Friday, August 12, 2011

सोने का हिंडोला और श्रद्धा की डोर

बादलों की लुका-छिपी के साथ कडी धूप व उमस भरी गर्मी भी लाखों श्रद्धालुओं की आस्था को डिगा नहीं पायी। उन्होंने स्वर्ण-रजत निर्मित हिंडोले में विराजमान बांके बिहारी को श्रद्धा व विश्वास की डोर से झुलाया। मंदिर के पट खुलते ही वातावरण प्रभु की जय-जयकार से गूंज उठा।

नयनाभिराम दर्शनों की अभिलाषा लेकर वृंदावन आये भक्तों का हृदय पट खुलते ही आनंद के सागर में हिलोरेंमारने लगा। देशी-विदेशी पुष्पों की सुगंध आत्मविभोर करती रही। श्रद्धालुओं दबाव दर्शन खुलने के साथ से पट बंद होने तक बराबर बना रहा। यूं पहले से कम भीड रही, परंतु पांच लाख श्रद्धालुओं के आने का अनुमान लगाया जा रहा है। दुसायतस्थित राधासनेहबिहारी मंदिर में ठाकुर जी स्वर्ण-रजत हिंडोले में विराजे। राधा दामोदर मंदिर, राधाबल्लभमंदिर, राधारमणमंदिर, राधाबिहारी,लालाबाबूमंदिर समेत अनेक देवालयों में हजारों श्रद्धालु झूलनोत्सवके दर्शनार्थ उमडे। अनेक समाजसेवी संस्थाओं ने श्रद्धालुओं की सुविधार्थ शीतल जल की प्याऊ लगायीं।

श्री वृन्दावन विकास समिति ने बिहारी जी पुलिस चौकी पर खोया-पाया शिविर लगाया। बसेरा गु्रप ने अटल्लाचुंगी पर श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरित किया। बसेरा गु्रप चेयरमैन रामकिशन अग्रवाल ने वितरण शिविर का आरंभ किया।

करहआश्रम में तीज पर ठा.सीताराम महाराज का झूलन उत्सव महंत वैष्णव दास के सान्निध्य में मना। शुभारम्भ महंत धर्मदास ने दीप प्रज्ज्वलन कर किया। इस अवसर पर सच्चिदानंद दास, राधिका दास, बिहारीलाल वशिष्ठ, संतदासउपस्थित थे। संचालन प्रबंधक भगत ने किया।

ठाकुर जी ने किया सुखसेजपर विश्राम

बांकेबिहारीमहाराज हिंडोले में दर्शन देने के उपरांत रात्रि विश्राम, वर्ष में एक दिन ही सजने वाली सुख सेज पर किया। जहां पान का बीडा, रजत कलश में जल, रजत कंघी, आदमकद रजत आईनेएवं लड्डू आदि रखे जाते हैं।

Sunday, June 12, 2011

चलो शिव-शंभू के धाम

कैलास-मानसरोवर यात्रा आज से दिल्ली से शुरू हो रही है। कैलास पर्वत को ही भगवान शिव का धाम माना जाता है। वहां तक पहुंचने की इस यात्रा में होता है आस्था, आध्यात्मिकता और रोमांच का समागम..

कैलास मानसरोवर यात्रा में हुई अनुभूति का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। कैलाश पर्वत की परिक्रमा के दौरान मन पर्वत की नैसर्गिकताऔर दिव्यता से जुड जाता है। श्रद्धापूरितमन जैसा स्मरण करता है, शिवमययह पर्वत उसे वैसा ही रूप दिखा देता है।- पिछले वर्ष 2010में कैलास-मानसरोवर की यात्रा पर गए महंत केशव गिरि इस यात्रा से अभिभूत होकर अपनी अनुभूति इस प्रकार व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं, यह यात्रा बेशक लंबी और काफी कठिन मार्गो से होकर गुजरती है, लेकिन यह मन को आनंदित करने वाली होती है। जून से सितंबर तक चलने वाली इस यात्रा में सैकडों यात्री तिब्बत पहुंचकर आराध्य महादेव शिव के धाम का दर्शन करते हैं। कैलास-मानसरोवर यात्रा मात्र आस्था ही नहीं, बल्कि यात्रा के रोमांच के लिए भी प्रसिद्ध है। दो देशों द्वारा संचालित होने वाली इस यात्रा में देश के विभिन्न प्रांतों से लोग एक-साथ इस यात्रा पर जाते हैं, इसलिए उनके बीच भाईचारा भी बढता है। मान्यता है कि कैलास-मानसरोवर शिव का धाम है।

विचारक बीडीकसनियालकहते हैं कि ध्यान और तप के देवता शिव हैं। शिव के अनुयायी मुक्ति का मार्ग ध्यान और तपस्या को ही मानते हैं। पूरा हिमालय शिव की भूमि है। कैलास पर्वत को ही उनका आवास माना जाता है। भगवान शिव का धाम कैलास-मानसरोवर तिब्बत में पडता है। तिब्बत इस समय चीन के आधिपत्य में है। जिस कारण यात्रियों को पासपोर्ट, वीजा, स्वास्थ्य परीक्षण जैसी प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है।

