Wednesday, July 22, 2009

बड़े काम की चीज है जामुन

फलों की विविधता की दृष्टि से दुनिया में भारत का कोई सानी नहीं। यहां हर मौसम के कुछ खास फल हैं। हर फल की अपनी कुछ खास विशेषता है। बारिश की फुहार पड़ते ही बाजार में जामुन की रौनक बढ़ जाती है।

डाक्टरों की राय में डायबिटीज को नियंत्रित रखने में यह काफी कारगर है। सीधे शब्दों में कहें तो डायबिटीज के लिए जामुन रामबाण दवा है।

जर्मन शोधकर्ताओं के मुताबिक, जामुन की पत्तिायां प्रोजेस्ट्रान [महिला सेक्स हार्मोन] में वृद्धि कर उसे संतुलित रखती हैं। चरक संहिता में वर्णित पुष्यानुग चूर्ण में भी जामुन की गुठली मिलाए जाने का विधान बताया गया है।

जामुन की गुठली में जंबोलीन नामक ग्लूकोसाइट पाया जाता है। यह स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित होने से रोकता है जो डायबिटीज के नियंत्रण में काफी मददगार साबित होता है।

अन्य रोगों में भी फायदेमंद है जामुन

-जामुन का सिरका बनाकर पीने से भूख व कब्जियत दूर होती है।

-गले के रोगों में जामुन की छाल को पीसकर उसका सत्व बना लें। इस सत्व को पानी में घोलकर गरारा करने से गला साफ होगा, आपकी आवाज अच्छी बनी रहेगी और सांस की दुर्गध [बैड ब्रेथ] की समस्या से निजात मिलेगी।

-जामुन लिवर [यकृत] को शक्ति प्रदान करने के साथ मूत्राशय की असामान्यता को दूर करने में भी सहायक है।

-जामुन का रस, शहद, आंवले या गुलाब के रस के साथ मिलाकर पीने से रक्त की कमी व शारीरिक दुर्बलता दूर होती है।

-जामुन का शरबत बनाकर रख लें। उल्दी-दस्त या हैजा की होने पर यह शरबत तुरंत राहत देता है।

-गठिया के इलाज में जामुन बहुत उपयोगी है। इसकी छाल को पीसकर बनाए गए घोल का लेप घुटनों पर लगाने से गठिया के दर्द से निजात मिलती है।

-विषैले जंतुओं के काटने पर जामुन की पत्तियों का रस काफी कारगर साबित होता है। जामुन की पत्तिायों में नमी सोखने की अद्भुत क्षमता होती है। काटे गए स्थान पर जामुन की पत्तिायों को बांधने पर घाव जल्दी ठीक होने लगता है।

-पथरी के मरीजों के लिए जामुन की गुठली का चूर्ण दही के साथ खाना काफी फायदेमंद साबित होती है।

-जामुन की गुठली का चूर्ण आधा-आधा चम्मच दो बार पानी के साथ लगातार कुछ दिनों तक देने से बच्चों के बिस्तर में पेशाब करने की आदत छूट जाती है।

Monday, July 6, 2009

मां लक्ष्मी की तपस्थली बेलवन

वृंदावन मथुरा के यमुना पार स्थित जहांगीरपुरग्राम (डांगौली/ मांट)का बेलवनलक्ष्मी देवी की तपस्थलीहै। यह स्थान अत्यंत सिद्ध है। यहां लक्ष्मी माता का भव्य मंदिर है। इस स्थान पर पौषमाह में चारो ओर लक्ष्मी माता की जय जयकार की गूंज सुनाई देने लग जाती है। दूर-दराज के असंख्य श्रद्धालु यहां अपनी सुख-समृद्धि के लिए पूजा-अर्चना करने आते हैं। यहां पौषमाह के प्रत्येक गुरुवार को विशाल मेला जुडता है। प्राचीन काल में इस स्थान पर बेल के वृक्षों की भरमार थी। इसी कारण यह स्थान बेलवनके नाम से प्रख्यात हुआ। कृष्ण-बलराम यहां अपने सखाओं के साथ गायें चराने आया करते थे। श्रीमद्भागवत में इस स्थान की महत्ता का विशद् वर्णन है। भविष्योत्तरपुराण में इसकी महिमा का बखान करते हुए लिखा है: तप: सिद्धि प्रदायैवनमोबिल्ववनायच।जनार्दन नमस्तुभ्यंविल्वेशायनमोस्तुते॥

