Thursday, May 10, 2012

मात्र देह नहीं हम


जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि हम देह से अलग हैं, तब तक जालिम लोग हम पर जुल्म करते रहेंगे। हमें गुलाम बनाते रहेंगे। हमें बेहाल कर डालेंगे। भय के कारण ही जुल्म होता है। एक कथा है कि एक राक्षस ने एक आदमी को पकड लिया। वह उससे अपना सारा काम लेता रहता था। जब कभी वह काम न करता, तो राक्षस कहता- तुझे खा जाऊंगा, चट कर जाऊंगा। शुरू में तो मनुष्य डरता रहा, परंतु जब वह धमकी असहृनीय हो गई, तो उसने कहा- ले, खाना है, तो खा ही डाल। पर राक्षस को उसे खाना तो था नहीं, उसे तो एक गुलाम चाहिए था, जो उसके सारे काम निबटा दे। खा जाने पर उसका काम कौन करता? वह तो उसे सिर्फ खाने की धमकी दिया करता था। परंतु ज्यों ही उसे यह जवाब मिला कि खा जा, उस समय से उसका जुल्म बंद हो गया।
जालिम लोग यह जानते हैं कि लोग देह से चिपके रहने वाले हैं। इनकी देह को कष्ट पहुंचा, तो ये गुलाम बन जाएंगे। परंतु जहां देह की आसक्ति छोड दी कि तुरंत सम्राट बन जाएंगे। सारी साम‌र्थ्य आपके हाथों में आ जाएगी। फिर आप पर किसी का हुक्म नहीं चलेगा। जुल्म करने का आधार ही टूट जाएगा। उसकी बुनियाद ही इस भावना पर है कि मैं देह हूं। वे समझते हैं कि इनकी देह को सताया कि ये वश में आ जाएंगे। इसीलिए वे धमकी की भाषा बोलते हैं।
मैं देह हूं इसी भावना के कारण ही दूसरों को हम पर जुल्म करने की इच्छा होती है। परंतु इंग्लैंड के शहीद क्रेन्मर ने कहा था- मुझे जलाते हो? जला डालो, लेकिन हमें कौन जला सकता है, हम तो धर्म की ऐसी ज्योति जला रहे हैं कि उसे कोई बुझा नहीं सकता। शरीर रूपी इस मोमबत्ती को, इस चरबी को जलाकर सत-तत्वों की ज्योति जलाए रखना ही तो हमारा काम है। देह मिट जाएगी, वह तो मिटने वाली ही है।
सुकरात को विष देकर मारने की सजा दी गई। उन्होंने कहा- मैं अब बूढा हो गया हूं। चार दिन के बाद देह छूटने वाली ही थी। जो मरने वाला था, उसे मारकर आप लोग कौन-सी बहादुरी कर रहे हैं? जिस दिन सुकरात को जहर दिया जाना था, उससे पहली रात वे शिष्यों को आत्मा के अमरत्व की शिक्षा दे रहे थे।
सारांश यह है कि जब तक देह की आसक्ति है, तब तक भय है। तब तक रक्षा नहीं हो सकती। तब तक सतत डर लगा रहेगा। यह डर बना रहेगा कि कहीं नींद में सांप आकर न काट खाए। चोर आकर चोरी न कर ले। लोग सिरहाने डंडा रखकर सोते हैं। क्यों? कहते हैं- कहीं चोर आ जाए तो? जरा सोचो, कहीं चोर वही डंडा उठाकर उसी के सिर पर मार दे तो? चोर डंडा लाना भूल भी जाए, तो वे उसके लिए तैयार रखते हैं। नींद में आखिर रक्षा कौन करेगा?