इस धार्मिक यात्रा का जिम्मा कुमाऊं मंडल विकास निगम को दिया गया है। यात्रा दिल्ली से शुरू होकर काठगोदाम, अल्मोडा, पिथौरागढहोते हुए आधार शिविर धारचूलापहुंचती है। जहां से दो घंटे की यात्रा वाहन से करने के बाद यात्रा के पैदल पडाव तय किए जाते हैं। इन पडावों पर याक पशु भी किराये पर किया जा सकता है। प्रत्येक यात्री को दिल्ली और गुंजीपडाव पर स्वास्थ्य परीक्षण से गुजरना होता है। सफल यात्री ही कैलाश-मानसरोवर के दर्शन कर पाते हैं। कैलाश-मानसरोवर की परिक्रमा का जिम्मा चीन सरकार का रहता है। परिक्रमा कर वापस दिल्ली लौटने में 28दिन का समय लगता है।

Sunday, May 29, 2011

कालेश्वर में स्नान करने से मिलता है पांचों तीर्थो का फल

कालेश्वरकाअर्थ है कालस्यईश्वरयानी काल का स्वामी। उज्जैनकेमहाकाल मंदिर के बाद कालेश्वरएकमात्रऐसा मंदिर है जिसके गर्भ गृह में ज्योर्तिलिंगस्थापितहै। यहां भगवान शिव एक अद्भुत लिंगरूपमेंविराजमान हैं।

कालेश्वरमेंस्थित कालीनाथमंदिरका इतिहास पांडवों जुडाहै। जनश्रुतिकेअनुसार इस स्थल पर पांडव अज्ञातवास के दौरान आए थे और इसका प्रमाण ब्यासनदीके तट पर उनके द्वारा बनाई गई पौडियोंसेमिलता है। बताया जाता है कि पांडव जब यहां आए तो भारत के पांच प्रसिद्ध तीथरेंहरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन,नासिकव रामेश्वरमकाजल अपने साथ लाए थे और जल को यहां स्थित तालाब में डाल दिया था जिसे पंचतीर्थीकेनाम से जाना जाता है। तबसे पंचतीर्थीतथा व्यास नदी में स्नान को हरिद्वार में स्नान के तुल्य माना गया है।

किवदंतीकेअनुसार महर्षि व्यास ने यहां घोर तपस्या की थी। इसका प्रमाण इस स्थल पर स्थित ऋषि-मुनियों की समाधियां से मिलता है। मंदिर का निर्माण पांडवों, कुटलैहडएवंजम्मू की महारानी व राजा गुलेरनेकरवाया था। इस तीर्थ स्थल के साथ महाकाली के विचरण का महात्म्यभीजुडाहै।

Tuesday, May 10, 2011

कालेश्वर में स्नान करने से मिलता है पांचों तीर्थो का फल

कालेश्वरकाअर्थ है कालस्यईश्वरयानी काल का स्वामी। उज्जैनकेमहाकाल मंदिर के बाद कालेश्वरएकमात्रऐसा मंदिर है जिसके गर्भ गृह में ज्योर्तिलिंगस्थापितहै। यहां भगवान शिव एक अद्भुत लिंगरूपमेंविराजमान हैं।

कालेश्वरमेंस्थित कालीनाथमंदिरका इतिहास पांडवों जुडाहै। जनश्रुतिकेअनुसार इस स्थल पर पांडव अज्ञातवास के दौरान आए थे और इसका प्रमाण ब्यासनदीके तट पर उनके द्वारा बनाई गई पौडियोंसेमिलता है। बताया जाता है कि पांडव जब यहां आए तो भारत के पांच प्रसिद्ध तीथरेंहरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन,नासिकव रामेश्वरमकाजल अपने साथ लाए थे और जल को यहां स्थित तालाब में डाल दिया था जिसे पंचतीर्थीकेनाम से जाना जाता है। तबसे पंचतीर्थीतथा व्यास नदी में स्नान को हरिद्वार में स्नान के तुल्य माना गया है।

किवदंतीकेअनुसार महर्षि व्यास ने यहां घोर तपस्या की थी। इसका प्रमाण इस स्थल पर स्थित ऋषि-मुनियों की समाधियां से मिलता है। मंदिर का निर्माण पांडवों, कुटलैहडएवंजम्मू की महारानी व राजा गुलेरनेकरवाया था। इस तीर्थ स्थल के साथ महाकाली के विचरण का महात्म्यभीजुडाहै।