भगवान् श्री कृष्ण ने जब सोलह हजार एक सौ आठ गोपिकाओं के साथ दिव्य महारासलीला की तब माता लक्ष्मी देवी के हृदय में भी इस लीला के दर्शन करने की इच्छा हुई और वह बेलवनजा पहुंची, परंतु उसमें गोपिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था। अत:उन्हें ललिता सखी ने यह कह कर दर्शन करने से रोक दिया कि आपका ऐश्वर्य लीला से सम्बन्ध है, जबकि वृंदावन माधुर्यमयीलीला का स्थान है। अत:लक्ष्मी माता वृंदावन की ओर अपना मुख करके भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने लग गईं। भगवान् श्रीकृष्ण जब महारासलीला करके अत्यंत थक गए तब लक्ष्मी माता ने अपनी साडी से अग्नि प्रज्वलित कर उनके लिए खिचडी बनाई। इस खिचडी को खाकर भगवान् श्रीकृष्ण उनसे अत्यधिक प्रसन्न हुए।

लक्ष्मी माता ने जब भगवान् श्रीकृष्ण से ब्रज में रहने की अनुमति मांगी तो उन्होंने उन्हें सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी। यह घटना पौषमाह के गुरुवार की है। कालान्तर में इस स्थान पर लक्ष्मी माता का भव्य मंदिर स्थापित हुआ। इस मंदिर में मां लक्ष्मी वृंदावन की ओर मुख किए हाथ जोडे विराजितहैं।

साथ ही खिचडी महोत्सव आयोजित करने की परम्परा भी पडी। इसी सब के चलते अब यहां स्थित लक्ष्मी माता मंदिर में खिचडी से ही भोग लगाए जाने की ही परंपरा है। यहां पौषमाह में प्रत्येक गुरुवार को जगह-जगह असंख्य भट्टियां चलती हैं। साथ ही हजारों भक्त-श्रद्धालु सारे दिन खिचडी के बडे-बडे भण्डारे करते हैं। इस मंदिर दर्शन हेतु पौषमाह के अलावा भी वर्ष भर भक्त-श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। ब्रज चौरासी कोस की हरेक परिक्रमा भी इस स्थान पर अनिवार्य रूप से आती है।

संयम से बढ़ता है धैर्य व सहनशक्ति

संयम व सावधानी, ये दोनों विवेक के अहम अंग है। इनसे मनुष्य में पनपने वाले बुरे विचार नष्ट होते है। साथ ही इससे इंसान मे धैर्य और सहनशक्ति बढती है। यानी संसार मे संयम मनुष्य हर क्षेत्र में विजयी होकर तरक्की कर सकता है और सुखी रहता है।

सांसारिक मोह-माया से मनुष्य यदि मुंह मोड ले और संयम से जीवन यापन करना शुरू कर दे तो उसके जीवन की अनेक कठिनाईयां व दुश्वारियां स्वयं ही खत्म हो जाएंगी। जिस प्रकार मनुष्य यदि गाडी चलाते समय मन मस्तिष्क पर नियंत्रण रखते हुए सावधानी पूर्व गाडी चलाता है तो वह सुरक्षित अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच जाता है। अगर वह इसमे चूक करता है तो उसे परेशानियो का सामना करना ही पडता है। इसी प्रकार हमें अपनी जीव यात्रा मे मन की अनियंत्रित इच्छाओ पर ब्रेक लगाते हुए पांचो इंद्रियो शरीर, जीभ, आंख, नाक व कान रूपी व्हील कंट्रोलर पर सावधानी से नियंत्रण रखते हुए संयम रूपी टायरो की हवा चैक करते रहना चाहिए।

अक्षरों की वर्णमाला सीमित है परन्तु शब्दों के प्रयोग करने का ढंग अलग-अलग है। यदि शब्दों का प्रयोग संयम के दायरे में किया जाए तो इंसान नर से नारायण बन सकता है। यदि संयम खो दिया जाए तो इंसान समाज में अपना महत्व खो देता है। अर्थात वाणी संयम हमारे जीवन के उत्थान के लिए बहुत बडा कारण बन सकता है। वाणी के संयम प्रयोग से घर में कभी कलह नहीं होती। यदि इंसान संयमित वाणी का प्रयोग करता रहे तो कठोर वचन बोलने वाले को भी लज्जित होना पडता है।

हमें केवल वाणी पर ही नहीं बल्कि इंद्रियों पर काबू पाकर खान-पान में भी संयम बरतना चाहिए क्योंकि खान-पान में शुद्धता से हमारा स्वास्थ्य ठीक रहता है। यदि स्वास्थ्य ठीक रहेगा तो हमारे आचार-विचार भी शुद्ध रहेंगे।

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।

यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।

नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।