पूरी तरह परित्याग करना चाहिए। वह मनुष्यों में सबसे अधिक अभागा है, जो कठोर शब्दों द्वारा लोगों के मर्मस्थलोंको विदीर्ण करता है। <br /><br />हमारे मनीषियोंने बार-बार कहा है कि जो व्यक्ति दूसरों के प्रति कडे शब्दों का व्यवहार करता है और पर-निंदा करता है, वह ऐसा पापाचरणकरता हुआ शीघ्र ही विपत्तिायोंमें फंस जाता है। इसलिए न तो किसी को अपशब्द कहे, न दूसरों का अपमान करें और न दुष्ट लोगों की संगति करें। रूखी, कठोर व दूसरों को पीडा पहुंचाने वाली वाणी का त्याग होना चाहिए, क्योंकि मनुष्य की वृद्धि और विनाश उसकी जिज्जाके अधीन होते हैं। मनुष्य का मान-अपमान, उसका आदर-अनादर, उसकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा सब उसकी जिज्जाके वशीभूत होते हैं। वाक-कुशलता बुद्धिमान का एक प्रशंसनीय लक्षण होता है। विदुर ने लक्ष्मी व यश दिलाने वाले सात लक्षण बताए हैं, जिनमें एक मधुर वाणी भी है। जिस मनुष्य में यह गुण होता है, वह अपने विरोधियों और शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है। कटु वचन नासूर की तरह प्रेम को खा जाते हैं।<br /><br />गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, रोष न रसना खोलिए, बरुखोलियतलवार.सुनत मधुर परिनामहित, बोलियवचन विचार.। अर्थात भले ही तुम तलवार खोलो, परंतु रोष में आकर अपनी जिज्जामत खोलो। जो बात सुनने में मधुर हो और परिणाम में हितकारी हो, ऐसे ही वचन विचारपूर्वक कहने चाहिए। वाणी का उचित प्रयोग ही सुखकारी होता है। जिन लोगों के मुख पर प्रसन्नता होगी, हृदय में दया होगी, वाणी में मधुरता होगी, कत्र्ताव्यमें परोपकार होगा, वे सभी के लिए वंदनीय होते हैं। <br /><br />मीठे वचनों का सुख लाभकारी है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारा जीवन ज्ञान, निर्मलता, शक्ति व शुभ वाणी से अलंकृत हो। हम जिज्जापर संयम साध लें।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-74305393225010051862011-02-21T04:19:00.000-08:002011-02-21T04:20:15.684-08:00आओ वासंती हो जाएवसंत पंचमी उमंग, उल्लास, उत्साह, विद्या, बुद्धि और ज्ञान के समन्वय का पर्व है। मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनसे हम विवेक व बुद्धि प्रखर होने, वाणी मधुर व मुखर होने और ज्ञान साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की कामना करते हैं। पुराणों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन ब्रह्माजी के मुख से मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था और जड-चेतन को वाणी मिली थी। इसीलिए वसंत पंचमी को विद्या जयंती भी कहा जाता है और इस दिन सरस्वती पूजा का विधान है। <br /><br />वसंत पंचमी पर हम ऋतुओं के राजा वसंत का स्वागत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में वसंत ऋतु को अपनी विभूति बताया है। उन्होंने कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूं। <br /><br />मनुष्य ही नहीं, जड और चेतन प्रकृति भी इस महोत्सव के लिए श्रृंगार करने लगती है। सबके मन और देह में नई शक्ति व ऊर्जा की अनुभूति होती है। तरह-तरह के फूल खिलने लगते हैं। हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। हरी धानी साडी, पीली-पीली फूली सरसों की चुनरिया, रंग बिरंगे फूलों का श्रृंगार, कोयल की कुहू-कुहू और भंवरों का गुंजार संदेश देते हैं कि ऋतुराज वसंत आ गया है। <br /><br />संतकवितुलसीदास ने रामचरित मानस में और महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। मान्यता है कि कवि कालिदास पहले अज्ञानी व महामूर्खथे, लेकिन मां सरस्वती से ज्ञान का वरदान पाकर महाकवि कालिदास हो गए थे। मां सरस्वती हमें अविवेक व अज्ञानता से मुक्ति दिलाती हैं। बुद्धि और विवेक ही है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। जीवन में इसी का प्रयोग करके मनुष्य सुख, समृद्धि एवं शांति का भोग कर सकता है। <br /><br />पद्मपुराणमें वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्रवस्त्रपहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्रहमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। सरस्वती का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है। <br /><br />कुछ चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। कीचड में खिलने वाले कमल को कीचड स्पर्श नहीं कर पाता। यानी हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पडे, परंतु बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना इस बात की द्योतक है कि उल्लास में बुद्धि व विवेक का संबल बना रहे। <br /><br />आज अभावों व कुंठाओं में कभी-कभी जिंदगी की कशमकश इस वासंती रंग को फीका करने लगती है। तो क्यों न हम वसंत से प्रेरणा लेकर जीवन को संपूर्णता से जिएं और कामना करें कि सबके जीवन में खुशियों के फूल सदा खिलते रहें। वसंत ऋतु जैसा उल्लास व सुंदरता बनी रहे, क्योंकि जो सत्य है, वही शिव है और वही सुंदर है।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-64926095276114497352011-02-04T00:04:00.000-08:002011-02-04T00:05:35.216-08:00कर्म में स्वार्थ नहींमनुष्य नाना प्रकार के हेतु (प्रयोजन) लेकर कार्य करता है, क्योंकि बिना हेतु के कार्य हो ही नहीं सकता। कुछ लोग यश चाहते हैं, और वे यश के लिए काम करते हैं। दूसरे पैसा चाहते है, और वे पैसे के लिए काम करते हैं। कुछ अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, और वे अधिकार के लिए काम करते हैं। कुछ लोग मृत्यु के बाद अपना नाम छोड जाने के इच्छुक होते हैं। चीन में प्रथा है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद ही उसे उपाधि दी जाती है। किसी ने यदि बहुत अच्छा कार्य किया, तो उसके मृत-पिता अथवा पितामह को कोई सम्माननीय उपाधि दे दी जाती है। इस्लाम धर्म के कुछ संप्रदायों के अनुयायी इस बात के लिए आजन्म काम करते रहते हैं कि मृत्यु के बाद उनकी एक बडी कब्र बने। इस प्रकार, मनुष्य को कार्य में लगाने वाले बहुत से उद्देश्य होते हैं। <br /><br />प्रत्येक देश में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उससे दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो और भी उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई तथा मनुष्य-जाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हैं, क्योंकि भलाई में उनका विश्वास है और उसके प्रति प्रेम है। <br /><br />देखा जाता है कि नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुधा शीघ्र फलित नहीं होता। ये चीजें तो हमें उस समय प्राप्त होती हैं, जब हम वृद्ध हो जाते हैं। असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती है और सच पूछा जाय, तो नि:स्वार्थताअधिक फलदायीहोती है, पर लोगों में इसका अभ्यास करने का धीरज नहीं रहता। यदि कोई मनुष्य पांच दिन या पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किए, बिना स्वर्ग, नरक या अन्य किसी के संबंध में सोचे, नि:स्वार्थतासे काम कर सके, तो वह एक महापुरुष बन सकता है। यह शक्ति की महत्तम अभिव्यक्ति है-इसके लिए प्रबल संयम की आवश्यकता है। अन्य सब बहिर्मुखी कर्मो की अपेक्षा इस आत्मसंयम में शक्ति का अधिक प्रकाश होता है। मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्णउद्देश्य की ओर दौडती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है, वह फिर तुम्हारे पास लौटकर तुम्हारे शक्ति विकास में सहायक नहीं होती। परंतु यदि उसका संयम किया जाए, तो उससे शक्ति की वृद्धि होती है। इस आत्मसंयम से एक महान् इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वह एक ऐसे चरित्र का निर्माण करता है, जो जगत् को अपने इशारे पर चला सकता है। <br /><br />प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर ध्येयों की ओर बढने