Wednesday, April 20, 2011

शंकर-सुवन केसरी नंदन

हनुमदुपासना कल्पद्रुमनामक प्राचीन ग्रंथ में लिखा है- चैत्र मासिसितेपक्षेपौर्णमास्यांकुजेऽहनि।मौलीमेखलयायुक्तकौपीन परिधारक।अर्थात चैत्र मास के शुक्लपक्ष में मंगलवार और पूर्णिमा के संयोग की बेला में मूंज की मेखला से युक्त लंगोटी पहने तथा यज्ञोपवीत धारण किए हुए हनुमानजी का आविर्भाव हुआ।

स्कंदपुराणके वैष्णवखंडके 40वेंअध्याय के 43वेंश्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि मेष राशि में सूर्य के उच्च स्थिति में होने पर चित्रा नक्षत्र से संयुक्त चैत्रीपूर्णिमा के दिन हनुमानजी का अवतरण हुआ। वहीं आनंद रामायण में भी चैत्रीपूर्णिमा को ही हनुमानजी की जयंती-तिथि माना गया है।

हालांकि अयोध्या की हनुमानगढीतथा देश के कुछ हिस्सों में कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भी हनुमान जयंती मनाई जाती है। इसके पीछे वायुपुराण का वह संदर्भ है, जिसमें कहा गया है कि अमावस्या के दिन समाप्त होने वाले आश्रि्वन मास की चतुर्दशी तिथि, मंगलवार और स्वाति नक्षत्र के संयोग में मेष लग्न के समय भगवान शंकर हनुमानजी के रूप में उत्पन्न हुए। लेकिन ज्यादातर स्थानों में चैत्रीपूर्णिमा के दिन ही हनुमान-जयंती का उत्सव मनाया जाता है।

ग्रंथों में हनुमानजी के रुद्रावतारअर्थात् भगवान शंकर का अंश होने से संबंधित अनेक कथाएं मिलती है। एक कथा के अनुसार, शिवजी ने श्रीरामचंद्र जी की स्तुति की और यह वर मांगा कि प्रभो!मैं दास्यभावसे आपकी सेवा करना चाहता हूं. श्रीरामचंद्रजीने शिवजी के प्रेम से वशीभूत होकर तथास्तु कहा। कालांतर में शिवजी हनुमान के रूप में अवतरित होकर श्रीरामचंद्र जी के प्रमुख सेवक बनें।

विनयपत्रिकाके पदों में गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमानजी को रुद्रावतार,महादेव, वामदेव,कालाग्नि,वानराकारविग्रहपुरारी,मंमथ-मथनआदि शिव-सूचक नामों से संबोधित किया है।

दोहावलीमें तुलसी इस विषय में कहते है- जेहिसरीररति राम सोंसोइआदरहिंसुजान/ रुद्रदेहतजिनेहबसवानर भेहनुमान/ जानिराम-सेवा सरस समुझिकरबअनुमान/पुरुषा तेसेवक भएहर तेभेहनुमान।

हनुमान चालीसा में भी तुलसीदास ने हनुमानजी को संकर सुवनकहकर रुद्रावतारघोषित किया।

एक तरफ भगवान शंकर रामचंद्र जी को अपना आराध्य मानते हैं, वहीं दूसरी ओर श्रीराम रामेश्वर के रूप में उनका पूजन करते है। शिवजी पर चढने वाले बिल्व पत्रों पर राम-नाम लिखने का तात्पर्य भी हरि-हर की एकरूपता है। तत्वतये दोनों एक ही है। बस नाम, स्वरूप और गुण का भेद है। हनुमानजी का शंकर-सुवन होकर रामदूत बनना इसका प्रमाण है।

Friday, April 8, 2011

राम ने की थी शक्ति पूजा

चित्रकूट में स्फटिक शिला वर्षो से लोगों की आस्था का केंद्र बनी हुई है। मान्यता है कि इस पर बैठकर ही श्रीराम ने रावण से युद्ध करने से पहले शक्ति पूजा की थी.

एक बार चुनिकुसुम सुहाए,

मधुकर भूषण राम बनाये।

सीतहिंपहिरायेप्रभु सादर,

बैठे फटिक शिला पर सुंदर।

तुलसी दास जी ने ये पंक्तियां श्रीरामचरितमानस में लिखी थीं। ये पक्तियांवास्तव में चित्रकूट में परांबाजगदीश्वरीजगदाराध्याश्रीसीतारूपिणीमहामाया की भाव-भक्ति भरी उस पूजा की ओर इंगित करती हैं, जिसके बारे में मान्यता है कि अखिल बह्मंाडनायक श्रीराम जी ने स्फटिक शिला पर बैठकर की थी। युगों से चित्रकूट आने वाली लाखों श्रद्धालु मंदाकिनी के तीर पर विशालकाय अर्जुन के वृक्ष की छाया से आच्छादित इस विशालकाय चित्रण पर अपना शीश नवातेहैं।

