Saturday, December 19, 2009

मां लक्ष्मी की तपस्थली बेलवन

वृंदावन मथुरा के यमुना पार स्थित जहांगीरपुरग्राम (डांगौली/ मांट)का बेलवनलक्ष्मी देवी की तपस्थलीहै। यह स्थान अत्यंत सिद्ध है। यहां लक्ष्मी माता का भव्य मंदिर है। इस स्थान पर पौषमाह में चारो ओर लक्ष्मी माता की जय जयकार की गूंज सुनाई देने लग जाती है। दूर-दराज के असंख्य श्रद्धालु यहां अपनी सुख-समृद्धि के लिए पूजा-अर्चना करने आते हैं। यहां पौषमाह के प्रत्येक गुरुवार को विशाल मेला जुडता है। प्राचीन काल में इस स्थान पर बेल के वृक्षों की भरमार थी। इसी कारण यह स्थान बेलवनके नाम से प्रख्यात हुआ। कृष्ण-बलराम यहां अपने सखाओं के साथ गायें चराने आया करते थे। श्रीमद्भागवत में इस स्थान की महत्ता का विशद् वर्णन है। भविष्योत्तरपुराण में इसकी महिमा का बखान करते हुए लिखा है: तप: सिद्धि प्रदायैवनमोबिल्ववनायच।जनार्दन नमस्तुभ्यंविल्वेशायनमोस्तुते॥

भगवान् श्री कृष्ण ने जब सोलह हजार एक सौ आठ गोपिकाओं के साथ दिव्य महारासलीला की तब माता लक्ष्मी देवी के हृदय में भी इस लीला के दर्शन करने की इच्छा हुई और वह बेलवनजा पहुंची, परंतु उसमें गोपिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था। अत:उन्हें ललिता सखी ने यह कह कर दर्शन करने से रोक दिया कि आपका ऐश्वर्य लीला से सम्बन्ध है, जबकि वृंदावन माधुर्यमयीलीला का स्थान है। अत:लक्ष्मी माता वृंदावन की ओर अपना मुख करके भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने लग गईं। भगवान् श्रीकृष्ण जब महारासलीला करके अत्यंत थक गए तब लक्ष्मी माता ने अपनी साडी से अग्नि प्रज्वलित कर उनके लिए खिचडी बनाई। इस खिचडी को खाकर भगवान् श्रीकृष्ण उनसे अत्यधिक प्रसन्न हुए।

लक्ष्मी माता ने जब भगवान् श्रीकृष्ण से ब्रज में रहने की अनुमति मांगी तो उन्होंने उन्हें सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी। यह घटना पौषमाह के गुरुवार की है। कालान्तर में इस स्थान पर लक्ष्मी माता का भव्य मंदिर स्थापित हुआ। इस मंदिर में मां लक्ष्मी वृंदावन की ओर मुख किए हाथ जोडे विराजितहैं।

साथ ही खिचडी महोत्सव आयोजित करने की परम्परा भी पडी। इसी सब के चलते अब यहां स्थित लक्ष्मी माता मंदिर में खिचडी से ही भोग लगाए जाने की ही परंपरा है। यहां पौषमाह में प्रत्येक गुरुवार को जगह-जगह असंख्य भट्टियां चलती हैं। साथ ही हजारों भक्त-श्रद्धालु सारे दिन खिचडी के बडे-बडे भण्डारे करते हैं। इस मंदिर दर्शन हेतु पौषमाह के अलावा भी वर्ष भर भक्त-श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। ब्रज चौरासी कोस की हरेक परिक्रमा भी इस स्थान पर अनिवार्य रूप से आती है।

Saturday, October 17, 2009

धनतेरस की पूजा से विशेष लाभ

धनतेरस के दिन भगवान कुबेर और लक्ष्मी की पूजा का विशेष महत्व है। इस पूजा से भगवती लक्ष्मी प्रसन्न होकर आर्थिक संपन्नता और ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। भगवान धनवंतरी का जन्मोत्सव होने के कारण इस दिन का विशेष महत्व है। आयुर्वेद के जनक भगवान धनवंतरी की पूजा-अर्चना आरोग्य प्रदान करती है। ज्योतिषाचार्य अशोक उपाध्याय पाराशर के अनुसार इस दिन संचित की गई जडी-बूटियां अमृत के समान जीवन का कायाकल्प करती हैं। धनदा त्रयोदशी जिसे धनतेरस भी कहते हैं का पर्व भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन सायंकाल में दीप दान किया जाता है तथा धनाधिपति भगवान कुबेर एवं गौरी-गणेश की पूजा श्रद्धा भाव से की जाती है। इस दिन अन्नपूर्ण स्तोत्र एवं कनकधारा स्तोत्र का पाठ करने का विधान भी है। सायंकालीन दीप दान अपमृत्यु [अकाल मृत्यु] के निर्वाणार्थ किया जाता है। इस दीप दान से पूर्वज खुश होते हैं और अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं। जैसा कि शास्त्र विदित है:- मृत्युनापाश दण्डाभ्याम् कालेन श्यामयासह, ˜योदश्याम् दीपदानात् सूर्यज: प्रीयतांमम्।। अर्थात् यमपाश से मुक्ति पितर प्रसन्नता, विपरीत भाग्य से रक्षा एवं अकाल मृत्यु से बचने हेतु धनतेरस एवं यम द्वितीया को दीप दान अवश्य करना चाहिए। इस दिन स्थित लगन में बहुमूल्य रत्न एवं धातु, जवाहरात खरीदने का विशेष महत्व है। सोना-चांदी की खरीद से घर में समृद्धि बनी रहती है तथा देवी लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं। बर्तन खरीदने की परंपरा भी रही है, लेकिन लौह पात्र या स्टेनलेस स्टील आदि के बर्तन खरीदने का कोई शास्त्र सम्मत प्रमाण नहीं मिलता। धनतेरस का महत्व इस दिन आयुर्वेद के जनक भगवान धनवंतरी की शुभ जयंती के कारण भी महत्व रखता है। करोडों दोषों एवं नवग्रह दोष से मुक्ति प्रदान करने वाला देवाधिदेव महादेव की प्रसन्नता हेतु प्रदोष व्रत भी इसी दिन रखा जाता है। लक्ष्मी की कृपा के लिए अष्टदल कमल बनाकर कुबेर, लक्ष्मी एवं गणेश जी की स्थापना कर उपासना की जाती है। इस अनुष्ठान में पांच घी के दीपक जलाकर तथा कमल, गुलाब आदि पुष्पों से उत्तर दिशा की ओर मुख करके पूजन करना लाभप्रद होता है। इसके अलावा ओम् श्रीं श्रीयै नम: का जाप करना चाहिए। इस दिन अपने इष्टदेव की पूजा एवं मंत्रजाप विशेष फलदायी होता है।

धनतेरस की पूजा से विशेष लाभ

धनतेरस के दिन भगवान कुबेर और लक्ष्मी की पूजा का विशेष महत्व है। इस पूजा से भगवती लक्ष्मी प्रसन्न होकर आर्थिक संपन्नता और ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। भगवान धनवंतरी का जन्मोत्सव होने के कारण इस दिन का विशेष महत्व है। आयुर्वेद के जनक भगवान धनवंतरी की पूजा-अर्चना आरोग्य प्रदान करती है। ज्योतिषाचार्य अशोक उपाध्याय पाराशर के अनुसार इस दिन संचित की गई जडी-बूटियां अमृत के समान जीवन का कायाकल्प करती हैं। धनदा त्रयोदशी जिसे धनतेरस भी कहते हैं का पर्व भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन सायंकाल में दीप दान किया जाता है तथा धनाधिपति भगवान कुबेर एवं गौरी-गणेश की पूजा श्रद्धा भाव से की जाती है। इस दिन अन्नपूर्ण स्तोत्र एवं कनकधारा स्तोत्र का पाठ करने का विधान भी है। सायंकालीन दीप दान अपमृत्यु [अकाल मृत्यु] के निर्वाणार्थ किया जाता है। इस दीप दान से पूर्वज खुश होते हैं और अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं। जैसा कि शास्त्र विदित है:- मृत्युनापाश दण्डाभ्याम् कालेन श्यामयासह, ˜योदश्याम् दीपदानात् सूर्यज: प्रीयतांमम्।। अर्थात् यमपाश से मुक्ति पितर प्रसन्नता, विपरीत भाग्य से रक्षा एवं अकाल मृत्यु से बचने हेतु धनतेरस एवं यम द्वितीया को दीप दान अवश्य करना चाहिए। इस दिन स्थित लगन में बहुमूल्य रत्न एवं धातु, जवाहरात खरीदने का विशेष महत्व है। सोना-चांदी की खरीद से घर में समृद्धि बनी रहती है तथा देवी लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं। बर्तन खरीदने की परंपरा भी रही है, लेकिन लौह पात्र या स्टेनलेस स्टील आदि के बर्तन खरीदने का कोई शास्त्र सम्मत प्रमाण नहीं मिलता। धनतेरस का महत्व इस दिन आयुर्वेद के जनक भगवान धनवंतरी की शुभ जयंती के कारण भी महत्व रखता है। करोडों दोषों एवं नवग्रह दोष से मुक्ति प्रदान करने वाला देवाधिदेव महादेव की प्रसन्नता हेतु प्रदोष व्रत भी इसी दिन रखा जाता है। लक्ष्मी की कृपा के लिए अष्टदल कमल बनाकर कुबेर, लक्ष्मी एवं गणेश जी की स्थापना कर उपासना की जाती है। इस अनुष्ठान में पांच घी के दीपक जलाकर तथा कमल, गुलाब आदि पुष्पों से उत्तर दिशा की ओर मुख करके पूजन करना लाभप्रद होता है। इसके अलावा ओम् श्रीं श्रीयै नम: का जाप करना चाहिए। इस दिन अपने इष्टदेव की पूजा एवं मंत्रजाप विशेष फलदायी होता है।

