विज्ञान की बिगबैंगथ्योरी के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक महा विस्फोट से हुई थी। इस सिद्धंातके बरक्सहम शिव तत्व को रख सकते हैं, जो ऊर्जा के रूप में हमारे पूरे परिवेश में व्याप्त है। सृष्टि के जन्म से अंत तक का परिवेश शिव तत्व है, जिसमें डूबने के लिए हमें जागरूक होना होगा अपने परिवेश और समाज के प्रति.। आर्ट ऑफ लिविंग के प्रणेताश्री श्री रविशंकर का नजरिया:
शिव वहां होते हैं, जहां मन का विलय होता है। ईश्वर को पाने के लिए लंबी तीर्थ यात्रा पर जाने की आवश्यकता नहीं। हम जहां पर हैं, वहां अगर ईश्वर नहीं मिलता, तो अन्य किसी भी स्थान पर उसे पाना असंभव है। जिस क्षण हम स्वयं में स्थित, केंद्रित हो जाते हैं, तो पाते हैं कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। शोषितों में, वंचितों में, पेड-पौधों, जानवरों में. सभी जगह। इसी को ध्यान कहते हैं।
शिव के कई नामों में से एक है विरुपक्ष्। अर्थात जो निराकार है, फिर भी सब देखता है। हमारे चारों ओर हवा है और हम उसे महसूस भी करते हैं, लेकिन अगर हवा हमें महसूस करने लगे तो क्या होगा? आकाश हमारे चारों ओर है, हम उसे पहचानते हैं, लेकिन कैसा होगा अगर वह हमें पहचानने लगे और हमारी उपस्थिति को महसूस करे? ऐसा होता है। केवल हमें इस बात का पता नहीं चलता। वैज्ञानिकों को यह मालूम है और वे इसे सापेक्षताका सिद्धंातकहते हैं। जो देखता है और जो दिखता है; दोनों दिखने पर प्रभावित होते हैं। ईश्वर हमारे चारों ओर है और हमें देख रहा है। वह हमारा पूरा परिवेश है। वह दृष्टा, दृश्य और दृष्टितहै। यह निराकार दैवत्वशिव है और इस शिव तत्व का अनुभव करना शिवरात्रि है।
साधारणतया उत्सव में जागरूकता खो जाती है, लेकिन उत्सव में जागरूकता के साथ गहरा विश्राम शिवरात्रि है। जब हम किसी समस्या का सामना करते हैं, तब सचेत व जागृत हो जाते हैं। जब सब कुछ ठीक होता है, तब हम विश्राम में रहते हैं। अद्यंतहिनम्अर्थात जिसका न तो आदि है न अंत, सर्वदावही शिव है। सबका निर्दोष शासक, जो निरंतर सर्वत्र उपस्थित है। हमें लगता है शिव गले में सर्प लिए कहीं बैठे हुए हैं, लेकिन शिव वह हैं, जहां से सब कुछ जन्मा है, जो इसी क्षण सब कुछ घेरे हुए है, जिनमें सारी सृष्टि विलीन हो जाती है। इस सृष्टि में जो भी रूप देखते हैं, सब उसी का रूप है। वह सारी सृष्टि में व्याप्त है। न वह कभी जन्मा है न ही उनका कोई अंत है। वह अनादि है।
शिव के पांच रूप हैं- जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश। इन पांचों तत्वों की समझ तत्व ज्ञान है। शिव तत्व में हम उनके पांचों रूपों का आदर करते हैं। हम उदार हृदय से शुभेच्छा करें कि संसार में कोई भी व्यक्ति दुखी न रहे। सर्वे जन: सुखिनोभवंतु.। पृथ्वी के सभी तत्वों में देवत्व है। वृक्षों, पर्वतों, नदियों और लोगों का सम्मान किए बिना कोई पूजा संपूर्ण नहीं होती। सब के सम्मान को दक्षिणा कहते हैं। दक्षिणा का अर्थ है कुछ देना। जब हम किसी भी विकृति के बिना, कुशलता से समाज में रहते हैं, क्रोध, चिंता, दुख जैसी सब नकारात्मक मनोवृत्तियोंका नाश होता है। हम अपने तनाव, चिताएं और दुख दक्षिणा के रूप में प्रकृति और परिवेश को दे दें और अपना समय दुखियों-पीडितोंकी सेवा को समर्पित कर दें। यही शिव की सच्ची उपासना सिद्ध होगी।
बेजामिनफ्रैंकलिनने अपनी सफलता का कारण बताते हुए कहा था, मैंने तय किया है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं बोलूंगा और जितना भी बोलूंगा, वह उस व्यक्ति की अच्छाइयों के बारे में ही होगा। वाणी के इसी संयम को अध्यात्म में वाचिक तप कहा जाता है अर्थात अपनी वाणी पर कठोर वचनों को न आने देने का प्रयास। श्रीमद्भगवद्गीतामें तीन प्रकार के तप गिनाए गए हैं- शारीरिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप।
वाचिक तप के बारे में उल्लेख है, उद्वेग उत्पन्न न करने वाला वाक्य बोलना, प्रिय, हितकारकऔर सत्य वचन बोलना और स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है।
हमारे जीवन में वाणी के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसको वश में करने से व्यक्ति बहुत ऊंचा उठता है। इसके विपरीत अनियंत्रित वाणी वाले व्यक्ति को अमूमन जीवन में सफलता नहीं मिल पाती। जब व्यक्ति अपनी वाणी से किसी को ठेस नहीं लगाता और सदैव मीठा बोलता है, उसके इष्ट-मित्रों का दायरा अधिक होता है और लोगों के सहयोग व समर्थन के कारण वह अधिक शक्तिशाली बनकर उभरता है। इसके विपरीत कटु वचन बोलने वाला जीवन में अकेला पडता चला जाता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के लिए वाचिक तप का अत्यंत महत्व है।