आदि कवि वाल्मीकि हों, तुलसी हों या फिर कविवरनिराला, सभी ने चित्रकूट में राम की शक्ति पूजा को व्याख्यायितकिया है। ग्रंथों में उल्लेख है कि श्रीराम ने अपने जीवन काल में दो विशेष आराधनाएंकी थीं, जिनके विशेष आराधना स्थल चित्रकूट और रामेश्वरमरहे।

तपस्थलीमाने जाने वाले चित्रकूट के प्रमुख संत स्वामी सनकादिककहते हैं, वास्तव में चित्रकूट सुखविलासहै। यहां श्रीराम अपने पूर्णतमपरमात्मा के स्वरूप में विद्यमान हैं। चित्रकूट में उन्होंने मां भगवती सीता के स्वरूप में मां भगवती की आराधना की है। महाकवि कालिदासव निराला जी के साथ ही देवी भागवत जैसे ग्रंथ भी इस बात की ताकीद करते हैं। वे कविवरनिराला रचित अनामिका को अपने सुमधुर कंठ से गाते हुए कहते हैं - मात दशभुजाविश्व ज्योति मैं हूं, आश्रित/ हो विद्ध शक्ति में है खल महिषासुर मर्दित / जन रंजन चरण कमल तल / धन्य सिंह गर्जित/यह मेरा प्रतीक मात समझा इंगित/ मै, सिंह इसी भाव से करूंगा अभिनंदन.।

सनकादिककहते है कि चित्रकूट वह तीर्थ है, जहां प्रभु श्रीराम ने दशानन के संहार के लिए साढे ग्यारह साल मां भगवती की तपस्या की थी।

Saturday, March 5, 2011

परिवेश ही शिव है ऐसी वाणी बोलिए...

विज्ञान की बिगबैंगथ्योरी के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक महा विस्फोट से हुई थी। इस सिद्धंातके बरक्सहम शिव तत्व को रख सकते हैं, जो ऊर्जा के रूप में हमारे पूरे परिवेश में व्याप्त है। सृष्टि के जन्म से अंत तक का परिवेश शिव तत्व है, जिसमें डूबने के लिए हमें जागरूक होना होगा अपने परिवेश और समाज के प्रति.। आर्ट ऑफ लिविंग के प्रणेताश्री श्री रविशंकर का नजरिया:

शिव वहां होते हैं, जहां मन का विलय होता है। ईश्वर को पाने के लिए लंबी तीर्थ यात्रा पर जाने की आवश्यकता नहीं। हम जहां पर हैं, वहां अगर ईश्वर नहीं मिलता, तो अन्य किसी भी स्थान पर उसे पाना असंभव है। जिस क्षण हम स्वयं में स्थित, केंद्रित हो जाते हैं, तो पाते हैं कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। शोषितों में, वंचितों में, पेड-पौधों, जानवरों में. सभी जगह। इसी को ध्यान कहते हैं।

शिव के कई नामों में से एक है विरुपक्ष्। अर्थात जो निराकार है, फिर भी सब देखता है। हमारे चारों ओर हवा है और हम उसे महसूस भी करते हैं, लेकिन अगर हवा हमें महसूस करने लगे तो क्या होगा? आकाश हमारे चारों ओर है, हम उसे पहचानते हैं, लेकिन कैसा होगा अगर वह हमें पहचानने लगे और हमारी उपस्थिति को महसूस करे? ऐसा होता है। केवल हमें इस बात का पता नहीं चलता। वैज्ञानिकों को यह मालूम है और वे इसे सापेक्षताका सिद्धंातकहते हैं। जो देखता है और जो दिखता है; दोनों दिखने पर प्रभावित होते हैं। ईश्वर हमारे चारों ओर है और हमें देख रहा है। वह हमारा पूरा परिवेश है। वह दृष्टा, दृश्य और दृष्टितहै। यह निराकार दैवत्वशिव है और इस शिव तत्व का अनुभव करना शिवरात्रि है।

साधारणतया उत्सव में जागरूकता खो जाती है, लेकिन उत्सव में जागरूकता के साथ गहरा विश्राम शिवरात्रि है। जब हम किसी समस्या का सामना करते हैं, तब सचेत व जागृत हो जाते हैं। जब सब कुछ ठीक होता है, तब हम विश्राम में रहते हैं। अद्यंतहिनम्अर्थात जिसका न तो आदि है न अंत, सर्वदावही शिव है। सबका निर्दोष शासक, जो निरंतर सर्वत्र उपस्थित है। हमें लगता है शिव गले में सर्प लिए कहीं बैठे हुए हैं, लेकिन शिव वह हैं, जहां से सब कुछ जन्मा है, जो इसी क्षण सब कुछ घेरे हुए है, जिनमें सारी सृष्टि विलीन हो जाती है। इस सृष्टि में जो भी रूप देखते हैं, सब उसी का रूप है। वह सारी सृष्टि में व्याप्त है। न वह कभी जन्मा है न ही उनका कोई अंत है। वह अनादि है।