श्रीराम भक्ति के द्वितीय आचार्य हैं हनुमान लला

भगवान श्रीराम के चरणों में जितना अनुराग श्री हनुमान का है उतना अन्य किसी का नहीं। एकादश रुद्र के अवतार के रूप में स्वयं भगवान शिव ने श्रीराम के चरणों की सेवा की अपनी कामना को पूरा करने के लिए हनुमान के रूप में अवतार लिया। वे सदैव श्रीराम के चरणों में कैंकर्य करते हैं। वहां से विरत होने के बाद समाधिस्थ हनुमान मानसिक रूप से श्रीराम के पद पंकज की सेवा करते हैं। गोस्वामी तुलसी दास ने श्री हनुमान की श्रीराम भक्ति को इस प्रकार सम्मानित किया है। हनुमान सम नहि बड भागी, नहि कोऊ रामचरन अनुरागी। श्रीराम भक्ति की प्रथम आचार्य स्वयं माता जानकी है, उन्होंने श्री हनुमान की रामभक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें आठों प्रकार की सिद्धि व नौ निधियों के साथ-साथ श्रीराम महामंत्र प्रदान किया। इस तरह श्री हनुमान रामभक्ति के द्वितीय आचार्य हुए। उन्हें श्रीराम भक्ति का प्रथम प्रचारक होने का भी गौरव प्राप्त हैं। मानस में गोस्वामी जी ने भगवान शिव के हनुमान अवतार पर इस तरह प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं पुरखा ते सेवक भये, हर ते भये हनुमान। अखिल भारतीय षड्दर्शन अखाड परिषद अध्यक्ष महंत ज्ञानदास कहते हैं किभगवान श्रीराम ने धरा धाम पर अपनी समस्त शक्तियों सहित अवतार लिया। स्वयं ब्रह्मा जामवन्त के रूप में अवतरित हुए जबकि हनुमान जी स्वयं शिव के अवतार हैं। उन्होंने कहा कि श्रीराम हमेशा शिव की पूजा करते रहते थे इससे शिव के मन श्रीराम चरणों के पूजन की जो इच्छा शेष थी, उसे उन्होंने श्री हनुमान के रूप में पूरा किया। इस प्रकार श्री हनुमान द्वारा प्रचारित श्रीराम भक्ति से आज संपूर्ण विश्व आलोकित हैं। श्रीराम महामंत्र हनुमान जी से श्री ब्रह्मा, वशिष्ठ, पाराशर, व्यास, शुकदेव, बोधायनाचार्य आदि से होकर रामानंदाचार्य तक पहुंचा। उन्होंने कबीर, रैदास, दादू आदि अपने द्वादश शिष्यों के जरिये श्रीराम भक्ति को जाति-पांति के बंधनों से मुक्त कर आम जन तक पहुंचाया। अखिल भारतीय त्रय अनी अखाडों के प्रधानमंत्री माधव दास कहते हैं कि हनुमानगढी में विराजमान हनुमानजी स्वयं श्रीराम द्वारा स्थापित हैं। चौकी हनुमत बीर के रूप में श्रीराम द्वारा स्थापित यह पीठ भक्तों के सदैव श्री हनुमान का साक्षात वास होने का अनुभव कराती है। जब तक धरा धाम पर रामनाम व रामायण रहेगी तब तक श्री हनुमान हनुमानगढी में साक्षात वास कर भक्तों के मनोरथों को पूरा करेंगे।

Monday, October 12, 2009

राधाकुंड पुण्य प्रदाता

ब्रजमंडलमें भगवान श्रीकृष्ण और भगवती राधा की लीलाओं के अनेक स्थान हैं। उनमें राधा-कुंड की बडी चर्चा और महिमा सुनने को मिलती है। वैसे, यहां साल भर तीर्थयात्री आते रहते हैं, लेकिन कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी की अ‌र्द्धरात्रि में हजारों लोग बडी श्रद्धा से उसमें स्नान करते हैं। मान्यता है कि कार्तिक-कृष्ण-अष्टमी की मध्यरात्रि में ही राधाकुंडबना था। राधा का परिहास कहते हैं कि द्वापर युग में कंस ने वृष [सांड] रूपधारीअरिष्टासुरको श्रीकृष्ण का वध करने के लिए गोकुल भेजा था। भला भगवान को कौन मार सकता है, उल्टे श्रीकृष्ण ने ही अरिष्टासुरको मार डाला। अरिष्टासुरका वध करने के बाद जब योगेश्वर श्रीकृष्ण रात्रि में रासलीला के लिए निकुंज पहुंचे, तब गोपियों से घिरीं राधाजीने उनसे परिहास किया, आज तुमने एक सांड [गोवंश] की हत्या की है, इसलिए तुम्हें गोहत्या का पाप लगा है। पृथ्वी के सभी तीर्थो में स्नान करने के बाद ही तुम दोष-मुक्त हो सकोगे। तुम्हारे शुद्ध होने पर ही हम लोग तुम्हारे साथ रासलीला में भाग लेंगे। इस पर श्रीकृष्ण बोले, मैं ब्रज छोडकर अन्यत्र कहीं नहीं जाऊंगा। मैं सभी तीर्थो को ब्रज में बुला लेता हूं। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अपने पैर की एडी की चोट से एक विशाल कुंड का निर्माण किया और उसमें पृथ्वी के सब तीर्थो का आह्वान किया।

कहते हैं कि सभी तीर्थ जल रूप में उस कुंड में प्रवेश कर गए। तीर्थो के निर्मल जल से परिपूर्ण वह कुंड श्यामकुंड के नाम से प्रसिद्ध हो गया। श्रीकृष्ण उस कुंड में स्नान करके राधारानीके सामने इठलाते हुए पहुंचे, तो वे तुनककर सखियों के साथ पास में ही अपने हाथ के कंगन की सहायता से एक अन्य कुंड बनाने में जुट गई।

राधारानीका कुंड तैयार हो गया, लेकिन उसमें जल न था। सरोवर में पानी भरने के लिए उन्होंने सखियों के साथ ब्रज के अन्य जलाशयों से पानी लाने का विचार किया। इधर श्यामकुंडमें उपस्थित तीर्थो के हृदय में यह भावना उठी कि उन्हें राधाजीके बनाए कुंड में भी स्थान मिल जाए, तभी ब्रज में उनका आगमन सार्थक होगा। भगवान श्रीकृष्ण तीर्थो की मनोकामना जान गए। उन्होंने तीर्थो को इसकी अनुमति मांगने के लिए राधाजीसे स्वयं प्रार्थना करने को कहा। तीर्थो की आराधना से प्रसन्न होकर भगवती राधा ने उन्हें अपने कुंड में आने की अनुमति दे दी। करुणामयी देवी की स्वीकृति पाते ही आनन-फानन में सभी तीर्थ श्यामकुंडकी सीमा तोडकर राधाकुंड में प्रवेश पा गए। श्यामकुंडकी तरह राधाकुंडभी सब तीर्थो के जल से भर गया। कालीखेतऔर गौरीखेत द्वापरयुगमें बने राधाकुंडऔर श्यामकुंडश्रीकृष्ण के द्वारकाजाने के बाद लुप्त हो गए। उनके प्रपौत्र [परपोते] महाराज वज्रनाभने शांडिल्य ऋषि के मार्गदर्शन में इन कुंडों का उद्धार किया, लेकिन कालान्तर में ये दोनों कुंड पुन:लुप्त हो गए। आज से 493वर्ष पूर्व विक्रम संवत 1573में जब श्रीचैतन्यमहाप्रभु ब्रजमंडलकी यात्रा करते हुए यहां पधारे, तब उन्होंने स्थानीय लोगों से इन दोनों कुंडों के बारे में पूछा।

ग्रामीणों ने उन्हें बताया कि यहां कालीखेतएवगौरीखेतहैं, जहां कुछ जल है। कहा जाता है कि महाप्रभु ने अपनी दिव्यदृष्टि से देखा, तो पहचान गए कि कालीखेतश्यामकुंडऔर गौरीखेतराधाकुंडहैं। चैतन्य महाप्रभु के निज धाम जाने के बाद जगन्नाथपुरीसे श्रीरघुनाथदासगोस्वामी राधाकुंडआकर भजन करने लगे। एक समय मुगल सम्राट अकबर अपनी सेना के साथ इस रास्ते से कहीं जा रहे थे। सैनिक और जानवर बहुत प्यासे थे। बादशाह ने गोस्वामी जी से पानी के विषय में पूछा, तो उन्होंने कालीखेतऔर गौरीखेतकी ओर इशारा किया। अकबर ने वहां देखा, तो उसे लगा कि इतने छोटे सरोवरों से उसकी सेना की प्यास नहीं बुझ सकेगी। यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि संपूर्ण सेना और जानवरों के पानी पी लेने के बाद भी इसमें जल का स्तर जरा भी नहीं गिरा। आहा वोही राधाकुंडके निर्माण के समय राधारानीके साथ जुटी गोपियों ने उत्साहित होकर मुख से आहा वोहीशब्द का उच्चारण किया, जो बाद में अपभ्रंशहोकर अहोई बोला जाने लगा। राधाकुंडका निर्माण कार्तिक-कृष्ण-अष्टमी की अ‌र्द्धरात्रि में होने के कारण यह तिथि अहोई अष्टमी कहलाई। इसका दूसरा नाम बहुला अष्टमी भी है। राजसूय यह कुंड भगवान कृष्ण को भी अतिप्रियहै।

Saturday, October 3, 2009

कौन जाग रहा है?

मानव सदा से ही भगवती लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। माना जाता है कि लक्ष्मी जी धन-संपत्ति-ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री हैं। सांसारिक जीवन के सभी कामों में हमें उनकी अनुकंपा की आवश्यकता पडती है, इसीलिए प्रत्येक गृहस्थ अपने घर में उनके आगमन की कामना रखता है।

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, शरद ऋतु में आश्विन माह की पूर्णिमा की रात में विष्णुप्रियालक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करती हैं और यह देखती हैं कि कौन उनका स्वागत करने के लिए जाग रहा है। जिस घर में उनके स्वागत के लिए रात्रि-जागरण, स्मरण, पूजन-संकीर्तन हो रहा होता है, वहां वे प्रसन्न होकर सुख-समृद्धि का वरदान देकर वैकुंठ वापस लौट जाती हैं।

भगवती लक्ष्मी के द्वारा कौन जाग रहा है? यह पूछे जाने के कारण शरद पूर्णिमा को कोजागरी नाम मिल गया और इस दिन लक्ष्मी के निमित्त व्रत-पूजन करने और रात भर जागने का विधान बन गया। इस वर्ष 3अक्टूबर को शरद पूर्णिमा का व्रत रखा जाएगा और रात में कोजागरीपर्व मनाया जाएगा। लक्ष्मी का आह्वान भक्तगण प्रात:काल स्नान करने के बाद उत्तर दिशा की ओर मुख करके ऐरावत हाथी पर आरूढ भगवती लक्ष्मी का देवराज इंद्र सहित आह्वान और पूजन करें। दिन भर उपवास रखें और सूर्यास्त हो जाने के बाद रात्रि में लक्ष्मी की मूर्ति या चित्र के सामने देशी घी का अखंड दीपक जलाएं, जो रात भर ठीक से जलता रहे। यदि साम‌र्थ्य हो, तो देवालयों [मंदिरों], बाग-बगीचों, तुलसी, आंवला, बेल और पीपल के पेडों के नीचे भी दीपक रखें। स्वयं सफेद वस्त्र पहनें और देवताओं की मूर्तियों को श्वेत वस्त्र और मोती के आभूषण धारण करवाएं। घर की अच्छी तरह सफाई करें, क्योंकि देवी लक्ष्मी को स्वच्छता पसंद है।

