वसंत पंचमी उमंग, उल्लास, उत्साह, विद्या, बुद्धि और ज्ञान के समन्वय का पर्व है। मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनसे हम विवेक व बुद्धि प्रखर होने, वाणी मधुर व मुखर होने और ज्ञान साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की कामना करते हैं। पुराणों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन ब्रह्माजी के मुख से मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था और जड-चेतन को वाणी मिली थी। इसीलिए वसंत पंचमी को विद्या जयंती भी कहा जाता है और इस दिन सरस्वती पूजा का विधान है।
वसंत पंचमी पर हम ऋतुओं के राजा वसंत का स्वागत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में वसंत ऋतु को अपनी विभूति बताया है। उन्होंने कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूं।
मनुष्य ही नहीं, जड और चेतन प्रकृति भी इस महोत्सव के लिए श्रृंगार करने लगती है। सबके मन और देह में नई शक्ति व ऊर्जा की अनुभूति होती है। तरह-तरह के फूल खिलने लगते हैं। हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। हरी धानी साडी, पीली-पीली फूली सरसों की चुनरिया, रंग बिरंगे फूलों का श्रृंगार, कोयल की कुहू-कुहू और भंवरों का गुंजार संदेश देते हैं कि ऋतुराज वसंत आ गया है।
संतकवितुलसीदास ने रामचरित मानस में और महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। मान्यता है कि कवि कालिदास पहले अज्ञानी व महामूर्खथे, लेकिन मां सरस्वती से ज्ञान का वरदान पाकर महाकवि कालिदास हो गए थे। मां सरस्वती हमें अविवेक व अज्ञानता से मुक्ति दिलाती हैं। बुद्धि और विवेक ही है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। जीवन में इसी का प्रयोग करके मनुष्य सुख, समृद्धि एवं शांति का भोग कर सकता है।
पद्मपुराणमें वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्रवस्त्रपहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्रहमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। सरस्वती का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है।
कुछ चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। कीचड में खिलने वाले कमल को कीचड स्पर्श नहीं कर पाता। यानी हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पडे, परंतु बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना इस बात की द्योतक है कि उल्लास में बुद्धि व विवेक का संबल बना रहे।
आज अभावों व कुंठाओं में कभी-कभी जिंदगी की कशमकश इस वासंती रंग को फीका करने लगती है। तो क्यों न हम वसंत से प्रेरणा लेकर जीवन को संपूर्णता से जिएं और कामना करें कि सबके जीवन में खुशियों के फूल सदा खिलते रहें। वसंत ऋतु जैसा उल्लास व सुंदरता बनी रहे, क्योंकि जो सत्य है, वही शिव है और वही सुंदर है।
Monday, February 21, 2011
Friday, February 4, 2011
कर्म में स्वार्थ नहीं
मनुष्य नाना प्रकार के हेतु (प्रयोजन) लेकर कार्य करता है, क्योंकि बिना हेतु के कार्य हो ही नहीं सकता। कुछ लोग यश चाहते हैं, और वे यश के लिए काम करते हैं। दूसरे पैसा चाहते है, और वे पैसे के लिए काम करते हैं। कुछ अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, और वे अधिकार के लिए काम करते हैं। कुछ लोग मृत्यु के बाद अपना नाम छोड जाने के इच्छुक होते हैं। चीन में प्रथा है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद ही उसे उपाधि दी जाती है। किसी ने यदि बहुत अच्छा कार्य किया, तो उसके मृत-पिता अथवा पितामह को कोई सम्माननीय उपाधि दे दी जाती है। इस्लाम धर्म के कुछ संप्रदायों के अनुयायी इस बात के लिए आजन्म काम करते रहते हैं कि मृत्यु के बाद उनकी एक बडी कब्र बने। इस प्रकार, मनुष्य को कार्य में लगाने वाले बहुत से उद्देश्य होते हैं।
प्रत्येक देश में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उससे दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो और भी उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई तथा मनुष्य-जाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हैं, क्योंकि भलाई में उनका विश्वास है और उसके प्रति प्रेम है।