तथा उन्हें समझने का प्रबल यत्न करते रहना चाहिए। यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस आदमी का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा रहता है। यदि तुम एक श्रेष्ठ एवं भला कार्य करना चाहते हो, तो यह मत सोचो कि उसका फल क्या होगा। कर्मयोगी के लिए सतत कर्मशीलताआवश्यक है। बिना कार्य के हम एक क्षण भी नहीं रह सकते। <br /><br />अब प्रश्न यह उठता है कि आराम के बारे में क्या होगा? यहां इस जीवन-संग्राम के एक ओर है कर्म, तो दूसरी ओर है शांति। सब शांत, स्थिर। यदि एक ऐसा मनुष्य, जिसे एकांतवास का अभ्यास है, संसार के चक्कर में घसीट लाया जाए, तो उसका ध्वंस हो जाएगा। जैसे समुद्र की गहराई में रहने वाली मछली पानी की सतह पर लाते ही मर जाती है। वह सतह पर पानी के उस दबाव की अभ्यस्त नहीं होती। इसी प्रकार, सांसारिक तथा सामाजिक मनुष्य शांत स्थान पर ले जाया जाय, तो क्या वह शांतिपूर्वक रह सकता है? कदापि नहीं। <br /><br />आदर्श पुरुष वे हैं, जो परम शांत एवं निस्तब्धताके बीच भी तीव्र कर्म तथा प्रबल कर्मशीलताके बीच भी मरुस्थल की शांति एवं निस्तब्धताका अनुभव करते हैं। यही कर्मयोग का आदर्श है। यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया। <br /><br />जो कार्य हमारे सामने आते जाएं, उन्हें हम हाथ में लेते जाएं और शनै:-शनै:अपने को दिन-प्रतिदिन नि:स्वार्थ बनाने का प्रयत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारा हेतु क्या है। ऐसा होने पर हम देख पाएंगे कि आरंभावस्थामें प्राय: हमारे सभी कार्यो का हेतु स्वार्थपूर्णरहता है, किंतु धीरे-धीरे यह स्वार्थपरायणताअध्यावसायसे नष्ट हो जाएगी, और अंत में वह समय आ जाएगा, जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित होकर कार्य करने के योग्य हो सकेंगे।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-49780368895636584412011-02-04T00:00:00.000-08:002011-02-04T00:01:13.505-08:00आओ वासंती हो जाएवसंत पंचमी उमंग, उल्लास, उत्साह, विद्या, बुद्धि और ज्ञान के समन्वय का पर्व है। मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनसे हम विवेक व बुद्धि प्रखर होने, वाणी मधुर व मुखर होने और ज्ञान साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की कामना करते हैं। पुराणों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन ब्रह्माजी के मुख से मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था और जड-चेतन को वाणी मिली थी। इसीलिए वसंत पंचमी को विद्या जयंती भी कहा जाता है और इस दिन सरस्वती पूजा का विधान है। <br /><br />वसंत पंचमी पर हम ऋतुओं के राजा वसंत का स्वागत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में वसंत ऋतु को अपनी विभूति बताया है। उन्होंने कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूं। <br /><br />मनुष्य ही नहीं, जड और चेतन प्रकृति भी इस महोत्सव के लिए श्रृंगार करने लगती है। सबके मन और देह में नई शक्ति व ऊर्जा की अनुभूति होती है। तरह-तरह के फूल खिलने लगते हैं। हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। हरी धानी साडी, पीली-पीली फूली सरसों की चुनरिया, रंग बिरंगे फूलों का श्रृंगार, कोयल की कुहू-कुहू और भंवरों का गुंजार संदेश देते हैं कि ऋतुराज वसंत आ गया है। <br /><br />संतकवितुलसीदास ने रामचरित मानस में और महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। मान्यता है कि कवि कालिदास पहले अज्ञानी व महामूर्खथे, लेकिन मां सरस्वती से ज्ञान का वरदान पाकर महाकवि कालिदास हो गए थे। मां सरस्वती हमें अविवेक व अज्ञानता से मुक्ति दिलाती हैं। बुद्धि और विवेक ही है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। जीवन में इसी का प्रयोग करके मनुष्य सुख, समृद्धि एवं शांति का भोग कर सकता है। <br /><br />पद्मपुराणमें वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्रवस्त्रपहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्रहमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। सरस्वती का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है। <br /><br />कुछ चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। कीचड में खिलने वाले कमल को कीचड स्पर्श नहीं कर पाता। यानी हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पडे, परंतु बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना इस बात की द्योतक है कि उल्लास में बुद्धि व विवेक का संबल बना रहे। <br /><br />आज अभावों व कुंठाओं में कभी-कभी जिंदगी की कशमकश इस वासंती रंग को फीका करने लगती है। तो क्यों न हम वसंत से प्रेरणा लेकर जीवन को संपूर्णता से जिएं और कामना करें कि सबके जीवन में खुशियों के फूल सदा खिलते रहें। वसंत ऋतु जैसा उल्लास व सुंदरता बनी रहे, क्योंकि जो सत्य है, वही शिव है और वही सुंदर है।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-71220262056200784122011-01-02T01:56:00.000-08:002011-01-02T02:05:24.383-08:00ऊं नम: शिवाय से गूंजी पहाड़ीरातू रोड स्थित रांची की पहाडी पर विराजमान बाबा पहाडी का 14वां वार्षिकोत्सव रूद्राभिषेक के साथ शनिवार को शुरू हो गया। कार्यक्रम का समापन रविवार को होगा। <br /><br /> महाकाल मंदिर, काली मंदिर, विश्वनाथ मंदिर सहित परिसर और सीढियों को रंग-बिरंगे फूलो से सजाया गया । बंगाल एवं उडीसा के 25 कलाकारों ने दिन-रात एक कर विशालकाय नाग का निर्माण किया है। हाल की छत पर विशाल पंडाल बनाया गया है, जहां भोलेश्वर की भव्य झांकी बनी है। वही, मुख्य हाल की झांकी में समुद्र मंथन का दृश्य दिखाई दे रहा है। रात में बिजली की जगमग से पहाडी चमक रही है। पूरा मंदिर प्रांगण ओम नम: शिवाय के पंचाक्षरी मंत्रों से गूंज रहा था। वहीं, महामृत्युंजय मंत्र के अलावा शिव के अन्य मंत्रों से भी मंदिर का मुख्य परिसर गूंज रहा था। दुग्ध, बेल पत्र से भगवान का अभिषेक किया गया। भगवान की पूजा के लिए भक्तों की अपार भीड सुबह से ही शुरू से ही शुरू हो गई थी। <br /><br />कार्यक्रम की शुरुआत ध्वज पूजा के साथ हुई। इसके बाद रूद्राभिषेक किया गया। सांय तुलसी कृत मानस के सुंदरकांड का पाठ किया गया।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-6479105135165527342010-12-31T21:52:00.000-08:002010-12-31T21:54:35.508-08:0046 साल से गूंज रही रामधुनजामनगर। यहां पर एक ऐसा मंदिर है जहां पिछले 46 साल से रामधुन लगातार गूंज रही है। इस कारण मंदिर का नाम गिनीज बुक में भी दर्ज हो चुका है। <br /><br />इस बाल हनुमान मंदिर में प्रतिदिन अलग-अलग पालियों में भगवान राम की प्रार्थना की जाती है। इसके लिए एक दिन पहले लोगों के नाम तय किए जाते हैं और इसे मंदिर के नोटिस बोर्ड पर लगाया जाता है। इसे देखकर लोग प्रार्थना केलिए अपने समय का ध्यान रखते हैं। <br /><br />मंदिर के ट्रस्टी जैसुखभाई गुसानी के अनुसार मंदिर का निर्माण 1961 में प्रेम भीकुजी महाराज द्वारा कराया गया था। तीन वर्ष बाद उन्होंने यहां अपने अनुयायियों के साथ रामधुन की शुरुआत की थी। उसके बाद से लगातार यहां श्रीराम जय राम जय जय राम की धुन जारी है। <br /><br />राम धुन गाने वाले सभी श्रद्धालु होते हैं। इसमें महिलाएं और बच्चे भी भाग लेते हैं। गिनीज बुक की ओर से मंदिर को 1984 और 1988 में प्रमाणपत्र दिया जा चुका है। गुसानी के अनुसार मंदिर में प्रार्थना में कोई रुकावट न आए, इसके लिए ट्रस्ट ने दिन और रात के लिए रामधुन गाने वाले चार गायकों की व्यवस्था की है। यहां 2001 में आए विनाशकारी भूकंप के दौरान भी प्रार्थना बंद नहीं हुई थी।