भगवती को शोर-शराबे से भी चिढ है, इसलिए वे कलह-क्लेश वाले स्थान पर भी नहीं ठहरती हैं। जिस घर में रोज लडाई-झगडा होता हो, वहां लक्ष्मीजीकभी प्रवेश नहीं करती हैं। सर्वसुखप्रदान करने वाली देवी को शांति इतनी प्रिय है कि इनके पूजन में घंटा बजाना तक मना है। जिस परिवार में स्त्रियों पर अत्याचार होता है, लक्ष्मीजीउससे विमुख हो जाती हैं। इसलिए आप जान लें कि यदि आप लक्ष्मीजीका आह्वान अपने घर में करना चाहते हैं, तो आपके यहां स्वच्छता, शांति और परस्पर सौहार्द होना बहुत जरूरी है। लक्ष्मी-मंत्र का जाप यदि संभव हो, तो शरद पूर्णिमा की रात्रि में जागकर लक्ष्मी-मंत्र का अधिकाधिक जप या श्रीसूक्त का पाठ करें। कमलगट्टेकी माला पर लक्ष्मी-मंत्र जपने से शीघ्र फल मिलता है। तंत्र ग्रंथों में उनके कईमंत्रोंका उल्लेख मिलता है, लेकिन कोजागरी में इस मंत्र का प्रयोग प्रभावकारी सिद्ध हुआ है-

ॐश्रींह्रींक्लींश्रींलक्ष्मीरागच्छागच्छमम मंदिरेतिष्ठतिष्ठस्वाहा। माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि से प्रारंभ करके इस मंत्र का नित्य जाप करते रहने से आर्थिक समस्या दूर होती है और वित्तीय स्थिति में सुधार आता है। खीर का भोग शरद पूर्णिमा की रात में माता को गाय के दूध से बनी खीर का भोग लगाया जाता है। खीर का भोग कोजागरीकी लक्ष्मी-पूजा का अनिवार्य अंग है। मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की चांदनी में अमृत का अंश होता है, इसलिए खीर को रात भर चांदनी में रखकर सुबह उसे प्रसाद-स्वरूप ग्रहण किया जाता है। आयुर्वेद के ग्रंथों में भी इसकी चांदनी के औषधीय महत्व का वर्णन मिलता है। अनेक असाध्य रोगों की दवाएं इस खीर के साथ खिलाई जाती हैं। अमृतकाल शरद् ऋतु की पूर्णिमा में अमृतकाल की अवधि में ही चांदनी में अमृत समाविष्ट होता है। हमारी गणना के अनुसार, इस वर्ष अमृतकाल शनिवार की रात्रि में 11.31बजे से शुरू होकर रात भर रहेगा। कोजागरीकी लक्ष्मी-पूजा का उद्देश्य स्वास्थ्य और समृद्धि की प्राप्ति है। इसकी जितनी प्रासंगिकता प्राचीनकाल में थी, उतनी ही आज के आधुनिक युग में भी है।

Tuesday, September 29, 2009

प्राचीन देवी मंदिर में पूरी होती है मनोकामना

डासना स्थित प्राचीन देवी मंदिर में आज तक जो भी श्रद्धा के साथ माई के दरबार में गया वह खाली हाथ वापस नहीं आया। क्षेत्रीय लोगों व मंदिर के महंत का दावा है कि मंदिर के पास स्थित तालाब में नहाने से चर्मरोग दूर हो जाता है।

शारदीय नवरात्रके अवसर पर मंदिर में नौ दिवसीय शतचंडी यज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। इस यज्ञ में देश के 11अखाडों के धर्म प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे। मंदिर के महंत का दावा है कि देवी चंडी की पूजा मुगल काल से चली आ रही है। मुगलों शासक ने मंदिर पर हमला बोल दिया गया था। उस दौरान मंदिर के सेवादार ने देवी की मूर्ति तालाब में डाल दिया था। देवी मंदिर के पास में ही महाभारत काल का बना हुआ शिवमंदिर भी मौजूद है।

गाजियाबाद से आठ किमी दूर हापुड रोड पर जेल रोड से दक्षिण दिशा में डासना कस्बे में चंडी देवी का मंदिर है। देवी की मूर्ति कसौटी पत्थर से निर्मित है। बताया जाता है कि इस तरह की मूर्ति उत्तर भारत में अकेली प्रतिमा है। मंदिर के महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती का दावा है कि देश में इस तरह कसौटी पत्थर की तीन व पाकिस्तान में एक प्रतिमा हैं। कलकत्ता के दक्षिणेश्वरकाली मां की प्रतिमा, गोहाटी में कामाख्यादेवी, डासना में काली मां की व पाकिस्तान में इंग्लाजदेवी की मूर्ति कसौटी पत्थर की बनी है।

स्थानीय श्रद्धालुओं का दावा है कि मंदिर में प्रतिमा को जितनी बार निहारा जाता है प्रतिमा की भाव भंगिमा बदली नजर आती है। बताया जाता है कि मुगल शासकों ने हमले के दौरान मंदिर को नष्ट कर दिया था। तत्कालीन मंदिर के पुजारी ने देवी प्रतिमा को तालाब में डूबो दिया था।

कई सालों के बाद मंदिर में जगद्गिरि महाराज ने तपस्या की थी। एक दिन स्वप्न में देवी ने जगद्गिरि को स्वप्न में आदेश दिया कि मुझे तालाब से निकाल कर मंदिर में प्रतिष्ठापित करो। श्री गिरि ने स्वप्न टूटते ही तालाब से प्रतिमा निकालकर मंदिर में प्रतिष्ठापित किया था। कई वर्षो के बाद मौनी बाबा व ब्रम्हानंदसरस्वती ने मंदिर के जीर्णोद्धार में विशेष सहयोग किया था। एक मान्यता यह भी है कि पाडंवोंने अज्ञातवास के दौरान मंदिर में समय व्यतीत किया था। पांडव काल का शिव मंदिर भी मौजूद है।

मंदिर के पुजारी स्वामी केशवानंदका दावा है कि मंदिर के निर्माण के समय घना जंगल था। मंदिर के पास तालाब में एक शेर प्रतिदिन पानी पीने आता था। पानी पीने के बाद शेर बिना किसी को कोई हानि पहुंचाए देवी प्रतिमा के सामने कुछ देर तक बैठने के बाद वापस चला जाता था। बताया जाता है कि शेर ने अपने प्राण मंदिर में त्याग दिए थे। उसकी मौत के बाद देवी प्रतिमा के सामने शेर की प्रतिमा बनाई गई, जो आज भी मौजूद है।

मंदिर के महंत का दावा है कि देवी भक्तों द्वारा दी गई सात्विक पूजा स्वीकार करती हैं। तांत्रिक पूजा नहीं स्वीकार करती हैं। नवरात्रके अवसर पर आज भी कई प्रांतों के लोग देवी दर्शन के लिए मंदिर में पहुंचते हैं। मंदिर के पास ही रामलीला का मंचन भी किया जाता है। वर्तमान में तालाब उपेक्षित होने के कारण कमल, कुमुदनीव जंगली घासों से अटा हुआ है।

Friday, September 18, 2009

ग्रह-नक्षत्र का प्रभाव

हमारा शरीर ब्रह्मांड का ही एक अंश है। शास्त्रों में कहा गया है कि यत पिंडेतत ब्रह्मांडे।यह शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है। जिन तत्वों से शरीर बना है, उन्हीं तत्वों से पशु-पक्षी, पेड-पौधे, ग्रह-नक्षत्र भी बने हैं।

संपूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य, सौरमंडल, सैकडों सूर्यो से बनी नीहारिकाएंऔर नीहारिकाओंसे बनी आकाशगंगा भी आती है। सौरमंडल अनेक ग्रहों से बना है। हमारी पृथ्वी सूर्यमंडल का एक छोटा अंश है। पृथ्वी सूर्यमंडल के एक कोने में है और सूर्य की परिक्रमा कर शक्ति संग्रह करती है। इसलिए इस पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक जीव पर स्वभाविकरूप से ग्रह-नक्षत्र का गहरा प्रभाव पडता है।

प्राय: ऐसा कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति को शनिचराग्रह लगा हुआ है या शनि की साढेसाती लगी हुई है। इसका अर्थ है कि सूर्यमंडल का एक प्रभावशाली ग्रह शनि पृथ्वी के मनुष्य को प्रभावित कर रहा है।

यह खोज हमारे ऋषि-मुनियों की है। विज्ञान कहता है कि पृथ्वी के केंद्र में मैग्नेटिकऔर फेरसऑक्साइडहै, जिसके कारण उसमें गुरुत्वाकर्षण है। इसका सीधा अर्थ यह है कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति की वजह से मनुष्य का शरीर प्रतिक्षण प्रभावित होता रहता है। इस दृष्टि से मनुष्य सीधे सूर्य से प्रभाव ग्रहण करता है।

हम जो सांस लेते हैं, वह ऑक्सीजनहमें परोक्ष रूप से सूर्य से ही प्राप्त होती है, क्योंकि सूर्य से ऊर्जा लेकर ही पेड-पौधे ऑक्सीजनका निर्माण करते हैं। सूर्योदय होते ही पूरा वातावरण ऑक्सीजन,नाइट्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइडसे भर जाता है। वातावरण में अनुमानत:41प्रतिशत ऑक्सीजन,4प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइडऔर 55प्रतिशत नाइट्रोजन रहती है। नाइट्रोजन को हम फलों-सब्जियों के माध्यम से ग्रहण करते हैं। प्रात:काल में ऑक्सीजनअधिक रहती है, जिसमें प्राण तत्व मौजूद रहता है। इसके अलावा, वातावरण में अशुद्ध वायु के रूप में निगेटिव ऊर्जा भी रहती है, जिससे मनुष्य बीमार पड जाता है।

श्रीराम ने किया नवरात्र व्रत

मान्यता है कि शारदीय नवरात्रमें महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई। इसलिए इस समय आदिशक्तिकी आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। किष्किंधामें चिंतित श्रीराम रावण ने सीता का हरण कर लिया, जिससे श्रीराम दुखी और चिंतित थे। किष्किंधापर्वत पर वे लक्ष्मण के साथ रावण को पराजित करने की योजना बना रहे थे। उनकी सहायता के लिए उसी समय देवर्षिनारद वहां पहुंचे। श्रीराम को दुखी देखकर देवर्षिबोले, राघव! आप साधारण लोगों की भांति दुखी क्यों हैं? दुष्ट रावण ने सीता का अपहरण कर लिया है, क्योंकि वह अपने सिर पर मंडराती हुई मृत्यु के प्रति अनजान है। देवर्षिनारद का परामर्श रावण के वध का उपाय बताते हुए देवर्षिनारद ने श्रीराम को यह परामर्श दिया, आश्विन मास के नवरात्र-व्रतका श्रद्धापूर्वकअनुष्ठान करें। नवरात्रमें उपवास, भगवती-पूजन, मंत्र का जप और हवन मनोवांछित सिद्धि प्रदान करता है। पूर्वकाल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश और देवराज इंद्र भी इसका अनुष्ठान कर चुके हैं। किसी विपत्ति या कठिन समस्या से घिर जाने पर मनुष्य को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। महाशक्ति का परिचय