देखा जाता है कि नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुधा शीघ्र फलित नहीं होता। ये चीजें तो हमें उस समय प्राप्त होती हैं, जब हम वृद्ध हो जाते हैं। असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती है और सच पूछा जाय, तो नि:स्वार्थताअधिक फलदायीहोती है, पर लोगों में इसका अभ्यास करने का धीरज नहीं रहता। यदि कोई मनुष्य पांच दिन या पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किए, बिना स्वर्ग, नरक या अन्य किसी के संबंध में सोचे, नि:स्वार्थतासे काम कर सके, तो वह एक महापुरुष बन सकता है। यह शक्ति की महत्तम अभिव्यक्ति है-इसके लिए प्रबल संयम की आवश्यकता है। अन्य सब बहिर्मुखी कर्मो की अपेक्षा इस आत्मसंयम में शक्ति का अधिक प्रकाश होता है। मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्णउद्देश्य की ओर दौडती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है, वह फिर तुम्हारे पास लौटकर तुम्हारे शक्ति विकास में सहायक नहीं होती। परंतु यदि उसका संयम किया जाए, तो उससे शक्ति की वृद्धि होती है। इस आत्मसंयम से एक महान् इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वह एक ऐसे चरित्र का निर्माण करता है, जो जगत् को अपने इशारे पर चला सकता है।
प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर ध्येयों की ओर बढने तथा उन्हें समझने का प्रबल यत्न करते रहना चाहिए। यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस आदमी का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा रहता है। यदि तुम एक श्रेष्ठ एवं भला कार्य करना चाहते हो, तो यह मत सोचो कि उसका फल क्या होगा। कर्मयोगी के लिए सतत कर्मशीलताआवश्यक है। बिना कार्य के हम एक क्षण भी नहीं रह सकते।
अब प्रश्न यह उठता है कि आराम के बारे में क्या होगा? यहां इस जीवन-संग्राम के एक ओर है कर्म, तो दूसरी ओर है शांति। सब शांत, स्थिर। यदि एक ऐसा मनुष्य, जिसे एकांतवास का अभ्यास है, संसार के चक्कर में घसीट लाया जाए, तो उसका ध्वंस हो जाएगा। जैसे समुद्र की गहराई में रहने वाली मछली पानी की सतह पर लाते ही मर जाती है। वह सतह पर पानी के उस दबाव की अभ्यस्त नहीं होती। इसी प्रकार, सांसारिक तथा सामाजिक मनुष्य शांत स्थान पर ले जाया जाय, तो क्या वह शांतिपूर्वक रह सकता है? कदापि नहीं।
आदर्श पुरुष वे हैं, जो परम शांत एवं निस्तब्धताके बीच भी तीव्र कर्म तथा प्रबल कर्मशीलताके बीच भी मरुस्थल की शांति एवं निस्तब्धताका अनुभव करते हैं। यही कर्मयोग का आदर्श है। यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया।
जो कार्य हमारे सामने आते जाएं, उन्हें हम हाथ में लेते जाएं और शनै:-शनै:अपने को दिन-प्रतिदिन नि:स्वार्थ बनाने का प्रयत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारा हेतु क्या है। ऐसा होने पर हम देख पाएंगे कि आरंभावस्थामें प्राय: हमारे सभी कार्यो का हेतु स्वार्थपूर्णरहता है, किंतु धीरे-धीरे यह स्वार्थपरायणताअध्यावसायसे नष्ट हो जाएगी, और अंत में वह समय आ जाएगा, जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित होकर कार्य करने के योग्य हो सकेंगे।
प्रत्येक देश में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उससे दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो और भी उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई तथा मनुष्य-जाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हैं, क्योंकि भलाई में उनका विश्वास है और उसके प्रति प्रेम है।
