Wednesday, April 20, 2011

शंकर-सुवन केसरी नंदन

हनुमदुपासना कल्पद्रुमनामक प्राचीन ग्रंथ में लिखा है- चैत्र मासिसितेपक्षेपौर्णमास्यांकुजेऽहनि।मौलीमेखलयायुक्तकौपीन परिधारक।अर्थात चैत्र मास के शुक्लपक्ष में मंगलवार और पूर्णिमा के संयोग की बेला में मूंज की मेखला से युक्त लंगोटी पहने तथा यज्ञोपवीत धारण किए हुए हनुमानजी का आविर्भाव हुआ।

स्कंदपुराणके वैष्णवखंडके 40वेंअध्याय के 43वेंश्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि मेष राशि में सूर्य के उच्च स्थिति में होने पर चित्रा नक्षत्र से संयुक्त चैत्रीपूर्णिमा के दिन हनुमानजी का अवतरण हुआ। वहीं आनंद रामायण में भी चैत्रीपूर्णिमा को ही हनुमानजी की जयंती-तिथि माना गया है।

हालांकि अयोध्या की हनुमानगढीतथा देश के कुछ हिस्सों में कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भी हनुमान जयंती मनाई जाती है। इसके पीछे वायुपुराण का वह संदर्भ है, जिसमें कहा गया है कि अमावस्या के दिन समाप्त होने वाले आश्रि्वन मास की चतुर्दशी तिथि, मंगलवार और स्वाति नक्षत्र के संयोग में मेष लग्न के समय भगवान शंकर हनुमानजी के रूप में उत्पन्न हुए। लेकिन ज्यादातर स्थानों में चैत्रीपूर्णिमा के दिन ही हनुमान-जयंती का उत्सव मनाया जाता है।

ग्रंथों में हनुमानजी के रुद्रावतारअर्थात् भगवान शंकर का अंश होने से संबंधित अनेक कथाएं मिलती है। एक कथा के अनुसार, शिवजी ने श्रीरामचंद्र जी की स्तुति की और यह वर मांगा कि प्रभो!मैं दास्यभावसे आपकी सेवा करना चाहता हूं. श्रीरामचंद्रजीने शिवजी के प्रेम से वशीभूत होकर तथास्तु कहा। कालांतर में शिवजी हनुमान के रूप में अवतरित होकर श्रीरामचंद्र जी के प्रमुख सेवक बनें।

विनयपत्रिकाके पदों में गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमानजी को रुद्रावतार,महादेव, वामदेव,कालाग्नि,वानराकारविग्रहपुरारी,मंमथ-मथनआदि शिव-सूचक नामों से संबोधित किया है।

दोहावलीमें तुलसी इस विषय में कहते है- जेहिसरीररति राम सोंसोइआदरहिंसुजान/ रुद्रदेहतजिनेहबसवानर भेहनुमान/ जानिराम-सेवा सरस समुझिकरबअनुमान/पुरुषा तेसेवक भएहर तेभेहनुमान।

हनुमान चालीसा में भी तुलसीदास ने हनुमानजी को संकर सुवनकहकर रुद्रावतारघोषित किया।

एक तरफ भगवान शंकर रामचंद्र जी को अपना आराध्य मानते हैं, वहीं दूसरी ओर श्रीराम रामेश्वर के रूप में उनका पूजन करते है। शिवजी पर चढने वाले बिल्व पत्रों पर राम-नाम लिखने का तात्पर्य भी हरि-हर की एकरूपता है। तत्वतये दोनों एक ही है। बस नाम, स्वरूप और गुण का भेद है। हनुमानजी का शंकर-सुवन होकर रामदूत बनना इसका प्रमाण है।

Friday, April 8, 2011

राम ने की थी शक्ति पूजा

चित्रकूट में स्फटिक शिला वर्षो से लोगों की आस्था का केंद्र बनी हुई है। मान्यता है कि इस पर बैठकर ही श्रीराम ने रावण से युद्ध करने से पहले शक्ति पूजा की थी.

एक बार चुनिकुसुम सुहाए,

मधुकर भूषण राम बनाये।

सीतहिंपहिरायेप्रभु सादर,

बैठे फटिक शिला पर सुंदर।

तुलसी दास जी ने ये पंक्तियां श्रीरामचरितमानस में लिखी थीं। ये पक्तियांवास्तव में चित्रकूट में परांबाजगदीश्वरीजगदाराध्याश्रीसीतारूपिणीमहामाया की भाव-भक्ति भरी उस पूजा की ओर इंगित करती हैं, जिसके बारे में मान्यता है कि अखिल बह्मंाडनायक श्रीराम जी ने स्फटिक शिला पर बैठकर की थी। युगों से चित्रकूट आने वाली लाखों श्रद्धालु मंदाकिनी के तीर पर विशालकाय अर्जुन के वृक्ष की छाया से आच्छादित इस विशालकाय चित्रण पर अपना शीश नवातेहैं।

आदि कवि वाल्मीकि हों, तुलसी हों या फिर कविवरनिराला, सभी ने चित्रकूट में राम की शक्ति पूजा को व्याख्यायितकिया है। ग्रंथों में उल्लेख है कि श्रीराम ने अपने जीवन काल में दो विशेष आराधनाएंकी थीं, जिनके विशेष आराधना स्थल चित्रकूट और रामेश्वरमरहे।

तपस्थलीमाने जाने वाले चित्रकूट के प्रमुख संत स्वामी सनकादिककहते हैं, वास्तव में चित्रकूट सुखविलासहै। यहां श्रीराम अपने पूर्णतमपरमात्मा के स्वरूप में विद्यमान हैं। चित्रकूट में उन्होंने मां भगवती सीता के स्वरूप में मां भगवती की आराधना की है। महाकवि कालिदासव निराला जी के साथ ही देवी भागवत जैसे ग्रंथ भी इस बात की ताकीद करते हैं। वे कविवरनिराला रचित अनामिका को अपने सुमधुर कंठ से गाते हुए कहते हैं - मात दशभुजाविश्व ज्योति मैं हूं, आश्रित/ हो विद्ध शक्ति में है खल महिषासुर मर्दित / जन रंजन चरण कमल तल / धन्य सिंह गर्जित/यह मेरा प्रतीक मात समझा इंगित/ मै, सिंह इसी भाव से करूंगा अभिनंदन.।

सनकादिककहते है कि चित्रकूट वह तीर्थ है, जहां प्रभु श्रीराम ने दशानन के संहार के लिए साढे ग्यारह साल मां भगवती की तपस्या की थी।