Monday, January 26, 2009

गीता से आत्मोन्नति

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन को जो उपदेश दिया था, वह आज हमारे लिए धर्म ग्रंथ है। और इस ग्रंथ में उन सभी महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख है, जो मनुष्य के चारों पुरुषार्थो-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को दिशा निर्देशित करता है। इसके अलावा, इसमें भक्ति और कर्म की महत्ता का भी समन्वय किया गया है।

सबसे बडी बात तो यह है कि गीता में ईश्वर, जीव और प्रकृति के स्वरूप की व्याख्या जिस रूप में की गई है, उसे साधारण ज्ञान वाले व्यक्ति भी आसानी से समझ सकते हैं। यही वजह है कि कुछ विद्वान इसे कर्म-प्रधान धर्म ग्रन्थ कहते हैं, तो कुछ इसे ज्ञान प्रधान या भक्ति मार्ग का अद्भुत धर्म ग्रंथ बताते हैं।

वास्तव में, इसमें तीनों मार्गो को समाहित किया गया है। जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी वाली बात इस महान धर्म ग्रंथ के हर श्लोक में दिखाई पडती है। ध्यान दें कि गीता के कर्म मार्ग का उपदेश समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरित करता है। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि हे अर्जुन, यह जीवन हमारे किए गए कर्मो पर ही आधारित है, इसलिए कर्म करना प्रत्येक मानव का धर्म है। हमें सारी चिंताओं को त्यागकर अपने कर्तव्य-पालन में लग जाना चाहिए। दरअसल, कर्म मार्ग से ही वह ऊर्जा मिल सकती है, जो मनुष्य की सारी समस्याओं और कामनाओं को हल कर सकती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं बिना कर्म किए कोई भी व्यक्ति मुक्ति, यानी आवागमन से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता है। गीता में कहा गया है-

न कर्मणामनारम्भान्नैष्क‌र्म्यपुरुषौश्नुते।न चसंन्यसनादेवसिद्धि समधिगच्छति।अर्थात मनुष्य कभी भी कर्म से छुटकारा नहीं पा सकता है और न कर्म को त्यागकर उसे पूर्णता, यानी सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है।

श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म को केवल मनुष्य का धर्म नहीं माना है, बल्कि इसे योग भी कहा है। कहने का तात्पर्य यही है कि भगवत प्राप्ति के लिए कर्म एक साधना के समान है। जो लोग इसे साधना मानकर अपनाते हैं, वे न कभी भ्रमित होते हैं और न ही निराश होते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि कर्म करने के बाद हमें फल पाने की इच्छा जागृत हो जाती है, तो इस इच्छा से किस तरह से छुटकारा पाया जाए? इसका समाधान भी गीता में उपलब्ध है।

फल की इच्छा कर्म के बाद जगना एक स्वाभाविक-सी प्रक्रिया है, लेकिन एक सच यह भी है कि यह इच्छा ही इनसान को बंधन में डालती है और किसी भी चीज के प्रति आसक्तिपैदा करती है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं-यदि आवागमन से छुटकारा चाहते हो, तो आसक्तिका त्याग कर दो। आगे वे कहते हैं कि चूंकि यह मानव शरीर बडे भाग्य से मिला है, इसलिए इसे यज्ञ-मार्ग पर लगाना चाहिए, क्योंकि इससे न केवल तुम्हारी आसक्तिमिटेगी, बल्कि समाज का कल्याण भी होगा। साथ ही, आपकी आत्मा की उन्नति भी होगी। दरअसल, आत्म-उन्नति करना एक साधना और तप है और इससे ही हम परमात्मा से नजदीकी का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।