नारद ने संपूर्ण सृष्टि का संचालन करने वाली उस महाशक्ति का परिचय राम को देते हुए बताया कि वे सभी जगह विराजमान रहती हैं। उनकी कृपा से ही समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं। आराधना किए जाने पर भक्तों के दुखों को दूर करना उनका स्वाभाविक गुण है। त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनकी दी गई शक्ति से सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करते हैं। नवरात्रपूजा का विधान देवर्षिनारद ने राम को नवरात्रपूजा की विधि बताई कि समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को विराजमान कर दें। नौ दिनों तक उपवास रखते हुए उनकी आराधना करें। पूजा विधिपूर्वक होनी चाहिए। आप के इस अनुष्ठान का मैं आचार्य बनूंगा।

राम ने नारद के निर्देश पर एक उत्तम सिंहासन बनवाया और उस पर कल्याणमयीभगवती जगदंबा की मूर्ति विराजमान की। श्रीराम ने नौ दिनों तक उपवास करते हुए देवी-पूजा के सभी नियमों का पालन भी किया। जगदंबा का वरदान मान्यता है कि आश्विन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि की आधी रात में श्रीराम और लक्ष्मण के समक्ष भगवती महाशक्ति प्रकट हो गई। देवी उस समय सिंह पर बैठी हुई थीं। भगवती ने प्रसन्न-मुद्रा में कहा- श्रीराम! मैं आपके व्रत से संतुष्ट हूं।

जो आपके मन में है, वह मुझसे मांग लें। सभी जानते हैं कि रावण-वध के लिए ही आपने पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में अवतार लिया है। आप भगवान विष्णु के अंश से प्रकट हुए हैं और लक्ष्मण शेषनाग के अवतार हैं। सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, जो युद्ध में आपके सहायक होंगे। इन सबमेंमेरी शक्ति निहित है। आप अवश्य रावण का वध कर सकेंगे। अवतार का प्रयोजन पूर्ण हो जाने के बाद आप अपने परमधाम चले जाएंगे। इस प्रकार श्रीराम के शारदीय नवरात्र-व्रतसे प्रसन्न भगवती उन्हें मनोवांछित वर देकर अंतर्धान हो गई।

Tuesday, September 8, 2009

कलियुग में काली-उपासना

मान्यता है कि प्राणियों का दुख दूर करने के लिए देवी भगवती निराकार होकर भी अलग-अलग रूप धारण कर अवतार लेती हैं। देवी ही सत्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का आश्रय लेती हैं और संपूर्ण विश्व का सृजन, पालन और संहार करती हैं। काल पर भी शासन करने के कारण महाशक्ति काली कहलाती हैं। अवतार की कथाएं कालिकापुराणमें काली-अवतार की कथा है। इसके अनुसार, एक बार देवगण हिमालय पर जाकर देवी की स्तुति करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवती ने उन्हें दर्शन दिया और उनसे पूछा-तुम लोग किसकी स्तुति कर रहे हो? तभी देवी के शरीर से काले पहाड जैसे वर्ण वाली दिव्य नारी प्रकट हो गई। उस तेजस्विनी स्त्री ने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया-ये लोग मेरी ही स्तुति कर रहे हैं। उनका रंग काजल के समान काला था, इसलिए उनका नाम काली पड गया।

लगभग इसी से मिलती-जुलती कथा मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा-सप्तशती में भी मिलती है। शुम्भ-निशुम्भनामक दो दैत्य थे। उनके उपद्रव से पीडित होकर देवताओं ने महाशक्ति का आह्वान किया, तब पार्वती की देह से कौशिकीप्रकट हुई, जिनके अलग होते ही देवी का स्वरूप काला हो गया। इसलिए शिवप्रियापार्वती काली नाम से विख्यात हुई। आराधना तंत्रशास्त्रमें कहा गया है- कलौ काली कलौकाली नान्यदेव कलौयुगे।कलियुग में एकमात्र काली की आराधना ही पर्याप्त है। साथ ही, यह भी कहा गया है-कालिका मोक्षदादेवि कलौशीघ्र फलप्रदा।मोक्षदायिनीकाली की उपासना कलियुग में शीघ्र फल प्रदान करती है। शास्त्रों में कलियुग में कृष्णवर्ण [काले रंग] के देवी-देवताओं की पूजा को ही अभीष्ट-सिद्धिदायक बताया गया है, क्योंकि कलियुग की अधिष्ठात्री महाशक्ति काली स्वयं इसी वर्ण [रंग] की हैं। माना जाता है कि काली का रूप रौद्र है। उनके दांत बडे हैं। वे अपनी चार भुजाओं में क्रम से खड्ग, मुंड, वर और अभय धारण करती हैं। शिव की पत्नी काली के गले में नरमुंडोंकी माला है। हालांकि उनका यह रूप भयानक है, लेकिन कई ग्रंथों में उनके अन्य रूप का भी वर्णन है। भक्तों को जगदंबा का जो रूप प्रिय लगे, वह उनका उसी रूप में ध्यान कर सकता है। बनें पुत्र तंत्रशास्त्रकी दस महाविद्याओंमें काली को सबसे पहला स्थान दिया गया है, लेकिन काली की साधना के नियम बहुत कठोर हैं। इसलिए साधक पहले गुरु से दीक्षा लें और मंत्र का सविधि अनुष्ठान करें। यह सभी लोगों के लिए संभव नहीं है, इसलिए ऐसे लोग काली को माता मानकर पुत्र के रूप में उनकी शरण में चले जाएं। जो व्यक्ति जटिल मंत्रों की साधना नहीं कर पाते हों, वे सिर्फ काली नाम का जप करके उनकी अनुकंपा प्राप्त कर सकते हैं। टलते हैं संकट मान्यता है कि आज के समय में कठिन परिस्थितियों से सामना करने में काली अपने भक्तों की सहायता करती हैं। आज मनुष्य अपने को सब तरफ से असुरक्षित महसूस कर रहा है। काली माता का ध्यान करने से उनके मन में सुरक्षा का भाव आता है। उनकी अर्चना और स्मरण से बडे से बडा संकट भी टल जाता है। हम सभी मिलकर उनसे यह प्रार्थना करें कि वे अभाव और आतंक-स्वरूप असुरों का नाश कर मानवता की रक्षा करें। काली जयंती तंत्रग्रंथोंके अनुसार साधक आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन काली-जयंती मनाते हैं, लेकिन कुछ विद्वानों के विचार से जन्माष्टमी [भाद्रपद-कृष्ण-अष्टमी] काली की जयंती-तिथि है।

Sunday, September 6, 2009

सालासर के बालाजी

राजस्थान के चुरूजिले में स्थित है सालासर बालाजीका मंदिर। जयपुर बीकानेर सडक मार्ग पर स्थित सालासर धाम हनुमान भक्तों के बीच शक्ति स्थल के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर में अगाध आस्था है भक्तों की। आपको यहां हर दिन हजारों की संख्या में देशी-विदेशी भक्त मत्था टेकने के लिए कतारबद्ध खडे दिखाई देंगे।

जयपुर से लगभग 2घंटे के सफर के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। यहां हनुमानजी की वयस्क मूर्ति स्थापित है, इसलिए भक्तगण इसे बडे हनुमान जी पुकारते हैं। एक कथा के अनुसार, राजस्थान के नागौर जिले के एक छोटे से गांव असोतामें संवत 1811में शनिवार के दिन एक किसान का हल खेत की जुताई करते समय रुक गया। दरअसल, हल किसी शिला से टकरा गया था। वह तिथि श्रावण शुक्ल नवमी थी।

उसने उस स्थान की खुदाई की, तो मिट्टी और बालू से ढंकी हनुमान जी की प्रतिमा निकली। किसान और उसकी पत्नी ने इसे साफ किया और घटना की जानकारी गांव के लोगों को दी। माना जाता है कि उस रात असोताके जमींदार ने रात में स्वप्न देखा कि हनुमानजी कह रहे हैं कि मुझे असोतासे ले जाकर सालासारमें स्थापित कर दो। ठीक उसी रात सालासर के एक हनुमान भक्त मोहनदासको भी हनुमान जी ने स्वप्न दिया कि मैं असोतामें हूं, मुझे सालासर लाकर स्थापित करो। अगली सुबह मोहनदासने अपना सपना असोताके जमींदार को बताया। यह सुनकर जमींदार को आश्चर्य हुआ और उसने बालाजी[हनुमान जी] का आदेश मानकर प्रतिमा को सालासर में स्थापित करा दिया। धीरे-धीरे यह छोटा सा कस्बा सालासर धाम के नाम से विख्यात हो गया।

मंदिर परिसर में हनुमान भक्त मोहनदासऔर कानी दादी की समाधि है। यहां मोहनदासजी के जलाए गए अग्नि कुंड की धूनी आज भी जल रही है। भक्त इस अग्नि कुंड की विभूति अपने साथ ले जाते हैं। मान्यता है कि विभूति सारे कष्टों को हर लेती है। पिछले बीस वर्षो से यहां पवित्र रामायण का अखंड कीर्तन हो रहा है, जिसमें यहां आने वाला हर भक्त शामिल होता है और बालाजीके प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। चैत्र पूर्णिमा और आश्विन पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां बहुत बडा मेला लगता है।

Saturday, August 29, 2009

SUNDAY (30.08.2009) :- 7*27 बरसाने में बजत बधाई, रानी कीरत कन्या जाई..