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-86864253180189927012010-12-18T22:08:00.000-08:002010-12-18T22:10:09.302-08:00रूप, जय, तेज व यश देती है एकादशीराजधानी में देवोत्थान एकादशी का पर्व धूमधाम से मनाया गया। इस मौके पर लक्ष्मी-नारायण के साथ भगवान शालिग्राम व तुलसी मैया की पूजा-अर्चना हुई। श्रद्धालुओं ने शालिग्राम व तुलसी को पवित्र गंगाजल से स्नान कराकर मनोकामना सिद्धि की प्रार्थना की। <br /> समस्त एकादशियों में निर्जला एकादशी व देवोत्थान एकादशी का विशेष महत्व है। मनुष्य यदि निर्मल एवं पवित्र भाव से इन एकादशियों में पूजा-अर्चना करे तो संसार में रूप, जय, तेज व यश की प्राप्ति होती है। उसके समस्त विकार तत्काल दूर हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि शालिग्राम प्रभु व तुलसी मईया का बहुत ही भावनात्मक एवं निर्मल रिश्ता है। पर्यावरण की दृष्टि से भी तुलसी के पौधे के हमारे जीवन में विशेष महत्व है। जिस घर में तुलसी का पौधा होता है, वह वातावरण हमेशा स्वच्छ रहता है। तुलसी के पौधे में समस्त देवी-देवताओं का निवास भी है।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-47461557163632449132010-11-06T03:44:00.001-07:002010-11-06T03:44:55.201-07:00जीवन सरल बनाएंआधुनिक जीवन अत्यधिक असंतोषजनक बनता जा रहा है। यह हमें प्रसन्नता नहीं प्रदान करता। इसमें बहुत सी जटिलताएं हैं, बहुत सी इच्छाएं हैं। हम अत्यधिक आवश्यकताओं से स्वयं को मुक्त करें और ईश्वर के साथ अधिक समय व्यतीत करें। अपने जीवन को सरल बनाएं। अपने अंतर में, अपनी आत्मा से प्रसन्न रहें। हम अपने बचे हुए समय को ध्यान में लगाएं, जो ईश-संपर्क प्रदान करता है तथा शांति एवं प्रसन्नता रूपी जीवन की वास्तविकताओंकी प्राप्ति में सच्ची प्रगति प्रदान करता है।<br /><br />अपना जीवन सरल बनाएं और उतने में ही आनन्द लें जो हमें ईश्वर ने दिया है। अपना खाली समय स्वाध्याय में लगाएं। ईश्वर की मौन वाणी समस्त प्राणी-जगत का आधार है,धर्म-ग्रन्थों के माध्यम से और हमारे अंत:करण के माध्यम से सदा हमें पुकारती रहती है। चिरस्थायी आनंद प्राप्ति के लिए भौतिक धन-संपदा पर विश्वास करना उचित नहीं है। सरल जीवन के द्वारा हमें सर्वसंतुष्टिदायकप्रसन्नता प्राप्त होती है। सादगी का अर्थ है इच्छाओं और आसक्तियोंसे मुक्त रहना और आंतरिक रूप से परमानन्द में मग्न रहना। सरलता से जीवनयापन करने के लिए हमें प्रबल मन और अदम्य इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम अभाव में रहें, बल्कि हम उसी के लिए प्रयास करें और उसी में संतोष करें जिस चीज की हमें वास्तव में आवश्यकता है। जब हमारी अंतरात्मा मानसिक रूप से सांसारिक वस्तुओं का परित्याग कर देती है, तो हमें स्थायी रूप से संतुष्टि करने वाले आनंद की प्राप्ति होने लगती है। जब हम ईश्वर की इच्छा के अनुसार अपने कर्मो का चयन करते हैं, तो जीवन सरल हो जाता है। यदि हम अपना मन निर्मल रखें, तो हम सदा ईश्वर को अपने साथ पाएंगे। हम अपने प्रत्येक विचार में उनकी झलक देखेंगे। एक निर्मल हृदय निर्मल विचारों का परिणाम होता है। हम स्वयं एक छोटे बच्चे के समान सरल बनकर,आसक्ति रहित,सच्चा एवं भोला बनकर ब्रह्म चैतन्य प्राप्त करने की चेष्टा करके उस दिव्य अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। भक्त अंत: प्रज्ञा से परिपूर्ण हो जाता है जो शिशु समान निष्कपट होता है, संशय रहित होता है, सत्यनिष्ठा से पूर्ण होता है तथा विनम्र एवं ग्रहणशील होता है। ऐसा भक्त ईश्वर को प्राप्त करता है।