सच तो यह है कि कर्म-मार्ग वह अनुपम रास्ता है, जो आत्मा और परमात्मा को जोडने का कार्य करता है। कहने का तात्पर्य यही है कि मोक्ष प्राप्ति का सरल और सहज रास्ता कर्म मार्ग में ही निहित है। इसलिए कर्म करते वक्त हम आत्म-केंद्रित रहें, न कि इन्द्रियों के वश में। गीता के अनुसार, जो व्यक्ति इंद्रियों से वशीभूत होकर कर्म करता है, वह भगवत मार्ग का पथिक कभी भी नहीं बन सकता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि अपनी आजीविका के लिए उसने जो कर्म चुना है, उसे पूरी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ पूरा करे! दरअसल, मन की चंचलताको संयमित करके कर्म करने वालों को समाज में न केवल आदर-सम्मान मिलता है, बल्कि उसका जीवन भी सार्थक कहलाता है।

वीरता व बलिदान के प्रतीक गुरु

धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इतिहास में ऐसी वीरता और बलिदान कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इतिहासकारों ने इस महान शख्सियत को वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। इतिहासकार लिखते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई। जिस बालक ने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो, क्या संभव है कि वह स्वयं लडने के लिए प्रेरित होगा?

गुरु गोविन्द सिंह को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाडी राजाओं की ईष्र्या पहाड जैसी ऊंची थी, तो दूसरी ओर औरंगजेबकी धार्मिक कट्टरता की आंधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया-आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण करना। जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह लिखते हैं- जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोविन्द सिंह ने 1699ई.में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानिखालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। उन्होंने सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त कर न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उन्होंने स्पष्ट मत व्यक्त किया-मानस की जात सभैएक है।

गुरु नानक देव जी ने जहां विनम्रता और समर्पण पर जोर दिया था, वहीं गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया। समानता के आधार पर स्थापित खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में यदि कुछ था तो समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा।

गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरोरूप है खास, खालसा में हो करो निवास। सेनानायक के रूप में पहाडी राजाओं एवं मुगलों से कई बार संघर्ष किया। युद्ध के मैदान में उनकी उपस्थिति मात्र से सैनिकों में उत्साह एवं स्फूर्ति पैदा हो जाती थी। चण्डी चरित में लिखा सवैया शूरवीरों का मंत्र बन गया था-देह शिवा वर मोहिएहैभुभकरमनतेकबहूंन टरौ,न डरो अरि सो जब जाइलरोनिसचैकर अपनी जीत करो।

जहां शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। उनका विषय तो शान्ति एवं समाज कल्याण था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेबको फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। कुरान की कसम खाकर तूने कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लडाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। गुरु गोविंद सिंह एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने पाउन्टासाहिब के अपने दरबार में 52कवियों को नियुक्त किया था। जफरनामा एवं विचित्र नाटक गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियां हैं। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। इसी भावनाओं का पोषण उन्होंने अपने सिखों में भी किया। सिखों के बीच गुरु गद्दी को लेकर कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खनको हुकम है गुरू मानियहुग्रंथ।

गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।

Saturday, January 17, 2009

स्वप्न में मित्र की मृत्यु का पूर्वाभास

कई परामनोविज्ञान वेत्ता मानते हैं कि स्वप्न जगत परलोक व इहलोक का मिलन स्थल है। भाव जगत समय और स्थान की सीमा में नहीं बंधा है। पराचेतना चौथे आयाम के संसार में सब कुछ देख सकती है और एक ही क्षण में सृष्टि के आरंभ से अंत तक निगाह दौडा कर भूत, भविष्य व वर्तमान को जान सकती है। सपने में अवचेतन मन भावी घटनाओं का पूर्वाभास कर लेता है। यह बात बहुत पहले की है। रोज की तरह मैं उस रात भी अपना लेखन कार्य समाप्त कर सो गया। नींद में मैंने एक विचित्र सपना देखा। महल जैसा एक भव्य भवन है। उसके ठीक सामने विशाल उद्यान था। मैं और मेरा करीबी मित्र उस उद्यान में जाने के लिए बने राजमार्ग पर चल रहे हैं। हम दोनों शांत एवं निर्विकार भाव से चल रहे थे। मित्र के मुख पर विषाद की रेखाएं थीं। हम एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां दो छोर नजर आ रहे थे। जिसके एक ओर प्रकाश था दूसरी ओर अंधकार। यहां आकर मित्र ने मुझे विदा किया। उसके पश्चात वह मित्र उस गहन अंधकार में जाकर न जाने कहां विलीन हो गया। दूसरे दिन प्रात: काल मैंने इस सपने का पूरा ब्यौरा अपनी डायरी में नोट कर लिया। मैंने अपने मित्र को इस सपने का पूरा वृत्तांत भी पत्र द्वारा लिखकर बताया। पत्र का उत्तर मित्र के भाई ने दिया था। जिसमें लिखा था कि छोटे भाई (उस मित्र की) की मृत्यु अचानक हो गई। आश्चर्य की बात यह थी कि उसकी मृत्यु ठीक उसी दिन और उसी समय पर हुई थी, जिस समय मैंने अपनी डायरी में उस सपने की घटना को लिखा। इसी प्रकार एक बार रात के अंतिम प्रहर में मैंने सपने में एकविमान की भूमि से जोरदार टक्कर देखी व कर्कश ध्वनि सुनी। ठीक दूसरे दिन सुबह समाचार पत्र में पढा कि चीन में एक विमान दुर्घटना में डेढ सौ व्यक्ति मारे गए।

विश्लेषण

डा. श्याम मनोहर व्यास के अतींद्रिय अनुभव मुख्यत: सपनों से जुडे हुए हैं। सपने का आरंभ सामान्य ढंग से हुआ, लेकिन बाद में कुछ परिवर्तन हुए। मित्र के चेहरे पर विषाद उभरना व्यक्ति के अंदर के डर का प्रतीक है। सपने में अंधकार में खो जाने का संकेत मृत्यु से जुडा हुआ है। शास्त्रों के अनुसार मृत्यु के समय व्यक्ति तीन अवस्थाओं से गुजरता है। मृत्यु की पहली अवस्था में शारीरिक और मानसिक यंत्रणा महसूस होती है। धीरे-धीरे पीडा समाप्त होकर चेहरे पर शांति छा जाती है। यह शरीर की मृत्यु होती है। लेकिन इसके बाद भी मस्तिष्क काम करता रहता है। बाहरी चेतना खत्म हो जाने के बाद भी आंतरिक चेतना बनी रहती है। धीरे-धीरे यह चेतना भी खत्म होने लगती है तथा दूसरी अवस्था का अंत होकर मस्तिष्क की भी मृत्यु हो जाती है। तीसरी अवस्था में आत्मा अपने शरीर को अपने से अलग देखती व महसूस करती है। तमाम अनुसंधानों के बाद ज्ञात हुआ है कि तीसरी अवस्था में दिवंगत आत्मा अपने आत्मबल के अनुसार दो घंटे से लेकर दस दिन, तेरह दिन, 45 दिन तथा 1 साल तक रह सकती है। पहले दो घंटे का समय दिवंगत आत्मा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। उसमें अपने शरीर के लिए प्रबल आकर्षण तथा पुन: शरीर धारण करने की भावना बलवती होती है। इसके बाद 10 दिन की अवधि में दिवंगत आत्मा का अपने परिवार से अगोचर संबंध बना रहता है। कई बार मुक्ति में 13 दिन अथवा एक वर्ष का समय भी लग जाता है। इसीलिए तेहरवीं और बरसी का विधान है। सूक्ष्म शरीर में प्रवेश से पहले अकसर आत्मा उन लोगों को देखना चाहती है, जिनसे उसका प्रबल लगाव होता है। इसी कारण डा.श्याम मनोहर व्यास के मित्र उन्हें दिखाई दिए। इसका एहसास उन्हें सपने के माध्यम से हुआ। इस प्रकार के अनुभव मृत्यु के बाद दो घंटे से लेकर 10 दिन, 13 दिन अथवा वर्ष भर तक हो सकते हैं। यदि किसी कारणवश आत्मा की मुक्ति न हो तो यह अनुभव लंबे समय तक हो सकते हैं।