गीता में कर्म के तीन साधन बताए गए हैं, जिनमें एक साधन वाणी भी है। ऋग्वेद के एक मंत्र का आशय है कि जिस प्रकार छलनी में छानकर सत्तू को साफ करते हैं, वैसे ही जो लोग मन, बुद्धि अथवा ज्ञान की छलनी से छान कर वाणी का प्रयोग करते हैं, वे हित की बातों को समझते हैं अथवा शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। जो बुद्धि से शुद्ध कर के वचन बोलते हैं, वे अपने हित को भी समझते हैं और जिस को बात बता रहे हैं, उसके हित को भी समझते हैं। सोच-समझकर शब्दों का उच्चारण या बोलने में ही, कहने और सुनने वाले का हित-भाव छिपा हुआ है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य निहित रहते हैं।
मधुरता से कही गई बात हर प्रकार से कल्याणकारी होती है। परंतु वही बात कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बडे अनर्थ का कारण बन जाती है। आज के समय में, जब कठोर वाणी के कारण रोड रेजजैसे अनेक अपराध बढ रहे हैं, ऐसे समय में वाणी का संयम बहुत ही जरूरी है। आज के आपाधापी के समय में यदि हम सदा मधुर, सार्थक और चमत्कारपूर्ण वचन नहीं बोल सकते, तो कम से कम वाणी में संयम का हमारा प्रयास अवश्य होना चाहिए।
महात्मा विदुर ने कहा है कि कटु वचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्मस्थलोंको घायल कर देते हैं, जिसके कारण घायल व्यक्ति दिन-रात दुखी रहता है। उनका परामर्श है कि ऐसे कटु वाग्बाणोंका त्याग करने में अपना और औरों का भला होता है। बाणों से हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाडे से काटा गया वृक्ष फिर उग जाता है, लेकिन वाणी से कटु वचन कहकर किए गए घाव कभी नहीं भरते। इसलिए जो मनुष्य कठोर वचन बोलता है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, दूसरों के बारे में नहीं। स्वार्थी नहीं, बल्कि परमार्थी बनने के लिए आपको कठोर वचनों को छोडना ही पडेगा।
मनुस्मृति में मनुष्य के जीवन के लिए जरूरी दस बातें बताई गई हैं, जिनमें पहली जो चार बातें हैं, वे बोलने के संबंध में ही हैं। जिनमें कहा गया है कि हम कठोर न बोलें। कोई भी बात मधुरता से, मृदुलतासे और अपनी वाणी में अपने हृदय का रस घोल कर कहनी चाहिए। कठोर वाणी का तो पूरी तरह परित्याग करना चाहिए। वह मनुष्यों में सबसे अधिक अभागा है, जो कठोर शब्दों द्वारा लोगों के मर्मस्थलोंको विदीर्ण करता है।
हमारे मनीषियोंने बार-बार कहा है कि जो व्यक्ति दूसरों के प्रति कडे शब्दों का व्यवहार करता है और पर-निंदा करता है, वह ऐसा पापाचरणकरता हुआ शीघ्र ही विपत्तिायोंमें फंस जाता है। इसलिए न तो किसी को अपशब्द कहे, न दूसरों का अपमान करें और न दुष्ट लोगों की संगति करें। रूखी, कठोर व दूसरों को पीडा पहुंचाने वाली वाणी का त्याग होना चाहिए, क्योंकि मनुष्य की वृद्धि और विनाश उसकी जिज्जाके अधीन होते हैं। मनुष्य का मान-अपमान, उसका आदर-अनादर, उसकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा सब उसकी जिज्जाके वशीभूत होते हैं। वाक-कुशलता बुद्धिमान का एक प्रशंसनीय लक्षण होता है। विदुर ने लक्ष्मी व यश दिलाने वाले सात लक्षण बताए हैं, जिनमें एक मधुर वाणी भी है। जिस मनुष्य में यह गुण होता है, वह अपने विरोधियों और शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है। कटु वचन नासूर की तरह प्रेम को खा जाते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, रोष न रसना खोलिए, बरुखोलियतलवार.सुनत मधुर परिनामहित, बोलियवचन विचार.। अर्थात भले ही तुम तलवार खोलो, परंतु रोष में आकर अपनी जिज्जामत खोलो। जो बात सुनने में मधुर हो और परिणाम में हितकारी हो, ऐसे ही वचन विचारपूर्वक कहने चाहिए। वाणी का उचित प्रयोग ही सुखकारी होता है। जिन लोगों के मुख पर प्रसन्नता होगी, हृदय में दया होगी, वाणी में मधुरता होगी, कत्र्ताव्यमें परोपकार होगा, वे सभी के लिए वंदनीय होते हैं।
मीठे वचनों का सुख लाभकारी है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारा जीवन ज्ञान, निर्मलता, शक्ति व शुभ वाणी से अलंकृत हो। हम जिज्जापर संयम साध लें।
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