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-72794578441775312192010-10-22T00:28:00.000-07:002010-10-22T00:30:49.703-07:00दस श्रेष्ठ मुहूर्तो में मिलेगा खरीददारी का मौकादीपावली के अवसर पर आगामी पंद्रह दिनों में दस मुहूर्तो में लोगों को खरीददारी का विशेष मौका मिलेगा। इसमें 30अक्टूबर को पुष्यनक्षत्र और 3नवंबर को धनतेरस के दो योग तो खरीददारी के लिहाज से महायोगहोंगे। धनतेरस पर बन रहा महायोगअगली बार 14साल बाद बनेगा। <br /><br />खरीददारी के इन श्रेष्ठ मुहूर्तो की शुरुआत 22अक्टूबर शुक्रवार से होगी। जब लोग शरद पूर्णिमा में खरीददारी करेंगे। यह मुहूर्त शाम चार बजे के बाद शुरू होगा। इसके अलावा 24,25,28,29,30अक्टूबर, 2,3,4और 5नवंबर को भी कई ऐसे योग है, जो शास्त्रों में नया आइटम घर लाने के लिए श्रेष्ठ माने गए है। एक साथ आ रहे इन मुहूर्तो को लेकर उत्साही व्यापारी कहते हैं कि नवरात्रि से प्रारंभ हुआ खरीददारी का दौर इन मुहूर्तो में चरम पर रहेगा। अनुमान है कि वाहन, ज्वैलरी,प्रापर्टी, इलेक्ट्रानिक आइटम, गारमेंट्स, फर्नीचर, मोबाइल, सजावटी आइटम आदि की जमकर बिक्री होगी। <br /><br /> धनतेरस का दिन खरीददारी का महायोगमाना जाता है। बुधवार गणेश जी का वार है। इस दिन लोग खरीददारी को विशेष महत्व देते है। इस बार यह दोनों ही दिन एक साथ आ रहे हैं। जो खरीददारी में चार चांद लगा देंगे। ऐसा अवसर इसके बाद 30अक्टूबर 2024को बनेगा। यानी लोगों को फिर ऐसे शुभ दिन के लिए 14साल का लंबा इंतजार करना पडेगा। श्री शर्मा ने बताया कि शरद पूर्णिमा 22अक्टूबर से खरीददारी के मुहूर्तो की शुरुआत हो जाएगी। इसके बाद धनतेरस तक कई मुहूर्त ऐसे हैं, जिनमें लोग खरीददारी कर सकते हैं। <br /><br /><br />खरीददारी के शुभ मुहूर्त <br /><br />22अक्टूबर शरद पूर्णिमा <br /><br />24अक्टूबर रविवार, भडनीनक्षत्र <br /><br />25अक्टूबर सर्वार्थसिद्धि योग <br /><br />28 अक्टूबर सर्वार्थसिद्ध योग, रवि योग <br /><br />29अक्टूबर सर्वार्थसिद्धि योग <br /><br />30अक्टूबर पुष्यनक्षत्र <br /><br />2नवंबर सर्वार्थसिद्ध योग <br /><br />3नवंबर धनतेरस, सर्वार्थसिद्धि योग, बुधवार <br /><br />4नवंबर नरक चतुदर्शी,हनुमान जयंती <br /><br />5नवंबर दीपावली <br /><br />6नवंबर गोवर्धनपूजा, सर्वार्थसिद्धि योग <br /><br /><br />दीपावली से पहले पुष्यनक्षत्र <br /><br />दीपावली से पहले आने वाले पुष्यनक्षत्रों को शास्त्रों में विशेष महत्व दिया गया है। इस बार 5नवंबर को दीपावली से पहले 30अक्टूबर को पुष्यनक्षत्र का शुभ योग है। पुष्यनक्षत्र सभी नक्षत्रों का राजा होता है। यह दिन खरीददारी के लिए उत्तम है। व्यापारी भी इस दिन ही अपने बहीखातों और कलम की खरीददारी को शुभ मानते है। <br /><br /><br />पांच को ही मनेगी दीपावली <br /><br />दीपावली की तिथि में उलटफेर को लेकर पंडितों ने एकमत से कहा है कि पांच नवंबर को दीपावली मनाई जाएगी। उद्यातिथि को लेकर कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए। उनका कहना है कि तीन नवंबर को द्वादशी तिथि दोपहर 3.59बजे समाप्त होगी। इसके बाद धनत्रयोदशीव प्रदोषकालउसी दिन माना जाएगा। अगले दिन चार नवंबर को शाम 4.11बजे के बाद रूप चौदस की तिथि शुरू हो जाएगी। पांच नवंबर को दोपहर 1.04बजे तक चतुदर्शीकी तिथि के बाद दीपोत्सव का पर्व शुरू होगा। छह नवंबर को अन्नकूटमहोत्सव मनाया जाएगा।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-90527446273114013062010-10-10T03:41:00.000-07:002010-10-10T03:42:28.214-07:00जीवन में पूर्णता ला रहा 10-10-1010-10-10,यानिशक्ति, धर्म, ऊर्जा, ज्ञान, सत्ता बल और यशस्वी गुरुपदसे युक्त गुणों को पुष्ट करने का योग। शनि ग्रह से युक्त सदी के अंतराल में बनने वाले इस योग का पूर्णाक 5है। 10का स्वामी शनि है तो 5का सूर्य। इसीलिए दोनों के गुण व लक्ष्य भी बिल्कुल भिन्न हैं। पिता-पुत्र होने के बावजूद दोनों व्यावहारिक व वैचारिक रूप में एक नहीं हो सकते। लेकिन, 10अक्टूबर को रविवार पडने से यह योग सूर्य को पूर्णरूप से प्रभावी बना रहा है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार प्रत्येक ग्रह के प्रभावी होने से पूर्व उसके लक्षण दिखने लगते हैं और ऐसा ही प्रत्यक्ष भी है। <br /><br />अंकशास्त्र के अनुसार 10का अंक पूर्णता का प्रतीक एवं जीवन का आधार रूप है। यह संयम और इंद्रियों का निग्रह कर चेतना जाग्रत करने का अवसर प्रदान करता है। 