शिव के पांच रूप हैं- जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश। इन पांचों तत्वों की समझ तत्व ज्ञान है। शिव तत्व में हम उनके पांचों रूपों का आदर करते हैं। हम उदार हृदय से शुभेच्छा करें कि संसार में कोई भी व्यक्ति दुखी न रहे। सर्वे जन: सुखिनोभवंतु.। पृथ्वी के सभी तत्वों में देवत्व है। वृक्षों, पर्वतों, नदियों और लोगों का सम्मान किए बिना कोई पूजा संपूर्ण नहीं होती। सब के सम्मान को दक्षिणा कहते हैं। दक्षिणा का अर्थ है कुछ देना। जब हम किसी भी विकृति के बिना, कुशलता से समाज में रहते हैं, क्रोध, चिंता, दुख जैसी सब नकारात्मक मनोवृत्तियोंका नाश होता है। हम अपने तनाव, चिताएं और दुख दक्षिणा के रूप में प्रकृति और परिवेश को दे दें और अपना समय दुखियों-पीडितोंकी सेवा को समर्पित कर दें। यही शिव की सच्ची उपासना सिद्ध होगी।









बेजामिनफ्रैंकलिनने अपनी सफलता का कारण बताते हुए कहा था, मैंने तय किया है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं बोलूंगा और जितना भी बोलूंगा, वह उस व्यक्ति की अच्छाइयों के बारे में ही होगा। वाणी के इसी संयम को अध्यात्म में वाचिक तप कहा जाता है अर्थात अपनी वाणी पर कठोर वचनों को न आने देने का प्रयास। श्रीमद्भगवद्गीतामें तीन प्रकार के तप गिनाए गए हैं- शारीरिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप।

वाचिक तप के बारे में उल्लेख है, उद्वेग उत्पन्न न करने वाला वाक्य बोलना, प्रिय, हितकारकऔर सत्य वचन बोलना और स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है।

हमारे जीवन में वाणी के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसको वश में करने से व्यक्ति बहुत ऊंचा उठता है। इसके विपरीत अनियंत्रित वाणी वाले व्यक्ति को अमूमन जीवन में सफलता नहीं मिल पाती। जब व्यक्ति अपनी वाणी से किसी को ठेस नहीं लगाता और सदैव मीठा बोलता है, उसके इष्ट-मित्रों का दायरा अधिक होता है और लोगों के सहयोग व समर्थन के कारण वह अधिक शक्तिशाली बनकर उभरता है। इसके विपरीत कटु वचन बोलने वाला जीवन में अकेला पडता चला जाता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के लिए वाचिक तप का अत्यंत महत्व है।

गीता में कर्म के तीन साधन बताए गए हैं, जिनमें एक साधन वाणी भी है। ऋग्वेद के एक मंत्र का आशय है कि जिस प्रकार छलनी में छानकर सत्तू को साफ करते हैं, वैसे ही जो लोग मन, बुद्धि अथवा ज्ञान की छलनी से छान कर वाणी का प्रयोग करते हैं, वे हित की बातों को समझते हैं अथवा शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। जो बुद्धि से शुद्ध कर के वचन बोलते हैं, वे अपने हित को भी समझते हैं और जिस को बात बता रहे हैं, उसके हित को भी समझते हैं। सोच-समझकर शब्दों का उच्चारण या बोलने में ही, कहने और सुनने वाले का हित-भाव छिपा हुआ है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य निहित रहते हैं।

मधुरता से कही गई बात हर प्रकार से कल्याणकारी होती है। परंतु वही बात कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बडे अनर्थ का कारण बन जाती है। आज के समय में, जब कठोर वाणी के कारण रोड रेजजैसे अनेक अपराध बढ रहे हैं, ऐसे समय में वाणी का संयम बहुत ही जरूरी है। आज के आपाधापी के समय में यदि हम सदा मधुर, सार्थक और चमत्कारपूर्ण वचन नहीं बोल सकते, तो कम से कम वाणी में संयम का हमारा प्रयास अवश्य होना चाहिए।

महात्मा विदुर ने कहा है कि कटु वचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्मस्थलोंको घायल कर देते हैं, जिसके कारण घायल व्यक्ति दिन-रात दुखी रहता है। उनका परामर्श है कि ऐसे कटु वाग्बाणोंका त्याग करने में अपना और औरों का भला होता है। बाणों से हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाडे से काटा गया वृक्ष फिर उग जाता है, लेकिन वाणी से कटु वचन कहकर किए गए घाव कभी नहीं भरते। इसलिए जो मनुष्य कठोर वचन बोलता है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, दूसरों के बारे में नहीं। स्वार्थी नहीं, बल्कि परमार्थी बनने के लिए आपको कठोर वचनों को छोडना ही पडेगा।