ब्रषभान दुलारी लाडली जू राधे जन्मी तो मानों प्रकृति भी दर्शन को उतर आई हो, पहले रिमझिम बारिश फिर बादलों की ओट से एक पल सूर्य देव ने लालिमा बिखेर उस क्षण को और अलौकिक कर दिया। भोर में राधे ने जैसे ही जन्म लिया, चहुंओर बधाई की गूंज से समूचा बरसाना चहक उठा। लाडलीजी के जन्म की खुशी में खजाना लुटाया गया। हर कोई झूम उठा। राधे की झलक पाकर हर कोई धन्य हो रहा था। श्रीजी की नगरी बरसाना में गुरुवार को कृष्ण प्रिय आदि शक्ति राधे के जन्मोत्सव पर नजारा भव्य और दिव्य था। भानगढ पर झिलमिलाते श्रीजी मंदिर में हर कोई श्रद्धालु रात से ही राधाजी के जन्म के दर्शन कर अपने को धन्य करने को आतुर था। श्रद्धालु पलकें बिछाए ब्रषभान दुलारी के जन्म के इंतजार में मंदिर की देहरी पर ही इंतजार कर रहे थे। बेताबी में तमाम श्रद्धालु मंदिर परिसर में लोकगीत और धार्मिक भजन-कीर्तन कर श्रद्धालु थिरकते, मटकते, इतराते, इठलाते राधे का गुणगान कर इंतजार की घडियों को कम कर रहे थे। जैसे ही घडी की सुई चार बजकर बीस मिनट पर पहुंची जोश के साथ श्रीराधारानी की जय, लाडली जू की जय के जयकारे भानगढ, दानगढ और मानगढ में गूंजने लगे। मंदिर के पट खुले। मंदिर में पैर रखने तक को जगह नहीं बची। खचाखच भरने से बार-बार मंदिर के मुख्य द्वार को बंद करना पड गया। श्रद्धालु एक टकटकी लगाए श्रीजी का अभिषेक होते देखकर अपने को धन्य कर रहे थे। श्रीविग्रह का पंचामृत से अभिषेक कर रहे थे, पुजारी लक्खो गुसांई व अन्य साथ दे रहे थे। मधुमंगल गुसांई, नित्य गोपाल, अमित गोस्वामी, यश गोस्वामी, सत्य नारायण मधु,प्रिया शरण, कृष्ण गोपाल तीर्थ गोस्वामी। तभी श्रंगार से सजी धजीं देश के कोने-कोने से श्रीजी की नगरी में पहुंचीं सखियां ढोल की थाप पर बजते गायन-बरसाने में बजत बधाई, रानी कीरत कन्या जाई..पर जमकर और झूमकर नाचीं। प्रकृति भी श्रीजी के दर्शन को जैसे उतर आई हो। बादलों ने रिमझिम कर वातावरण खुशगवार कर दिया। हर ओर खुशी में बधाईयां देकर नाचने और गाने का सिलसिला सुबह सात बजे तक खूब चला। कैलाश चंद मोदी सुबह 11 बजे मंदिर पर चाव [उपहार की डलिया] लेकर पहुंचे। शाम को भव्य डोला के साथ श्रीजी के विग्रह को लेकर गोस्वामी समाज और मंदिर के सेवायत चौक पर लेकर आए। यहां उनके दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं का सैलाब उमडता रहा। करीब सात बजे पुन: श्रीजी को ऊपर मूल मंदिर में विराजमान करने के लिए ले गये। इससे पहले श्रीजी मंदिर के साथ-साथ मान मंदिर में विरक्त संत रमेश बाबा ने श्रीराधे का जन्मोत्सव अभिषेक कर धूमधाम से मनाया गया। रंगली महल में कृपालु महाराज के सान्निध्य में पुजारियों ने महल मंदिर में श्रीराधारानी के विग्रह का अभिषेक किया। इसके बाद श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरण किया गया।

श्रीकृष्ण तक पहुंचने का मार्ग हैं राधा

भगवान श्रीकृष्ण को समझने और पाने के लिए युगों-युगों से ऋषि-मुनि, संत-विद्वान भगवती राधा का आश्रय लेते रहे हैं। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण के प्रेम-रस का पान करने और भक्तों को कराने के लिए कवि भी राधा-भाव ग्रहण करने की कोशिश करते रहे हैं। सदा से श्रीराधाही श्रीकृष्ण-प्रेम के भजनों की प्रेरणास्त्रोत रही हैं।

श्रीकृष्ण की भक्ति, प्रेम और श्रृंगार रस की त्रिवेणी जब हृदय में प्रवाहित होती है, तब मन तीर्थराज बन जाता है। सत्यम्- शिवम्-सुंदरम्का यह महाभावही राधाभाव कहलाता है। श्रीकृष्ण हैं आनंदघन वैष्णवों के लिए श्रीकृष्ण परम आराध्य हैं। वे श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानते हैं। संत जन यह जानते हैं कि श्रीकृष्ण ही परमपुरुष और आनंदघनहैं।

आनंद ही उनका स्वरूप है। श्रीकृष्ण ही मूर्तिमान आनंद हैं। इसलिए आनंदघनभगवान श्रीकृष्ण की उपासना मात्र वैष्णवों के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए आनंददायक है। प्रत्येक प्राणी जन्म से मृत्यु तक प्रतिक्षण आनंद की तलाश में रहता है, क्योंकि आनंद के सिवा अन्य कोई चीज उसके लिए दुर्लभ नहीं है।

आनंद किसे कहते हैं? आनंद कहां है? और वह आनंद कैसे मिल सकता है? ये बातें आम आदमी नहीं जान पाता है। वह सांसारिक विषयों में आनंद खोजता है, लेकिन वहां से उसे आनंद नहीं मिलता। अनेक जन्मों के पुण्यकर्मोका फल संचित होने पर ही प्राणी यह मर्म जान पाता है कि श्रीकृष्ण ही आनंद का मूर्तिमान स्वरूप हैं। सद्गुरु की कृपा और सत्संग से इस रहस्य के उजागर होते ही मनुष्य की जन्म-जन्मांतर की जिज्ञासा शांत हो जाती है। तब उसके समक्ष यह प्रश्न आता है कि आनंदघनश्रीकृष्ण को पाया कैसे जाए? ऐसी स्थिति में प्राणी कृष्ण-प्रेम की अधिष्ठात्री भगवती राधा की शरण लेता है।

यह ध्यान रखिए कि जहां आनंद है, वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है, वहीं आनंद है। आनंद बिना प्रेम के नहीं होता और प्रेम बिना आनंद नहीं होता।

जिस प्रकार श्रीकृष्ण आनंद का घनीभूत विग्रह हैं, उसी तरह राधाजीप्रेम की घनीभूत मूर्ति हैं। इसलिए जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं राधा हैं और जहां राधा हैं, वहीं श्रीकृष्ण हैं। कृष्ण बिना राधा या राधा बिना कृष्ण की कल्पना के संभव नहीं हैं। इसी कारण श्रीराधामहाशक्ति कहलाती हैं। राधिका हैं राधा श्रीराधोपनिषदमें राधा का परिचय देते हुए कहा गया है- कृष्ण इनकी आराधना करते हैं, इसलिए ये राधा हैं और ये सदा कृष्ण की आराधना करती हैं, इसीलिए राधिका कहलाती हैं। ब्रज की गोपियां और द्वारकाकी रानियां इन्हीं श्रीराधाकी अंशरूपाहैं। ये राधा और ये आनंद-सागर श्रीकृष्ण एक होते हुए भी क्रीडा [लीला] के लिए दो हो गए हैं। श्रीराधिकाश्रीकृष्ण की प्राण हैं। इन राधा रानी की अवहेलना करके जो श्रीकृष्ण की भक्ति करना चाहता है, वह उन्हें कभी पा नहीं सकता। श्रीकृष्ण की आत्मा अथर्वेदीयराधिकातापनीयोपनिषत्का भी कहना है कि श्रीराधिकाजी और आनंदसिंधुश्रीकृष्ण एक ही शरीर और एक दूसरे से अभिन्न हैं। केवल लीला के लिए वे दो स्वरूपों में व्यक्त हुए हैं, जैसे शरीर अपनी छाया से शोभित हो। स्कंदपुराणके अनुसार श्रीराधाभगवान श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। उनके साथ सदा रमण करने के कारण ही ऋषि-मुनि श्रीकृष्ण को आत्माराम कहते हैं।

इसी कारण भक्तजन सीधी-साधी भाषा में उन्हें राधारमण कहकर पुकारते हैं। पद्म पुराण में परमानंद रस को ही राधा-कृष्ण का युगल-स्वरूप माना गया है। इनकी आराधना के बिना जीव परमानंद का अनुभव नहीं कर सकता। भविष्य पुराण और गर्ग संहिता के अनुसार, द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतरित हुए, तब भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन महाराज वृषभानुकी पत्नी कीर्ति के यहां भगवती राधा अवतरित हुई। तब से भाद्रपद- शुक्ल- अष्टमी राधाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई।

वैष्णवजनइस तिथि के दिन बडी श्रद्धा और उल्लास के साथ व्रत-उत्सव करते हैं। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से देखेंगे, तो यह पाएंगे कि कृष्ण प्रेम की सर्वोच्च अवस्था ही राधाभावहै।

राधा का प्रेम निष्काम और नि:स्वार्थ है। उनका सब कुछ श्रीकृष्ण को समर्पित है, लेकिन वे बदले में उनसे कोई कामना की पूर्ति नहीं चाहतीं। राधा हमेशा श्रीकृष्ण को आनंद देने के लिए उद्यत रहती हैं। इसी प्रकार मनुष्य जब सर्वस्व-समर्पण की भावना के साथ कृष्ण प्रेम में लीन हो जाता है, तभी वह राधा-भाव ग्रहण कर पाता है। इसलिए कृष्णप्रेमरूपीगिरिराज का शिखर है राधाभाव।तभी तो श्रीकृष्ण का सामीप्य पाने के लिए हर कोई राधारानीका आश्रय लेता है।

महाभावस्वरूपात्वंकृष्णप्रियावरीयसी।

प्रेमभक्तिप्रदेदेवि राधिकेत्वांनमाम्यहम्॥

Friday, August 21, 2009

पावन पीपल

ब्रह्मा, विष्णु, महेश निवास करते हैं पीपल में। क्या महिमा है इस वृक्ष की, आइए जानें।

पीपल को हिंदी में पीपरऔर पीपल, बांग्ला में आशुदगाछ,मराठी में पिंगल, गुजराती में पिपलो,नेपाली में पिप्पली,अरबी में थजतुल-मुर्कअश,फारसी में दरख्तेलस्भंग,बौद्ध साहित्य में बोधिवृक्ष, संस्कृत में अश्वत्थ और अंग्रेजी में फिगट्रीया बो ट्रीके नाम से जाना जाता है।

वेदों में पीपल का कई बार नाम लिया गया है। पुराणों में भी इस वृक्ष की महिमा का वर्णन हुआ है। मान्यता है कि पीपल के पेड में ब्रह्मा,विष्णु, महेश निवास करते हैं। इसलिए यह वृक्ष न केवल गाय और ब्राह्मण के समान पावन माना जाता है, बल्कि पूजनीय भी।

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को पीपल का वृक्ष माना है। इसलिए धर्मशास्त्रों में पीपल के पत्तों को तोडना वर्जित माना गया है। शास्त्रों के अनुसार, जो लोग अश्वत्थ वृक्ष की पूजा वैशाख माह में करते हैं और जल भी अर्पित करते हैं, उनका जीवन पापमुक्तहो जाता है। यह रोगों का भी विनाश करता है। पीपल के औषधीय गुण का उल्लेख सुश्रुत संहिता, चरक संहिता में किया गया है। वैदिक काल में यज्ञ करने के लिए स्वयं अग्नि को प्रज्वलित करना पडता था। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले से जलती हुई आग से यज्ञ नहीं किया जाता था।