देखा जाता है कि नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुधा शीघ्र फलित नहीं होता। ये चीजें तो हमें उस समय प्राप्त होती हैं, जब हम वृद्ध हो जाते हैं। असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती है और सच पूछा जाय, तो नि:स्वार्थताअधिक फलदायीहोती है, पर लोगों में इसका अभ्यास करने का धीरज नहीं रहता। यदि कोई मनुष्य पांच दिन या पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किए, बिना स्वर्ग, नरक या अन्य किसी के संबंध में सोचे, नि:स्वार्थतासे काम कर सके, तो वह एक महापुरुष बन सकता है। यह शक्ति की महत्तम अभिव्यक्ति है-इसके लिए प्रबल संयम की आवश्यकता है। अन्य सब बहिर्मुखी कर्मो की अपेक्षा इस आत्मसंयम में शक्ति का अधिक प्रकाश होता है। मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्णउद्देश्य की ओर दौडती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है, वह फिर तुम्हारे पास लौटकर तुम्हारे शक्ति विकास में सहायक नहीं होती। परंतु यदि उसका संयम किया जाए, तो उससे शक्ति की वृद्धि होती है। इस आत्मसंयम से एक महान् इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वह एक ऐसे चरित्र का निर्माण करता है, जो जगत् को अपने इशारे पर चला सकता है।
प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर ध्येयों की ओर बढने तथा उन्हें समझने का प्रबल यत्न करते रहना चाहिए। यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस आदमी का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा रहता है। यदि तुम एक श्रेष्ठ एवं भला कार्य करना चाहते हो, तो यह मत सोचो कि उसका फल क्या होगा। कर्मयोगी के लिए सतत कर्मशीलताआवश्यक है। बिना कार्य के हम एक क्षण भी नहीं रह सकते।
अब प्रश्न यह उठता है कि आराम के बारे में क्या होगा? यहां इस जीवन-संग्राम के एक ओर है कर्म, तो दूसरी ओर है शांति। सब शांत, स्थिर। यदि एक ऐसा मनुष्य, जिसे एकांतवास का अभ्यास है, संसार के चक्कर में घसीट लाया जाए, तो उसका ध्वंस हो जाएगा। जैसे समुद्र की गहराई में रहने वाली मछली पानी की सतह पर लाते ही मर जाती है। वह सतह पर पानी के उस दबाव की अभ्यस्त नहीं होती। इसी प्रकार, सांसारिक तथा सामाजिक मनुष्य शांत स्थान पर ले जाया जाय, तो क्या वह शांतिपूर्वक रह सकता है? कदापि नहीं।
आदर्श पुरुष वे हैं, जो परम शांत एवं निस्तब्धताके बीच भी तीव्र कर्म तथा प्रबल कर्मशीलताके बीच भी मरुस्थल की शांति एवं निस्तब्धताका अनुभव करते हैं। यही कर्मयोग का आदर्श है। यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया।
जो कार्य हमारे सामने आते जाएं, उन्हें हम हाथ में लेते जाएं और शनै:-शनै:अपने को दिन-प्रतिदिन नि:स्वार्थ बनाने का प्रयत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारा हेतु क्या है। ऐसा होने पर हम देख पाएंगे कि आरंभावस्थामें प्राय: हमारे सभी कार्यो का हेतु स्वार्थपूर्णरहता है, किंतु धीरे-धीरे यह स्वार्थपरायणताअध्यावसायसे नष्ट हो जाएगी, और अंत में वह समय आ जाएगा, जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित होकर कार्य करने के योग्य हो सकेंगे।
आओ वासंती हो जाए
वसंत पंचमी उमंग, उल्लास, उत्साह, विद्या, बुद्धि और ज्ञान के समन्वय का पर्व है। मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनसे हम विवेक व बुद्धि प्रखर होने, वाणी मधुर व मुखर होने और ज्ञान साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की कामना करते हैं। पुराणों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन ब्रह्माजी के मुख से मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था और जड-चेतन को वाणी मिली थी। इसीलिए वसंत पंचमी को विद्या जयंती भी कहा जाता है और इस दिन सरस्वती पूजा का विधान है।
वसंत पंचमी पर हम ऋतुओं के राजा वसंत का स्वागत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में वसंत ऋतु को अपनी विभूति बताया है। उन्होंने कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूं।
मनुष्य ही नहीं, जड और चेतन प्रकृति भी इस महोत्सव के लिए श्रृंगार करने लगती है। सबके मन और देह में नई शक्ति व ऊर्जा की अनुभूति होती है। तरह-तरह के फूल खिलने लगते हैं। हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। हरी धानी साडी, पीली-पीली फूली सरसों की चुनरिया, रंग बिरंगे फूलों का श्रृंगार, कोयल की कुहू-कुहू और भंवरों का गुंजार संदेश देते हैं कि ऋतुराज वसंत आ गया है।