मनुस्मृति में मनुष्य के जीवन के लिए जरूरी दस बातें बताई गई हैं, जिनमें पहली जो चार बातें हैं, वे बोलने के संबंध में ही हैं। जिनमें कहा गया है कि हम कठोर न बोलें। कोई भी बात मधुरता से, मृदुलतासे और अपनी वाणी में अपने हृदय का रस घोल कर कहनी चाहिए। कठोर वाणी का तो पूरी तरह परित्याग करना चाहिए। वह मनुष्यों में सबसे अधिक अभागा है, जो कठोर शब्दों द्वारा लोगों के मर्मस्थलोंको विदीर्ण करता है।

हमारे मनीषियोंने बार-बार कहा है कि जो व्यक्ति दूसरों के प्रति कडे शब्दों का व्यवहार करता है और पर-निंदा करता है, वह ऐसा पापाचरणकरता हुआ शीघ्र ही विपत्तिायोंमें फंस जाता है। इसलिए न तो किसी को अपशब्द कहे, न दूसरों का अपमान करें और न दुष्ट लोगों की संगति करें। रूखी, कठोर व दूसरों को पीडा पहुंचाने वाली वाणी का त्याग होना चाहिए, क्योंकि मनुष्य की वृद्धि और विनाश उसकी जिज्जाके अधीन होते हैं। मनुष्य का मान-अपमान, उसका आदर-अनादर, उसकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा सब उसकी जिज्जाके वशीभूत होते हैं। वाक-कुशलता बुद्धिमान का एक प्रशंसनीय लक्षण होता है। विदुर ने लक्ष्मी व यश दिलाने वाले सात लक्षण बताए हैं, जिनमें एक मधुर वाणी भी है। जिस मनुष्य में यह गुण होता है, वह अपने विरोधियों और शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है। कटु वचन नासूर की तरह प्रेम को खा जाते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, रोष न रसना खोलिए, बरुखोलियतलवार.सुनत मधुर परिनामहित, बोलियवचन विचार.। अर्थात भले ही तुम तलवार खोलो, परंतु रोष में आकर अपनी जिज्जामत खोलो। जो बात सुनने में मधुर हो और परिणाम में हितकारी हो, ऐसे ही वचन विचारपूर्वक कहने चाहिए। वाणी का उचित प्रयोग ही सुखकारी होता है। जिन लोगों के मुख पर प्रसन्नता होगी, हृदय में दया होगी, वाणी में मधुरता होगी, कत्र्ताव्यमें परोपकार होगा, वे सभी के लिए वंदनीय होते हैं।

मीठे वचनों का सुख लाभकारी है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारा जीवन ज्ञान, निर्मलता, शक्ति व शुभ वाणी से अलंकृत हो। हम जिज्जापर संयम साध लें।

Monday, February 21, 2011

आओ वासंती हो जाए

वसंत पंचमी उमंग, उल्लास, उत्साह, विद्या, बुद्धि और ज्ञान के समन्वय का पर्व है। मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनसे हम विवेक व बुद्धि प्रखर होने, वाणी मधुर व मुखर होने और ज्ञान साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की कामना करते हैं। पुराणों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन ब्रह्माजी के मुख से मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था और जड-चेतन को वाणी मिली थी। इसीलिए वसंत पंचमी को विद्या जयंती भी कहा जाता है और इस दिन सरस्वती पूजा का विधान है।

वसंत पंचमी पर हम ऋतुओं के राजा वसंत का स्वागत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में वसंत ऋतु को अपनी विभूति बताया है। उन्होंने कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूं।

मनुष्य ही नहीं, जड और चेतन प्रकृति भी इस महोत्सव के लिए श्रृंगार करने लगती है। सबके मन और देह में नई शक्ति व ऊर्जा की अनुभूति होती है। तरह-तरह के फूल खिलने लगते हैं। हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। हरी धानी साडी, पीली-पीली फूली सरसों की चुनरिया, रंग बिरंगे फूलों का श्रृंगार, कोयल की कुहू-कुहू और भंवरों का गुंजार संदेश देते हैं कि ऋतुराज वसंत आ गया है।

संतकवितुलसीदास ने रामचरित मानस में और महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। मान्यता है कि कवि कालिदास पहले अज्ञानी व महामूर्खथे, लेकिन मां सरस्वती से ज्ञान का वरदान पाकर महाकवि कालिदास हो गए थे। मां सरस्वती हमें अविवेक व अज्ञानता से मुक्ति दिलाती हैं। बुद्धि और विवेक ही है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। जीवन में इसी का प्रयोग करके मनुष्य सुख, समृद्धि एवं शांति का भोग कर सकता है।

पद्मपुराणमें वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्रवस्त्रपहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्रहमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। सरस्वती का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है।

कुछ चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। कीचड में खिलने वाले कमल को कीचड स्पर्श नहीं कर पाता। यानी हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पडे, परंतु बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना इस बात की द्योतक है कि उल्लास में बुद्धि व विवेक का संबल बना रहे।