यज्ञ में अग्नि उत्पन्न करनेवालावृक्ष पीपल होता था। उसे शमी गर्भ के नाम से पुकारा जाता था। इसकी लकडियों में घर्षण किया जाता था, जिससे अग्नि उत्पन्न होती थी। साथ ही, अग्नि मंत्रों का उच्चारण किया जाता था।

गणपति बप्पा मोरया

भारत भर में ज्यादातर हिंदू परिवारों में भगवान गणेश की पूजा होती है। सनातन धर्म को मानने वाले सभी संप्रदाय विघ्नेश्वरगणेश की पूजा सबसे पहले करते हैं। महाराष्ट्र में मराठा श्रद्धालु गणपति को अपना आराध्य मानते हैं।

श्रीमंत पेशवा-सरकार गणेशजीकी उपासक थीं। उनके शासनकाल में गणेशोत्सवराजकीय ठाट-बाट के साथ मनाया जाता था। श्रीमंत सवाई माधवराव के शासनकाल में यह महोत्सव शनिवारवाडाके गणेश महल में आयोजित होता। उस समय यह उत्सव छ:दिनों तक चलता था। गणेशजीकी प्रतिमा के विसर्जन की शोभायात्रा ओंकारेश्वरघाट पहुंचती, जहां नदी में विग्रह का होता था विसर्जन। इसी तरह अन्य मराठा सरदारों के यहां भी गणेशोत्सवआयोजित होते।

दस दिनों का त्योहार :वर्ष 1892ई. तक मराठा-नरेशों के महलों तक सीमित था गणेशोत्सव।लोकमान्य तिलक की प्रेरणा और प्रयासों से वर्ष 1893ई. में पुणे में इसे सार्वजनिक रूप से मनाने की शुरुआत हुई। उन्होंने छ:दिनों के इस धार्मिक अनुष्ठान को दस दिन का सार्वजनिक उत्सव बना दिया। गणेश पुराण के अनुसार, भादो माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी के दिन गणेशजीप्रकट हुए।

इसलिए भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी के दिन गणेश-प्रतिमा की स्थापना और भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्दशी को विसर्जन की प्रथा बन गई। राष्ट्रीय उत्सव : केसरी पत्रिका में उस समय के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी खानखोजेने यह विचार प्रकट किया था कि पुणे में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में गणेश-उत्सव न केवल देशभक्ति के प्रचार का माध्यम, बल्कि राष्ट्रीय उत्सव भी बन गया। पूणेके अलावा, मुंबई, अमरावती, वर्धा, नागपुर में भी सार्वजनिक गणेश-उत्सव मनाया जाने लगा। सच तो यह है कि इस उत्सव के माध्यम से क्रांतिकारियों को संगठित करने का कार्य होने लगा। धार्मिक उत्सव होने के कारण अंग्रेज सरकार भी इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाती थी।

इस प्रकार लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सवको राष्ट्रीय उत्सव बनाकर देश की आजादी के आंदोलन में अपना एक विशिष्ट योगदान दिया।

स्वराज्य का संदेश :तिलक के अलावा, कई नेता गणेशोत्सवके अवसर पर स्वराज्य और एकता का संदेश देते थे। इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार भी होने लगा। धीरे-धीरे महाराष्ट्र का प्रत्येक नगर गणपति बप्पा मोरयाके उद्घोष से गूंजने लगा और यह स्वराज्य-प्राप्ति का साधन बन गया।

साहित्य और कला को प्रोत्साहन :गणेश-उत्सव के कारण जहां एक ओर राष्ट्रीय चेतना को बल मिला, तो वहीं दूसरी ओर साहित्य और कला को भी प्रोत्साहन मिला।

उत्सव के सभी कार्यक्रम मराठी, हिंदी या अन्य किसी स्थानीय भाषा में होते थे, जिससे जन-जन में भारतीय भाषाओं के प्रति आदर की भावना उत्पन्न हुई। मेले [ख्याल] के लिए कवि गीत रचकर देने लगे। इस तरह पोवाडे[वीर रस की कविताएं] लोकप्रिय होते चले गए। रंगमंच ने भी प्रगति की। नए-नए नाटक-प्रहसन आदि लिखे और खेले जाने लगे। गणेशोत्सवके कारण ही मराठी रंगमंच में नया जीवन आया। शाहीर[लोकगीत] और लावनी के प्रति लोगों में आकर्षण बढा।

मूर्तिकार प्रतिवर्ष गणेशजीकी छोटी-बडी असंख्य मूर्तियां बनाने लगे, जिससे मूर्तिकला और उसके कलाकारों को संरक्षण मिला। इस तरह लोकमान्य ने गणेश-उत्सव को देश की सर्वागीण प्रगति का लोकप्रिय आधार बना दिया। वर्ष 1920में तिलक की मृत्यु हो गई, लेकिन यह राष्ट्रीय चेतना का महापर्वबन गया।

आज यह उत्सव इतना लोकप्रिय हो गया है कि अन्य धर्मो को मानने वाले भी इसमें बडे उत्साह के साथ भाग लेते हैं। अब महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि भारत के ज्यादातर राज्यों में गणेशोत्सवधूमधाम के साथ मनाया जाने लगा है। विदेश में आप्रवासी भारतीय भी गणेशोत्सवका आयोजन करने लगे हैं।

Friday, August 7, 2009

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।

यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।

नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

Wednesday, July 22, 2009

बड़े काम की चीज है जामुन

फलों की विविधता की दृष्टि से दुनिया में भारत का कोई सानी नहीं। यहां हर मौसम के कुछ खास फल हैं। हर फल की अपनी कुछ खास विशेषता है। बारिश की फुहार पड़ते ही बाजार में जामुन की रौनक बढ़ जाती है।

डाक्टरों की राय में डायबिटीज को नियंत्रित रखने में यह काफी कारगर है। सीधे शब्दों में कहें तो डायबिटीज के लिए जामुन रामबाण दवा है।

जर्मन शोधकर्ताओं के मुताबिक, जामुन की पत्तिायां प्रोजेस्ट्रान [महिला सेक्स हार्मोन] में वृद्धि कर उसे संतुलित रखती हैं। चरक संहिता में वर्णित पुष्यानुग चूर्ण में भी जामुन की गुठली मिलाए जाने का विधान बताया गया है।

जामुन की गुठली में जंबोलीन नामक ग्लूकोसाइट पाया जाता है। यह स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित होने से रोकता है जो डायबिटीज के नियंत्रण में काफी मददगार साबित होता है।

अन्य रोगों में भी फायदेमंद है जामुन

-जामुन का सिरका बनाकर पीने से भूख व कब्जियत दूर होती है।

-गले के रोगों में जामुन की छाल को पीसकर उसका सत्व बना लें। इस सत्व को पानी में घोलकर गरारा करने से गला साफ होगा, आपकी आवाज अच्छी बनी रहेगी और सांस की दुर्गध [बैड ब्रेथ] की समस्या से निजात मिलेगी।

-जामुन लिवर [यकृत] को शक्ति प्रदान करने के साथ मूत्राशय की असामान्यता को दूर करने में भी सहायक है।

-जामुन का रस, शहद, आंवले या गुलाब के रस के साथ मिलाकर पीने से रक्त की कमी व शारीरिक दुर्बलता दूर होती है।

-जामुन का शरबत बनाकर रख लें। उल्दी-दस्त या हैजा की होने पर यह शरबत तुरंत राहत देता है।

-गठिया के इलाज में जामुन बहुत उपयोगी है। इसकी छाल को पीसकर बनाए गए घोल का लेप घुटनों पर लगाने से गठिया के दर्द से निजात मिलती है।

-विषैले जंतुओं के काटने पर जामुन की पत्तियों का रस काफी कारगर साबित होता है। जामुन की पत्तिायों में नमी सोखने की अद्भुत क्षमता होती है। काटे गए स्थान पर जामुन की पत्तिायों को बांधने पर घाव जल्दी ठीक होने लगता है।

-पथरी के मरीजों के लिए जामुन की गुठली का चूर्ण दही के साथ खाना काफी फायदेमंद साबित होती है।

-जामुन की गुठली का चूर्ण आधा-आधा चम्मच दो बार पानी के साथ लगातार कुछ दिनों तक देने से बच्चों के बिस्तर में पेशाब करने की आदत छूट जाती है।

Monday, July 6, 2009

मां लक्ष्मी की तपस्थली बेलवन

वृंदावन मथुरा के यमुना पार स्थित जहांगीरपुरग्राम (डांगौली/ मांट)का बेलवनलक्ष्मी देवी की तपस्थलीहै। यह स्थान अत्यंत सिद्ध है। यहां लक्ष्मी माता का भव्य मंदिर है। इस स्थान पर पौषमाह में चारो ओर लक्ष्मी माता की जय जयकार की गूंज सुनाई देने लग जाती है। दूर-दराज के असंख्य श्रद्धालु यहां अपनी सुख-समृद्धि के लिए पूजा-अर्चना करने आते हैं। यहां पौषमाह के प्रत्येक गुरुवार को विशाल मेला जुडता है। प्राचीन काल में इस स्थान पर बेल के वृक्षों की भरमार थी। इसी कारण यह स्थान बेलवनके नाम से प्रख्यात हुआ। कृष्ण-बलराम यहां अपने सखाओं के साथ गायें चराने आया करते थे। श्रीमद्भागवत में इस स्थान की महत्ता का विशद् वर्णन है। भविष्योत्तरपुराण में इसकी महिमा का बखान करते हुए लिखा है: तप: सिद्धि प्रदायैवनमोबिल्ववनायच।जनार्दन नमस्तुभ्यंविल्वेशायनमोस्तुते॥

भगवान् श्री कृष्ण ने जब सोलह हजार एक सौ आठ गोपिकाओं के साथ दिव्य महारासलीला की तब माता लक्ष्मी देवी के हृदय में भी इस लीला के दर्शन करने की इच्छा हुई और वह बेलवनजा पहुंची, परंतु उसमें गोपिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था। अत:उन्हें ललिता सखी ने यह कह कर दर्शन करने से रोक दिया कि आपका ऐश्वर्य लीला से सम्बन्ध है, जबकि वृंदावन माधुर्यमयीलीला का स्थान है। अत:लक्ष्मी माता वृंदावन की ओर अपना मुख करके भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने लग गईं। भगवान् श्रीकृष्ण जब महारासलीला करके अत्यंत थक गए तब लक्ष्मी माता ने अपनी साडी से अग्नि प्रज्वलित कर उनके लिए खिचडी बनाई। इस खिचडी को खाकर भगवान् श्रीकृष्ण उनसे अत्यधिक प्रसन्न हुए।