10-10-10का मूलांक5और स्वामी बृहस्पति है, जो मनुष्य को आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करने की शक्ति देता है। 5के अंक को परमात्मा का उदर कहा गया है, जिसमें पृथ्वी गर्भस्थ है। कहते हैं कि विद्या, वित्त, आयु, विनय व निधन, ये पांच चीजें गर्भ में ही निहित हो जाती हैं। इसलिए पंचतत्वों से विद्यमान परमात्मा का स्वरूप हिरण्यगर्भ है और हम सभी पृथ्वी, जल, तेज, वायु व आकाश के रूप में हिरण्यगर्भ रूप परमात्मा के अंदर समाहित हैं। <br /><br />आचार्य डा.संतोष खंडूडीकहते हैं कि पंचतनमात्राएं तत्व, स्पर्श, रूप, रस व गंध के रूप में प्रत्येक में विद्यमान हैं, जो ईश्वर को अपने भीतर धारण करने का मौका देती हैं। तभी मनुष्य ईश्वर की शक्तियों को प्राप्त कर सकता है, जो कि जाति, धर्म व परंपरा से अलग है। डा.खंडूडी के अनुसार 5का अंक इतना प्रभावशाली है कि प्राकृतिक प्रकोप, आतंरिककलह, किसी राज्य में सत्ता परिवर्तन, दुर्घटनाएं व जनसाधारण में भय का वातावरण कायम कर सकता है। इसलिए हमें संयम व इंद्रियों को निग्रह में रखकर इन सब स्थितियों से बचना होगा। जीवन में पूर्णता लाने का यही एकमात्र विकल्प है।<br /><br />पांच देव और पांच ही प्राण सृष्टि पंचभूत है और जीवन भी। पृथ्वी, जल, वायु, तेज व आकाश से इसकी उत्पत्ति होती है। देव भी पांच हैं, इसलिए उन्हें पंचदेव कहा गया है। पंचांग की रचना भी पांच तत्वों तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण से हुई है। प्राण भी पांच हैं और ज्ञानेंद्रियांभी। पंचांगुलीसाधना, पंच प्रयाग, पंच बदरी,पंच केदार, पंचगव्य, पंचामृत, पंचमेवा,पंच फल, पंच परमेश्वर, पंचक, पंचवर्णीबल सभी पांच के अंक से प्रभावित हैं। &द्यह्ल;क्चक्त्र&द्दह्ल; <br /><br />यह हैं प्रभावी कारक<br /><br />सिंह राशि, बृहस्पति ग्रह, मृगशिरानक्षत्र, अग्नि तत्व, शोभन योग और मां दुर्गा का पांचवां अवतार रोहिणी जीवन को विशेष रूप से प्रभावित करेंगेMukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-30254767138830902622010-10-10T03:39:00.000-07:002010-10-10T03:40:29.805-07:00गागर में सागर है नवरात्रहमारा देश में आध्यात्मिक ऊर्जा कण-कण में समाविष्ट है। यही कारण है कि जहां रोम, ग्रीक, मिस्नऔर वेवीलोनआदि जैसी प्राचीन सभ्यताएं और संस्कृतियां काल के प्रवाह में विलुप्त होती चली गई, वहीं भारत की संस्कृति अक्षुण्ण रही। <br /><br />जगजननीमाता पार्वती तो तपोव्रत और एकनिष्ठव्रतकी मूर्तिमान विग्रह ही है। उनके तपोव्रत का मानस में बडा ही सुंदर वर्णन है-रिषिन्ह गौरी देखी तह कैसी। मूरतिमंततपस्या जैसी।। बोले मुनि सुनुसैल कुमारी। करहु कवन कारण तपुभारी।। मां जगजननीके नवरात्रवर्ष में दो बार आते हैं। यह नवरात्रऋद्धि-सिद्धि लाते हैं। मन शुद्ध हो, विधिवत पूजन हो तो मां भगवती की कृपा अवश्य होती है और मां हर मनोकामना पूर्ण करती है। वेद-पुराण उपनिषद, रामायण, महाभारत, भागवत गीता की तुलना में अगर नवरात्रको सामने रखा जाए तो नवरात्रमें दुर्गा पूजन के समक्ष कोई ग्रंथ शक्ति नहीं जो आपकी मनोकामना पूर्ण करती हो। भारतीय संस्कृति में शक्ति का स्वरूप दिव्य एवं व्यापक है। शैलपुत्री,ब्रंाचारिणी,चंद्रघंटा,कूष्मांडा,स्कंदमाता,कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरीएवं सिद्धदात्रीनामों से प्रसिद्ध नौ देवियों का केंद्र बिंदु मां जगजननीही है। दुर्गा की मूर्ति में हर काल में कुछ बदलाव आया है। कुषाणकाल में न तो दुर्गा की रूप ऐसा था, न ही उस समय उन्हें देवी के रूप में माना जाता था। उस समय इस पत्थर की मूर्ति के दो या चार हाथ होते थे और वाहन शेर भी न था। पांचवीं शताब्दी में दुर्गा की मूर्ति के चार हाथ थे और उसे भैंस से लडते दिखाया गया है। उसके हाथ में तलवार, भाला और ढाल थे। छठी से 12वींशताब्दी तक देवी के रूप का पूरा विकास हुआ। इस समय देवी के वाहन के रूप में सिंह प्रकट हुआ। भाले का स्थान त्रिशूल ने ले लिया। हाथों की संख्या भी 