आज अभावों व कुंठाओं में कभी-कभी जिंदगी की कशमकश इस वासंती रंग को फीका करने लगती है। तो क्यों न हम वसंत से प्रेरणा लेकर जीवन को संपूर्णता से जिएं और कामना करें कि सबके जीवन में खुशियों के फूल सदा खिलते रहें। वसंत ऋतु जैसा उल्लास व सुंदरता बनी रहे, क्योंकि जो सत्य है, वही शिव है और वही सुंदर है।

Friday, February 4, 2011

कर्म में स्वार्थ नहीं

मनुष्य नाना प्रकार के हेतु (प्रयोजन) लेकर कार्य करता है, क्योंकि बिना हेतु के कार्य हो ही नहीं सकता। कुछ लोग यश चाहते हैं, और वे यश के लिए काम करते हैं। दूसरे पैसा चाहते है, और वे पैसे के लिए काम करते हैं। कुछ अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, और वे अधिकार के लिए काम करते हैं। कुछ लोग मृत्यु के बाद अपना नाम छोड जाने के इच्छुक होते हैं। चीन में प्रथा है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद ही उसे उपाधि दी जाती है। किसी ने यदि बहुत अच्छा कार्य किया, तो उसके मृत-पिता अथवा पितामह को कोई सम्माननीय उपाधि दे दी जाती है। इस्लाम धर्म के कुछ संप्रदायों के अनुयायी इस बात के लिए आजन्म काम करते रहते हैं कि मृत्यु के बाद उनकी एक बडी कब्र बने। इस प्रकार, मनुष्य को कार्य में लगाने वाले बहुत से उद्देश्य होते हैं।

प्रत्येक देश में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उससे दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो और भी उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई तथा मनुष्य-जाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हैं, क्योंकि भलाई में उनका विश्वास है और उसके प्रति प्रेम है।

देखा जाता है कि नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुधा शीघ्र फलित नहीं होता। ये चीजें तो हमें उस समय प्राप्त होती हैं, जब हम वृद्ध हो जाते हैं। असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती है और सच पूछा जाय, तो नि:स्वार्थताअधिक फलदायीहोती है, पर लोगों में इसका अभ्यास करने का धीरज नहीं रहता। यदि कोई मनुष्य पांच दिन या पांच मिनट भी बिना भविष्य का चिंतन किए, बिना स्वर्ग, नरक या अन्य किसी के संबंध में सोचे, नि:स्वार्थतासे काम कर सके, तो वह एक महापुरुष बन सकता है। यह शक्ति की महत्तम अभिव्यक्ति है-इसके लिए प्रबल संयम की आवश्यकता है। अन्य सब बहिर्मुखी कर्मो की अपेक्षा इस आत्मसंयम में शक्ति का अधिक प्रकाश होता है। मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्णउद्देश्य की ओर दौडती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है, वह फिर तुम्हारे पास लौटकर तुम्हारे शक्ति विकास में सहायक नहीं होती। परंतु यदि उसका संयम किया जाए, तो उससे शक्ति की वृद्धि होती है। इस आत्मसंयम से एक महान् इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वह एक ऐसे चरित्र का निर्माण करता है, जो जगत् को अपने इशारे पर चला सकता है।

प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर ध्येयों की ओर बढने तथा उन्हें समझने का प्रबल यत्न करते रहना चाहिए। यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस आदमी का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा रहता है। यदि तुम एक श्रेष्ठ एवं भला कार्य करना चाहते हो, तो यह मत सोचो कि उसका फल क्या होगा। कर्मयोगी के लिए सतत कर्मशीलताआवश्यक है। बिना कार्य के हम एक क्षण भी नहीं रह सकते।

अब प्रश्न यह उठता है कि आराम के बारे में क्या होगा? यहां इस जीवन-संग्राम के एक ओर है कर्म, तो दूसरी ओर है शांति। सब शांत, स्थिर। यदि एक ऐसा मनुष्य, जिसे एकांतवास का अभ्यास है, संसार के चक्कर में घसीट लाया जाए, तो उसका ध्वंस हो जाएगा। जैसे समुद्र की गहराई में रहने वाली मछली पानी की सतह पर लाते ही मर जाती है। वह सतह पर पानी के उस दबाव की अभ्यस्त नहीं होती। इसी प्रकार, सांसारिक तथा सामाजिक मनुष्य शांत स्थान पर ले जाया जाय, तो क्या वह शांतिपूर्वक रह सकता है? कदापि नहीं।

आदर्श पुरुष वे हैं, जो परम शांत एवं निस्तब्धताके बीच भी तीव्र कर्म तथा प्रबल कर्मशीलताके बीच भी मरुस्थल की शांति एवं निस्तब्धताका अनुभव करते हैं। यही कर्मयोग का आदर्श है। यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया।