लक्ष्मी माता ने जब भगवान् श्रीकृष्ण से ब्रज में रहने की अनुमति मांगी तो उन्होंने उन्हें सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी। यह घटना पौषमाह के गुरुवार की है। कालान्तर में इस स्थान पर लक्ष्मी माता का भव्य मंदिर स्थापित हुआ। इस मंदिर में मां लक्ष्मी वृंदावन की ओर मुख किए हाथ जोडे विराजितहैं।

साथ ही खिचडी महोत्सव आयोजित करने की परम्परा भी पडी। इसी सब के चलते अब यहां स्थित लक्ष्मी माता मंदिर में खिचडी से ही भोग लगाए जाने की ही परंपरा है। यहां पौषमाह में प्रत्येक गुरुवार को जगह-जगह असंख्य भट्टियां चलती हैं। साथ ही हजारों भक्त-श्रद्धालु सारे दिन खिचडी के बडे-बडे भण्डारे करते हैं। इस मंदिर दर्शन हेतु पौषमाह के अलावा भी वर्ष भर भक्त-श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। ब्रज चौरासी कोस की हरेक परिक्रमा भी इस स्थान पर अनिवार्य रूप से आती है।

संयम से बढ़ता है धैर्य व सहनशक्ति

संयम व सावधानी, ये दोनों विवेक के अहम अंग है। इनसे मनुष्य में पनपने वाले बुरे विचार नष्ट होते है। साथ ही इससे इंसान मे धैर्य और सहनशक्ति बढती है। यानी संसार मे संयम मनुष्य हर क्षेत्र में विजयी होकर तरक्की कर सकता है और सुखी रहता है।

सांसारिक मोह-माया से मनुष्य यदि मुंह मोड ले और संयम से जीवन यापन करना शुरू कर दे तो उसके जीवन की अनेक कठिनाईयां व दुश्वारियां स्वयं ही खत्म हो जाएंगी। जिस प्रकार मनुष्य यदि गाडी चलाते समय मन मस्तिष्क पर नियंत्रण रखते हुए सावधानी पूर्व गाडी चलाता है तो वह सुरक्षित अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच जाता है। अगर वह इसमे चूक करता है तो उसे परेशानियो का सामना करना ही पडता है। इसी प्रकार हमें अपनी जीव यात्रा मे मन की अनियंत्रित इच्छाओ पर ब्रेक लगाते हुए पांचो इंद्रियो शरीर, जीभ, आंख, नाक व कान रूपी व्हील कंट्रोलर पर सावधानी से नियंत्रण रखते हुए संयम रूपी टायरो की हवा चैक करते रहना चाहिए।

अक्षरों की वर्णमाला सीमित है परन्तु शब्दों के प्रयोग करने का ढंग अलग-अलग है। यदि शब्दों का प्रयोग संयम के दायरे में किया जाए तो इंसान नर से नारायण बन सकता है। यदि संयम खो दिया जाए तो इंसान समाज में अपना महत्व खो देता है। अर्थात वाणी संयम हमारे जीवन के उत्थान के लिए बहुत बडा कारण बन सकता है। वाणी के संयम प्रयोग से घर में कभी कलह नहीं होती। यदि इंसान संयमित वाणी का प्रयोग करता रहे तो कठोर वचन बोलने वाले को भी लज्जित होना पडता है।

हमें केवल वाणी पर ही नहीं बल्कि इंद्रियों पर काबू पाकर खान-पान में भी संयम बरतना चाहिए क्योंकि खान-पान में शुद्धता से हमारा स्वास्थ्य ठीक रहता है। यदि स्वास्थ्य ठीक रहेगा तो हमारे आचार-विचार भी शुद्ध रहेंगे।

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।

यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।

नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

Monday, June 15, 2009

सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है मानव

शिव शक्ति मंदिर में पण्डित भोलानाथ ने प्रवचनों में कहा कि मनुष्य जीवन इस सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है। अत:मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को सुधारने के लिए अच्छे कर्म करने के साथ-साथ रामनाम का जाप करे।

राम नाम का जाप करने से जहां मनुष्य का मन शुद्ध होता है। वहीं मनुष्य इससे परोपकारी भी हो जाता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं को त्याग कर दूसरों के भले ही सोचे और अपने मन को स्थिर करे। इस प्रकार सत्कर्म करने का फल उसे अवश्य मिलेगा और उसका जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा।

उन्होंने कहा कि मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति में अनेक बाधाएं आना स्वाभाविक है, परन्तु मनुष्य अध्यात्म के बल पर सभी बाधाओं को आसानी से पार कर लेता हैं। अध्यात्म की शक्ति मनुष्य को प्रेरणा देती है कि वह कर्म फल की प्राप्ति के लिए आत्म समर्पण कर दे। साधना करने के परिणाम काफी सुखद होते हैं। हालांकि प्रारंभ में साधना करते हुए मनुष्य को कुछ परेशानियों का सामना करना पडता है परंतु आखिरकार इसके परिणाम काफी सुखद होते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म जीवन का अभिन्न अंग है और धर्म के सेवन से ही प्रकृति में परिवर्तन आता है और मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक ऊर्ज का आविर्भाव होता है। ईश्वर की उपासना समर्पण भाव से की जानी चाहिए और मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अंदर के रोग-द्वेष को अपने विवेक की कैंची से काट डाले तभी कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए मानव को इंद्रियों पर काबू पाना सीखना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों का संचालन करना मानव को सिखाया है। इंद्रियों का संचालन ही हृदय का गोकुल है। उन्होंने कहा कि भोजन थाली में होगा तो पेट में भी होगा और अगर थाली ही खाली हो तो पेट भरने की आश छोड देनी चाहिए। कुछ लोग मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन इस पूजा से ही अंदर की पूजा तक पहुंचा जा सकता है।

उन्होंने कहा कि अंदर की पूजा को जानने से पहले यानी भगवान को जानने के लिए अंदर की पूजा से पहले बाहर की पूजा बहुत जरूरी है। आंखें जो बाहर देखती हैं उसी का ध्यान अंदर करती हैं। इसी प्रकार से कान बाहर से सुनकर उसका अंदर चिंतन करते हैं इसलिए पूजा की जोत की ज्वाला शरीर के बाहर तक ही नहीं बल्कि अंदर तक भी जानी बहुत जरूरी है।

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।

यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।

तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।

नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

Friday, June 5, 2009

विवाह

प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।

हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।

Saturday, May 23, 2009

कर्णवेध

हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।

यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।

Friday, May 1, 2009

अक्षय पुण्यों का त्योहार है अक्षय तृतीया

किसी भी शुभ कर्म के लिए काफी पवित्र माने जाने वाले अक्षय तृतीया पर्व पर हिन्दू श्रद्धालु नए निवेश या दान आदि कर्म को फलदायक मानते हैं। मान्यता है कि इसी दिन त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी और महर्षि वेद व्यास ने भी इसी दिन महाभारत लिखनी शुरू की थी। इस बार सोमवार को अक्षय तृतीया का त्योहार है और लोगों में इसको लेकर अभी से ही काफी उत्सुकता है।

धर्म विशेषज्ञों के अनुसार मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन किए जाने वाले कामों और दान का फल अक्षय रहता है अर्थात कभी नहीं मिटता। इसी कारण लोग इस दिन विभिन्न वस्तुओं का दान करते हैं। हिन्दू त्योहारों और वृक्षों के बारे में कई पुस्तकें लिख चुके लखनऊ के राधाकृष्ण दुबे के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व वैशाख मास में शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन पडता है।

दुबे ने कहा कि यह भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन विष्णु भगवान के अवतार परशुराम का जन्म हुआ था। उन्होंने कहा कि पूरा वैशाख माह ही भगवान विष्णु से संबंधित माना जाता है। भगवान विष्णु को परोपकार बहुत प्रिय है, इसलिए श्रद्धालु पूरे वैशाख मास विशेषतौर पर अक्षय तृतीया के दिन दान करते हैं, जो परोपकार ही है।

उन्होंने कहा कि आजकल अक्षय तृतीया पर सोना, चांदी और आभूषण खरीदने का चलन शुरू हो गया है। इस चलन का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। यह चलन त्योहारों के व्यवसायीकरण के अलावा और कुछ नहीं है।

दिल्ली के राजकीय विद्यालय में संस्कृत के अध्यापक और कर्मकांडी पंडित बालकृष्ण चतुर्वेदी के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व चूंकि गर्मी के मौसम में पडता है इसलिए इस पर्व पर ऐसी चीजों के दान का महत्व अधिक है जो गर्मियों के अनुकूल हो। उन्होंने बताया कि इस पर्व पर लोग प्राय: मिट्टी के बने घडे, सुराही, मीठा शरबत, सत्तू,खरबूजा और हाथ के पंखे आदि दान करते हैं। उन्होंने कहा कि कुछ लोग इस दिन आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन करना पवित्र मानते हैं।

चतुर्वेदी ने कहा कि इस दिन दान करने से हजार गुना फल मिलने की मान्यता है। संभवत:इसी मान्यता के चलते अक्षय तृतीया के दिन विवाह कराना पवित्र माना गया है। हिन्दू धर्म में विवाह को भी कन्या दान की संज्ञा दी जाती है। यही वजह है कि राजस्थान में बहुत से लोग इसी दिन विवाह करना पसंद करते हैं।

गुण की गायत्री

गायत्री मंत्र न केवल वेदों का जन्मदाता है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति का सबसे पुराना मंत्र भी है। इसके माध्यम से हम ईश्वर से न केवल बुद्धि और विवेक, बल्कि सही राह दिखाने की प्रार्थना भी करते हैं। इस मंत्र के जाप से हम प्रकाश और जीवन देने वाले देवता सूर्य [सवितुर] की आराधना भी करते हैं।

मान्यता है कि गायत्री पांच सिरों वाली एक देवी हैं। जो लोग इस मंत्र का जाप करते हैं, यह देवी उन लोगों की पांचों इंद्रियों की रक्षा करती हैं। दरअसल, रक्षक होने के कारण ही गायत्री को सावित्री भी कहा जाता है। दुखों से मुक्ति गायत्री दो शब्दों गा और त्रायते के योग से बना है। गा का अर्थ है गाना अथवा प्रार्थना करना और त्रायतेका अर्थ है-दुखों, कष्टों और समस्याओं से मुक्ति। वास्तव में, जो व्यक्ति गायत्री मंत्र के अर्थ को भलीभांति जान लेता है और उसे अपने जीवन में उतार लेता है, वह निश्चय ही कठिन से कठिन बाधाओं को भी पार कर लेता है।