मुझे देह के लिए भय नहीं होता, क्योंकि मैं किसी न किसी शक्ति पर विश्वास करके सोता हूं। जिस शक्ति पर भरोसा रखकर भेडिया, बाघ, सिंह आदि जीव सोते हैं, उसी के भरोसे मैं भी सोता हूं। बाघ को भी तो नींद आती है, जो सारी दुनिया से बैर होने के कारण हर घडी पीछे देखता रहता है। यदि उस शक्ति पर विश्वास न होता, तो कुछ बाघ सोते और कुछ जागकर पहरा देते। जिस शक्ति पर विश्वास रखकर क्रूर भेडिया, बाघ, सिंह आदि जीव सोते हैं, उसी विश्वव्यापक शक्ति की गोद में मैं भी सो रहा हूं। मां की गोद में बच्चा निश्चिंत सोता है। वह मानो उस समय दुनिया का बादशाह होता है। हमें चाहिए कि हम भी उसी विश्वंभर माता की गोद में इसी तरह प्रेम, विश्वास और ज्ञानपूर्वक सोने का अभ्यास करें।
जिस शक्ति के आधार पर हमारा यह सारा जीवन चल रहा है, उसका हमें अधिकाधिक परिचय कर लेना चाहिए। उस शक्ति की उत्तरोत्तर प्रतीति होनी चाहिए। इस शक्ति में हमें जितना विश्वास पैदा होगा, उतनी ही अधिक हमारी रक्षा हो सकेगी। जैसे-जैसे हमें इस शक्ति में विश्वास होता जाएगा, वैसे-वैसे हमारा विकास होता जाएगा।
हमें देह की नहीं,आत्मा (आत्म-तत्व) की रक्षा करनी है। जब तक देह स्थित आत्मा का विचार नहींआता, तब तक मनुष्य साधारण क्रियाओं में ही तल्लीन रहता है। भूख लगी तो खा लिया, प्यास लगी तो पानी पी लिया, नींद आई तो सो गए। इससे अधिक वह कुछ नहींजानता। इन्हीं बातों के लिए वह लडेगा, इन्हींकी प्राप्ति का लोभ मन में रखेगा। इन दैहिक क्रियाओं में ही मगन रहेगा। विकास का आरंभ तो इसके बाद होता है। इस समय आत्मा सिर्फ देखती रहती है। जिस तरह मां कुएं की ओर घुटनों चलते हुए बच्चे के पीछे सतर्क खडी देखती रहती है, उसी प्रकार आत्मा हम पर निगाह रखती है। इस स्थिति को उपद्रष्टा (साक्षी रूप में सब देखने वाला) कहा जाता है।
व्यक्ति अपने को देह रूप समझकर क्रिया-व्यवहार करता है, लेकिन आगे चलकर वह जागता है। उसे भान होता है कि अरे, मैं तो पशु की तरह जीवन बिता रहा हूं। व्यक्ति जब इस तरह सोचता है, तब उसकी नैतिक भूमिका की शुरुआत होती है। तब पग-पग पर वह उचित-अनुचित का विचार करने लगता है। विवेक से काम लेने लगता है। उसकी विश्लेषण बुद्धि जाग्रत होती है। स्वच्छंदता की जगह संयम आता है। जब व्यक्ति इस नैतिक भूमिका में आता है, तब आत्मा केवल चुप बैठकर नहीं देखती, वह भीतर से अनुमोदन करती है। शाबाश- जैसी धन्यता की आवाज अंदर से आती है। तब आत्मा केवल उपद्रष्टा न रहकर अनुमंता बन जाती है। कोई भूखा द्वार पर आ जाए, आप अपनी परोसी थाली उसे दे दें और फिर रात को अपनी इस सत्कृति को याद करें, तो देखिए मन को कितना आनंद मिलता है। भीतर से आत्मा की हल्की सी आवाज आती है- बहुत अच्छा किया। हृदयस्थ परमात्मा हमें प्रोत्साहन और प्रेरणा देते हैं। तब व्यक्ति भोगमय जीवन छोडकर नैतिक जीवन की भूमिका में आ खडा होता है।
इसके बाद की भूमिका है नैतिक जीवन में कर्तव्य करते हुए अपने मन के सभी मैलों को धोने का यत्न करना। परंतु जब मनुष्य ऐसा प्रयत्न करते-करते थकने लगता है, तब वह प्रार्थना करता है- हे भगवन, मेरे प्रयत्नों की, मेरी शक्ति की पराकाष्ठा हो गई है। अत: मुझे अधिक शक्ति दे..। जब तक मनुष्य को यह अनुभव नहीं होता कि अपने सभी प्रयत्नों के बावजूद वह अकेला ही पर्याप्त नहीं है, तब तक प्रार्थना का मर्म उसकी समझ में नहीं आता। जब अपनी सारी शक्ति लगाने पर भी वह पर्याप्त जान नहीं पडती, तभी आर्तभाव से द्रौपदी की तरह परमात्मा को पुकारना चाहिए। तब परमात्मा शाब्दिक शाबाशी न देते हुए सहायता के लिए दौड आता है।