जो कार्य हमारे सामने आते जाएं, उन्हें हम हाथ में लेते जाएं और शनै:-शनै:अपने को दिन-प्रतिदिन नि:स्वार्थ बनाने का प्रयत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारा हेतु क्या है। ऐसा होने पर हम देख पाएंगे कि आरंभावस्थामें प्राय: हमारे सभी कार्यो का हेतु स्वार्थपूर्णरहता है, किंतु धीरे-धीरे यह स्वार्थपरायणताअध्यावसायसे नष्ट हो जाएगी, और अंत में वह समय आ जाएगा, जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित होकर कार्य करने के योग्य हो सकेंगे।

आओ वासंती हो जाए

वसंत पंचमी उमंग, उल्लास, उत्साह, विद्या, बुद्धि और ज्ञान के समन्वय का पर्व है। मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनसे हम विवेक व बुद्धि प्रखर होने, वाणी मधुर व मुखर होने और ज्ञान साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की कामना करते हैं। पुराणों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन ब्रह्माजी के मुख से मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था और जड-चेतन को वाणी मिली थी। इसीलिए वसंत पंचमी को विद्या जयंती भी कहा जाता है और इस दिन सरस्वती पूजा का विधान है।

वसंत पंचमी पर हम ऋतुओं के राजा वसंत का स्वागत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में वसंत ऋतु को अपनी विभूति बताया है। उन्होंने कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूं।

मनुष्य ही नहीं, जड और चेतन प्रकृति भी इस महोत्सव के लिए श्रृंगार करने लगती है। सबके मन और देह में नई शक्ति व ऊर्जा की अनुभूति होती है। तरह-तरह के फूल खिलने लगते हैं। हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। हरी धानी साडी, पीली-पीली फूली सरसों की चुनरिया, रंग बिरंगे फूलों का श्रृंगार, कोयल की कुहू-कुहू और भंवरों का गुंजार संदेश देते हैं कि ऋतुराज वसंत आ गया है।

संतकवितुलसीदास ने रामचरित मानस में और महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। मान्यता है कि कवि कालिदास पहले अज्ञानी व महामूर्खथे, लेकिन मां सरस्वती से ज्ञान का वरदान पाकर महाकवि कालिदास हो गए थे। मां सरस्वती हमें अविवेक व अज्ञानता से मुक्ति दिलाती हैं। बुद्धि और विवेक ही है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। जीवन में इसी का प्रयोग करके मनुष्य सुख, समृद्धि एवं शांति का भोग कर सकता है।

पद्मपुराणमें वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्रवस्त्रपहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्रहमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। सरस्वती का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है।

कुछ चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। कीचड में खिलने वाले कमल को कीचड स्पर्श नहीं कर पाता। यानी हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पडे, परंतु बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना इस बात की द्योतक है कि उल्लास में बुद्धि व विवेक का संबल बना रहे।

आज अभावों व कुंठाओं में कभी-कभी जिंदगी की कशमकश इस वासंती रंग को फीका करने लगती है। तो क्यों न हम वसंत से प्रेरणा लेकर जीवन को संपूर्णता से जिएं और कामना करें कि सबके जीवन में खुशियों के फूल सदा खिलते रहें। वसंत ऋतु जैसा उल्लास व सुंदरता बनी रहे, क्योंकि जो सत्य है, वही शिव है और वही सुंदर है।

Sunday, January 2, 2011

ऊं नम: शिवाय से गूंजी पहाड़ी

रातू रोड स्थित रांची की पहाडी पर विराजमान बाबा पहाडी का 14वां वार्षिकोत्सव रूद्राभिषेक के साथ शनिवार को शुरू हो गया। कार्यक्रम का समापन रविवार को होगा।

महाकाल मंदिर, काली मंदिर, विश्वनाथ मंदिर सहित परिसर और सीढियों को रंग-बिरंगे फूलो से सजाया गया । बंगाल एवं उडीसा के 25 कलाकारों ने दिन-रात एक कर विशालकाय नाग का निर्माण किया है। हाल की छत पर विशाल पंडाल बनाया गया है, जहां भोलेश्वर की भव्य झांकी बनी है। वही, मुख्य हाल की झांकी में समुद्र मंथन का दृश्य दिखाई दे रहा है। रात में बिजली की जगमग से पहाडी चमक रही है। पूरा मंदिर प्रांगण ओम नम: शिवाय के पंचाक्षरी मंत्रों से गूंज रहा था। वहीं, महामृत्युंजय मंत्र के अलावा शिव के अन्य मंत्रों से भी मंदिर का मुख्य परिसर गूंज रहा था। दुग्ध, बेल पत्र से भगवान का अभिषेक किया गया। भगवान की पूजा के लिए भक्तों की अपार भीड सुबह से ही शुरू से ही शुरू हो गई थी।

कार्यक्रम की शुरुआत ध्वज पूजा के साथ हुई। इसके बाद रूद्राभिषेक किया गया। सांय तुलसी कृत मानस के सुंदरकांड का पाठ किया गया।