संतकवितुलसीदास ने रामचरित मानस में और महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। मान्यता है कि कवि कालिदास पहले अज्ञानी व महामूर्खथे, लेकिन मां सरस्वती से ज्ञान का वरदान पाकर महाकवि कालिदास हो गए थे। मां सरस्वती हमें अविवेक व अज्ञानता से मुक्ति दिलाती हैं। बुद्धि और विवेक ही है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। जीवन में इसी का प्रयोग करके मनुष्य सुख, समृद्धि एवं शांति का भोग कर सकता है।
पद्मपुराणमें वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्रवस्त्रपहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्रहमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। सरस्वती का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है।
कुछ चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। कीचड में खिलने वाले कमल को कीचड स्पर्श नहीं कर पाता। यानी हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पडे, परंतु बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना इस बात की द्योतक है कि उल्लास में बुद्धि व विवेक का संबल बना रहे।
आज अभावों व कुंठाओं में कभी-कभी जिंदगी की कशमकश इस वासंती रंग को फीका करने लगती है। तो क्यों न हम वसंत से प्रेरणा लेकर जीवन को संपूर्णता से जिएं और कामना करें कि सबके जीवन में खुशियों के फूल सदा खिलते रहें। वसंत ऋतु जैसा उल्लास व सुंदरता बनी रहे, क्योंकि जो सत्य है, वही शिव है और वही सुंदर है।
वसंत पंचमी पर हम ऋतुओं के राजा वसंत का स्वागत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में वसंत ऋतु को अपनी विभूति बताया है। उन्होंने कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूं।
मनुष्य ही नहीं, जड और चेतन प्रकृति भी इस महोत्सव के लिए श्रृंगार करने लगती है। सबके मन और देह में नई शक्ति व ऊर्जा की अनुभूति होती है। तरह-तरह के फूल खिलने लगते हैं। हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। हरी धानी साडी, पीली-पीली फूली सरसों की चुनरिया, रंग बिरंगे फूलों का श्रृंगार, कोयल की कुहू-कुहू और भंवरों का गुंजार संदेश देते हैं कि ऋतुराज वसंत आ गया है।
संतकवितुलसीदास ने रामचरित मानस में और महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। मान्यता है कि कवि कालिदास पहले अज्ञानी व महामूर्खथे, लेकिन मां सरस्वती से ज्ञान का वरदान पाकर महाकवि कालिदास हो गए थे। मां सरस्वती हमें अविवेक व अज्ञानता से मुक्ति दिलाती हैं। बुद्धि और विवेक ही है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। जीवन में इसी का प्रयोग करके मनुष्य सुख, समृद्धि एवं शांति का भोग कर सकता है।
पद्मपुराणमें वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्रवस्त्रपहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्रहमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। सरस्वती का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है।
कुछ चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। कीचड में खिलने वाले कमल को कीचड स्पर्श नहीं कर पाता। यानी हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पडे, परंतु बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना इस बात की द्योतक है कि उल्लास में बुद्धि व विवेक का संबल बना रहे।
आज अभावों व कुंठाओं में कभी-कभी जिंदगी की कशमकश इस वासंती रंग को फीका करने लगती है। तो क्यों न हम वसंत से प्रेरणा लेकर जीवन को संपूर्णता से जिएं और कामना करें कि सबके जीवन में खुशियों के फूल सदा खिलते रहें। वसंत ऋतु जैसा उल्लास व सुंदरता बनी रहे, क्योंकि जो सत्य है, वही शिव है और वही सुंदर है।
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