Saturday, January 10, 2009

श्रीहनुमानचालीसा

श्रीहनुमानचालीसा

दोहा

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥

राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै॥

संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन॥

बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे। रामचन्द्र के काज सँवारे॥

लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥

रघुपति कीन्ही बहुत बडाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा।

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही। जलधि लाँधि गये अचरज नाहीं॥

दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डर ना॥

आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हाँक तें काँपै॥

भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै॥

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा॥

संकट तें हनुमान छुडावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा॥

और मनोरथ जो कोइ लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै॥

चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥

साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे॥

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥

राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा॥

तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै॥

अंत काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥

संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

जै जै जै हनुमान गोसाई। कृपा करहु गुरु देव की नाई॥

जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महा सुख होई॥

जो यह पढै हनुमान चलीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥

दोहा

पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥



------------------------------------ श्री संकटमोचन हनुमानाष्टक



मत्तगयन्द छन्द

बाल समय रबि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।

ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो॥

देवन आनि करी बिनती तब छाँडि दियो रबि कष्ट निवारो।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥1॥

बालि की त्रास कपीस बसे गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो।

चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो॥

कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो॥2॥ को नहिं.

अंगद के सँग लेन गये सिय खोज कपीस यह बैन उचारो।

जीवत ना बचिहौ हम सो जु बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो॥

हरि थके तट सिंधु सबै तब लाय सिया-सुधि प्रान उबारो॥3॥ को नहिं..

रावन त्रास दई सिय को सब राक्षसि सों कहि सोक निवारो।

ताहि समय हनुमान महाप्रभु जाय महा रजनीचर मारो॥

चाहत सीय असोक सों आगि सु दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो॥4॥ को नहिं..

बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।

लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो॥

आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो॥5॥ को नहिं..

रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग की फाँस सबे सिर डारो।

श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो॥

आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो॥6॥ को नहिं..

बंधु समेत जबै अहिरावन लै रघुनाथ पताल सिधारो।

देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो॥

जाय सहाय भयो तब ही अहिरावन सैन्य समेत सँहारो॥7॥ को नहिं..

काज किये बड देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि बिचारो।

कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहिं जात है टारो॥

बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो॥8॥ को नहिं..

दोहा :- लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लँगूर।

बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥

Friday, January 2, 2009

समय के साथ चलें

घर के बडे-बुजुर्ग हमेशा हमें समय की कीमत पहचानने व वक्त के साथ चलने की नसीहत देते हैं। जो समय से पिछड जाता है वह अपने जीवन में कुछ खास हासिल नहीं कर पाता।

समय की गणना या समय को प्रदर्शित करने वाले विभिन्न उपकरणों को मनुष्य ने आदिकाल से अपनाया है। पहले सूर्य की स्थिति के अनुसार या फिर धूप की परछाई देखकर समय का अनुमान लगाया जाता था। टाइम मशीन, सन डायल, जंतर-मंतर आदि सभी कुछ पुराने जमाने में समय की गणना करने वाले विभिन्न यंत्रों के उदाहरण हैं। अति प्राचीन वैदिक विज्ञान में भी समय प्रदर्शित करने वाले विभिन्न उपकरणों की दिशा का वर्णन किया गया है। इसलिए यह स्वयंसिद्ध है कि यदि आप घडी का सकारात्मक ढंग से प्रयोग करें तो हर बार समय देखते समय आपको सकारात्मक ऊर्जा की प्राप्ति होगी। एक लंबे समय तक सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करने का अर्थ होगा सही समय पर पूरे परिवार का सही विकास। अगर आप अपने घर में घडी जैसी समय सूचक वस्तु को व्यवस्थित करते समय वास्तुशास्त्र के इन सिद्धांतों का ध्यान रखेंगी तो यह आपके परिवार के लिए निश्चित रूप से फायदेमंद साबित होगा :

