Monday, June 15, 2009

सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है मानव

शिव शक्ति मंदिर में पण्डित भोलानाथ ने प्रवचनों में कहा कि मनुष्य जीवन इस सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है। अत:मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को सुधारने के लिए अच्छे कर्म करने के साथ-साथ रामनाम का जाप करे।

राम नाम का जाप करने से जहां मनुष्य का मन शुद्ध होता है। वहीं मनुष्य इससे परोपकारी भी हो जाता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं को त्याग कर दूसरों के भले ही सोचे और अपने मन को स्थिर करे। इस प्रकार सत्कर्म करने का फल उसे अवश्य मिलेगा और उसका जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा।

उन्होंने कहा कि मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति में अनेक बाधाएं आना स्वाभाविक है, परन्तु मनुष्य अध्यात्म के बल पर सभी बाधाओं को आसानी से पार कर लेता हैं। अध्यात्म की शक्ति मनुष्य को प्रेरणा देती है कि वह कर्म फल की प्राप्ति के लिए आत्म समर्पण कर दे। साधना करने के परिणाम काफी सुखद होते हैं। हालांकि प्रारंभ में साधना करते हुए मनुष्य को कुछ परेशानियों का सामना करना पडता है परंतु आखिरकार इसके परिणाम काफी सुखद होते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म जीवन का अभिन्न अंग है और धर्म के सेवन से ही प्रकृति में परिवर्तन आता है और मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक ऊर्ज का आविर्भाव होता है। ईश्वर की उपासना समर्पण भाव से की जानी चाहिए और मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अंदर के रोग-द्वेष को अपने विवेक की कैंची से काट डाले तभी कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए मानव को इंद्रियों पर काबू पाना सीखना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों का संचालन करना मानव को सिखाया है। इंद्रियों का संचालन ही हृदय का गोकुल है। उन्होंने कहा कि भोजन थाली में होगा तो पेट में भी होगा और अगर थाली ही खाली हो तो पेट भरने की आश छोड देनी चाहिए। कुछ लोग मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन इस पूजा से ही अंदर की पूजा तक पहुंचा जा सकता है।

उन्होंने कहा कि अंदर की पूजा को जानने से पहले यानी भगवान को जानने के लिए अंदर की पूजा से पहले बाहर की पूजा बहुत जरूरी है। आंखें जो बाहर देखती हैं उसी का ध्यान अंदर करती हैं। इसी प्रकार से कान बाहर से सुनकर उसका अंदर चिंतन करते हैं इसलिए पूजा की जोत की ज्वाला शरीर के बाहर तक ही नहीं बल्कि अंदर तक भी जानी बहुत जरूरी है।

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।

यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।

नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

Friday, June 5, 2009

विवाह

प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।

हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।