8-10-12से लेकर कुछ जगह 16तक पहुंची। जैसे-जैसे देवी की मूर्ति विकसित होती गई उनका प्रभाव भी बढता गया। मध्ययुग में देवी पूजा की लहर तेजी से फैली। इस लहर का इतना हल्ला हो गया। मां दुर्गा का मायके आना हो गया। इस नवरात्रमें मां अपने ससुराल शिव लोक से धरती लोक में मायके आती है। साधकों को मनचाहा फल देती हैं। प्रतिपदा से नवरात्रप्रारंभ होता है। अमावस्या युक्त प्रतिपदा ठीक नहीं मानी जाती। नौ रात्रि तक व्रत करने से यह नवरात्रपूर्ण होता है। तिथि ह्रास-वृद्धि से इसमें न्यूनाधिकतानहीं होती। प्रारंभ करते समय यदि चित्राऔर वैधृतियोग हो तो उनकी संपतिके बाद व्रत प्रारंभ करना चाहिए। परंतु देवी का आवाह्न,स्थापना और विसर्जन ये तीनों प्रात:काल में होने चाहिए। अतचित्रा,वैधृतिअधिक समय तक हो तो उसी दिन अभिजित्तमुहूर्त में आरंभ करना चाहिए। नवरात्रगागर में सागर की भांति बहुत व्यापक भावों को अपने में संजोये हुए है। नवरात्रपुण्यार्जक,पापनाशक दैहिक और आमुन्मिकउन्नति में सहायक, स्वास्थ्यवर्धकविभिन्न प्रकार के सकाम-निष्काम भावों का फल प्रदान करती है। अंत में देवनको धन-धाम सम, दैत्यनलियोछिनाय।दे काढिसुरधाम ते,वसेशिवपुरी जाय।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2947406679477996292.post-11799245903139433252010-06-05T05:41:00.000-07:002010-06-05T05:42:29.901-07:00भोजन से आध्यात्मकमनुष्य अपनी इंद्रियों के माध्यम से संसार के नाना प्रकार के आकर्षणों से युक्त रूप, रस, शब्द, गंध व स्पर्श द्वारा विषयों का आस्वादन लेते हुए स्वास्थ्य, सुख और शांति की मृगमरीचिका में आजीवन विचरण करता रहता है। उसे स्वास्थ्य, सुख और शांति के बदले बार-बार शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक बेचैनी, चिंता व तनाव से जूझते रहना पडता है। चंचल मन, जिसे नियंत्रित करना वायु को नियंत्रित करने के समान दुष्कर है, वह इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता। बुद्धि, इंद्रियों के विषयोन्मुखहोने के दुष्परिणाम जानते हुए भी न तो मन को रोक पाती है न इंद्रियों को। <br /><br />सामान्य मनुष्य न तो सक्षम गुरुओं के संपर्क में होता है, न शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा ही ज्ञानयोग, भक्तियोग,कर्मयोग, राजयोग, हठयोग को जीवन में अपना पाता है। ऐसी स्थिति में वह क्या करे? ऐसी स्थिति में सबसे पहले अपने भोजन पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि भोजन का सीधा प्रभाव मन और विचारों पर पडता है। कहते हैं जैसा खाओ अन्न, वैसा बनेगा मन। गीता में तीन प्रकार का भोजन बतलाया गया है- सात्विक, राजसी और तामसी। इनके अनुसार ही मन की प्रवृत्तियां और विचार बनते हैं। इन्हीं के अनुरूप हम वाणी से बोलते हैं और उन्हीं से प्रेरित होकर आचरण करते हैं। हम जैसा आचरण करते हैं उसका तद्नुरूपपरिणाम भी सुख, दु:ख, स्वास्थ्य अथवा बीमारी और कष्ट के रूप में प्राप्त करते हैं। तामसी भोजन करने वाला निश्चित रूप से आलसी, प्रमादी और अकर्मण्य होगा। राजसी भोजन करने वाले व्यक्ति में विलासी, क्रोधी, झगडालू प्रवृत्ति वाला होने, स्वादिष्ट होने की वजह से अधिक भोजन खाने की आदत वाला होने के कारण बार-बार अस्वस्थ होने की संभावना होती है। इसी प्रकार सात्विक भोजन के प्रभाव से मनुष्य श्रेष्ठ विचारों, सद्ग्रंथोंऔर सत्पुरुषों की ओर प्रेरित होता है। सदाचार, शांत, स्वभाव, स्वस्थ शरीर, रोगों से मुक्ति सात्विक भोजन के परिणाम होते हैं। उस व्यक्ति की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। उसके पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश में शांति और सामंजस्य होता है। मनुष्य का जीवन धृति, क्षमा, दमो, अस्तेयम्धर्म के दस लक्षणों को धारण करने योग्य बनकर शांति और आनंद प्राप्त करने की क्षमता से संपन्न हो सकेगा।Mukesh Yadavhttp://www.blogger.com/profile/02095554116552156114noreply@blogger.com1