1. घडी को दीवार पर लगाने के लिए उत्तर, पूर्व एवं पश्चिम दिशा का ही चुनाव करें। कभी भी दक्षिण दिशा की दीवार पर घडी न लगाएं। यदि घडी दक्षिण दिशा की दीवार पर लगी होगी तो कार्य प्रारंभ करने से पहले व दिन में कई बार आपका ध्यान दक्षिण दिशा की ओर जाएगा। इस तरह आप बार-बार दक्षिण दिशा की ओर से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा ही प्राप्त करती रहेंगी।

2. घडियों के प्रयोग में एक दूसरी विशेष सावधानी यह भी रखनी चाहिए कि किसी भी तरह की घडी चाहे वह टाइम पीस हो या फिर दीवार घडी इन्हें रात को सोते समय सिरहाने से थोडी दूरी पर ही रखें, क्योंकि रात के सन्नाटे में घडी की टिक-टिक से नींद में विघ्न पडेगा। साथ ही आजकल घडियां प्राय: इलेक्ट्रॉनिक सिद्धांत पर कार्य करती हैं और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से जो इलेक्ट्रो-मैग्नेनिटक रेडिएशन निकलते हैं वे मस्तिष्क व हृदय के आसपास एक नकारात्मक ऊर्जा क्षेत्र बना देते हैं। इसके प्रभाव में सोना या लेटना आपके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।

3.यह ध्यान रखें कि घडी कभी भी किसी दरवाजे के ऊपर न हो क्योंकि हर बार दरवाजे से अंदर बाहर आते-जाते समय आपका आभामंडल इससे दुष्प्रभावित होगा। परिणामस्वरूप आप तनावग्रस्त हो सकते हैं। यहां तक कि ऐसे दरवाजे से बाहर निकलने के बाद भी मन खिन्न रहेगा।

4.इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि घर में मौजूद सभी घडियां सही ढंग से चलती रहें। कोई भी घडी बंद नहीं होनी चाहिए।

5. यह भी याद रखें कि कोई भी घडी अपने समय से पीछे न चले। हो सके तो अपनी घडी को सही समय से पांच-दस मिनट आगे ही रखें क्योंकि वक्त के साथ चलने में ही जीवन की गति, उन्नति व विकास का रहस्य छिपा है।

6. खराब घडी को शीघ्र ही ठीक करवाएं एवं बैटरी खराब होने पर उसे बदलवाती रहें।

7.आजकल कुछ घडियां हर एक घंटे के बाद संगीत या मधुर ध्वनियां उत्पन्न करती हैं। ऐसी घडियों को घर के ब्रह्म स्थान स्थित लॉबी में लगाएं। इससे सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है व परिवार के सभी सदस्यों के जीवन में उन्नति के नए अवसर प्राप्त होते हैं।

8. दीवार घडी पर धूल-मिट्टी जमा न होने दें। नियमित रूप से उसकी सफाई करती रहें।

9. यह ध्यान रखें कि किसी भी घडी का शीशा टूटा हुआ न हो। ऐसी टूटी हुई घडी को बदल देना चाहिए क्योंकि इसका परिवार के सदस्यों पर नकारात्मक प्रभाव पडता है।

10. सिर्फ घडी ही नहीं, बल्कि कैलेंडर जैसी समय सूचक वस्तु के संबंध में भी आपको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कैलेंडर फटा हुआ न हो, उस पर कोई अश्लील या हिंसक चित्र भी नहीं होना चाहिए। हर महीने कैलेंडरकी तारीख बदलती रहें और पुराना होते ही उसे हटा दें।