इसे गुरुमंत्र भी इसलिए कहते हैं, क्योंकि प्राचीनकाल में शिक्षा प्रदान करने से पहले गुरु ईश्वर की उपासना किया करते थे और इसके लिए वे गायत्री मंत्र का ही पाठ करते थे। ऋग्वेद और यजुर्वेद में गायत्री मंत्र की कई बार किसी न किसी रूप में चर्चा भी की गई है। आत्मबल का संचार ऋषियों-महात्माओं के अनुसार, गायत्री मंत्र के उच्चारण से हमारे मन पर एक सकारात्मक प्रभाव पडता है। यह मंत्र विपत्ति के समय न केवल हमें धैर्य और विवेक से काम लेने की सलाह देता है, बल्कि यह व्यक्ति में आत्मबल का संचार भी करता है। हम सभी अपने-अपने ढंग से ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।

सच तो यह है कि ज्यादातर लोग चाहते हैं कि वे प्रभु का स्मरण ऐसी प्रार्थना के माध्यम से करें, जो सरल हो और उसे किसी भी स्थान पर प्रयोग में लाया जा सके। साधना और ध्यान के लिए जाप और अनुष्ठान का बहुत महत्व है। यदि हम किसी मंत्र का उच्चारण मन ही मन में कई बार करते हैं, तो वह जाप कहलाता है। इस क्रिया का हमारे मन और मस्तिष्क पर बहुत अधिक प्रभाव पडता है। साधक को जब भी समय मिलता है, वह जाप करना शुरू कर देता है। और ऐसा करने के कारण साधक का मन कभी खाली नहीं रह पाता। ऐसी स्थिति में मन में कभी बुरे विचार भी नहीं आ पाते हैं। मंत्र का अर्थ किसी भी व्यक्ति का आचार-व्यवहार उसके विचारों का ही प्रतिबिंब होता है। जाप से न केवल हमें बुराई से बचने में सहयोग मिलता है, बल्कि हम परोपकार भी करने लगते हैं। और यह तभी संभव हो पाता है, जब अर्थ समझकर ही जाप किया जाए। ओम ईश्वर अर्थात ब्रह्मा का मुख्य नाम है।

सृष्टि के प्रत्येक प्राणी में जीवन ईश्वर ने दिया है। भूर का अर्थ ब्रह्मांड का स्त्रोत, यानी ईश्वर को ही कहा गया है। भुव: का अर्थ पृथ्वी और स्वाहा स्वर्ग को कहा जाता है। सवितुर, यानी सविता- सूर्य की रोशनी को कहा जाता है। वरेण्यम का अर्थ है सर्वशक्तिमान और भर्गो कहते हैं कांति या तेज को। इस पंक्ति में सूर्य [भास्कर-उगते हुए सूर्य और प्रभात-डूबते हुए सूर्य] की कांति के बारे में बताया जा रहा है।

देवस्य का मतलब है देवता। धीमहि का अर्थ हुआ-हम चिंतन करते हैं। धियो, ज्ञान और बुद्धि को कहते हैं और यो मतलब कौन होता है। नहा का अर्थ हम लोग और प्रचोदयात का अर्थ है-जागृत करना। माना जाता है कि ईश्वर अपनी शक्ति के माध्यम से न केवल जीवों के कष्ट को दूर करते हैं, बल्कि पूरे ब्रह्मांड को संचालित करते हैं। इसलिए भूर, भुव:और स्व: शब्दों के माध्यम से हम परमेश्वर की स्तुति करते हैं। वरेण्यम अर्थात् हम ईश्वर की महानता को स्वीकार करते हैं। भर्गो देवस्यधीमहिका उच्चारण कर हम सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वे हमारी अज्ञानता और दोषों को दूर करें।

धियो यो न प्रचोदयात्से हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वे हमारी बुद्धि और मन को श्रेष्ठ और उत्तम से उत्तम कर्मो में लगाएं। घृणा और ईष्र्या का त्याग ऋषियों और महात्माओं के अनुसार, यदि हमारे मन में दूसरों के प्रति घृणा या ईष्र्या का भाव रहेगा, तो कभी भी हम पर मंत्र जाप का सकारात्मक प्रभाव नहीं पडेगा। इसलिए हमें अपने मन से शत्रुता, ईष्र्या आदि का भाव निकाल देना चाहिए।

सच तो यह है कि यदि हम सच्चे और शुद्ध मन से गायत्री मंत्र का जाप करते हैं, तो न केवल सुख, बल्कि दुख में भी प्रसन्नचित्त रहेंगे। यह सच है कि जीवन में कई प्रकार की विपदाएं आती हैं, लेकिन यदि ऐसी स्थिति में हम धैर्य खो देंगे, तो कभी भी हमारे विचार दृढ नहीं हो पाएंगे। इसलिए जहां तक संभव हो सके, हमें किसी भी परिस्थिति में दूसरे व्यक्ति को मानसिक पीडा नहीं देनी चाहिए। इसलिए जहां तक संभव हो सके, हम दूसरों के दुखों को दूर करने का प्रयास करें।

और यदि हम ऐसा कर पाते हैं, तो वास्तव में यही गायत्री मंत्र का सौंदर्य है। गायत्री मंत्र वह प्रार्थना है, जिससे हमारे विचारों को सही तरह से और सही दिशा की ओर मार्गदर्शन मिलता है। यह मंत्र किसी शारीरिक पीडा को ठीक जरूर नहीं कर पाता है, बल्कि हमारी बुद्धि को अच्छे मार्ग की ओर तो ले ही जाता है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार, गायत्री मंत्र ध्यान का एक महत्वपूर्ण साधन है। लोकमान्य तिलक के शब्दों में यदि हम कुमार्ग त्याग कर सन्मार्ग का अनुसरण करना चाहते हैं, तो हमें प्रति दिन गायत्री मंत्र का जाप करना ही चाहिए। दरअसल, यह मंत्र हमारे लिए एक धरोहर के समान है, जिसका दैनिक जीवन में काफी महत्व है।

Saturday, April 11, 2009

सबसे संपन्न मंदिर तिरु पति

तिरुपतिमंदिर में जब फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन भगवान वेंकटेश्वरके दर्शन के लिए पहुंचे, तो उन्होंने बारह करोड रुपये का दान दिया। यही वजह है कि यह भारत का सबसे अमीर मंदिर कहलाता है।

कहते हैं कि भगवान वेंकटेश्वरके चरणों में भक्तगण हीरे की थैली भी भेंट करते हैं। यहां सभी धर्मो के लोग बडी संख्या में पहुंचते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां आप भगवान से जो कुछ मांगते हैं, वह मिल जाता है। सात पहाडों वाला मंदिर सात पहाडों से मिलकर बना है तिरुमाला पहाड और इस पर स्थित है तिरुपतिमंदिर। सातों पहाड को शेषाचलमया वेंकटाचलमभी कहते हैं। तिरुमाला पहाड की चट्टानें पूरे विश्व में दूसरी सबसे पुरानी चट्टानें हैं। तिरुपतिमंदिर में निवास करते हैं भगवान वेंकटेश्वर।

भगवान वेंकटेश्वरको विष्णु का अवतार भी माना जाता है। यह मंदिर समुद्र से 28सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित है। तिरुपतिएक महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है, जहां भक्त अपने भगवान की एक झलक पाने के लिए घंटों लाइन में खडे रहते हैं। यह मंदिर तिरुपतिबालाजीमंदिर भी कहलाता है। अद्भुत वास्तुकला यह मंदिर आंध्रप्रदेश के चित्तूरजिले में स्थित है। इसे तमिल राजा थोंडेईमानने बनाया था। बाद के समय में चोल और तेलुगू राजाओं ने इसे और विकसित किया। यही वजह है कि इस पर द्रविडियन[तमिल] कला की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।

वास्तव में, मंदिर की वास्तुकला अद्भुत है। विजयनगरके राजा कृष्णदेवराय ने इस मंदिर में सोना, हीरे-जवाहरात आदि का दान दिया था। उसी समय से भक्तगण इस मंदिर को खूब दान देते आ रहे हैं। इस मंदिर का गोपुरम आकर्षण का मुख्य केंद्र है। मंदिर के गर्भगृह के ऊपर स्थित है आनंद निलयम,जो पूरी तरह सोने के प्लेटों से बना है। मंदिर की बनावट मंदिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है। बाहरी प्रांगण को ध्वजास्तंभकहते हैं। मंदिर स्थल पर विजयनगरके राजा कृष्णदेवराय और उनकी पत्नी की मूर्ति भी स्थापित है। इसके अलावा, अकबर के एक मंत्री टोडरमलकी मूर्ति भी लगी हुई है। मुख्य मंदिर में भगवान की मूर्ति रखी हुई है, जिसमें भगवान विष्णु और शिव दोनों का रूप समाया हुआ है। सेवा और उत्सव तिरुपतिमंदिर में प्रतिदिन भगवान वेंकटेश्वरकी पूजा होती है। दिन की शुरुआतसुबह तीन बजे सुप्रभातम, यानी भगवान को जगाने से होती है। सबसे अंत में एकांत सेवा, यानी भगवान को सुलाया जाता है। यह सेवा रात के एक बजे तक संपन्न होती है।

भगवान की प्रार्थना-स्तुति प्रतिदिन, साप्ताहिक और पक्षीय रूपों में आयोजित की जाती है, जिसे सेवा और उत्सव कहते हैं। देवता को दिया जाने वाला चढावा या दान हुंडी कहलाती है। हर वर्ष सितंबर महीने में यहां ब्रह्मोत्सवमनाया जाता है।

Saturday, April 4, 2009

कैसा पैसा?

किसी समय चार मित्र बहुत बडी मात्रा में धन-सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात आदि की खोज करना चाहते थे। उन लोगों ने एक विवेकी व्यक्ति से खजाना पाने का उपाय पूछा।

उस व्यक्ति ने उन चारों मित्रों को खजाने की खोज में किसी खास पहाड पर जाने के लिए कहा। जैसे ही वे पहाड पर चढे, उन्हें एक गुफादिखाई दी, जिसमें ढेरों चांदी रखी हुई थी। एक मित्र ने फैसला किया कि वह चांदी लेकर घर चला जाएगा। शेष तीनों मित्र पहाड पर चढते गए। आगे उन्हें एक गुफादिखाई दी, जिसमें सोना था। एक मित्र ने कहा कि वह सोना लेकर वापिस जा रहा है। शेष दोनों मित्र आगे बढे, तो उन्हें एक और गुफादिखाई दी, जिसमें हीरे-जवाहरात रखे हुए थे। एक मित्र ने कहा कि वह इन्हें लेकर घर जा रहा है।

आखिरी मित्र और ऊपर चढता गया। वह मित्र जब ऊपर पहुंचा, तो उसने देखा कि वहां एक व्यक्ति बैठा हुआ था, जिसके सिर पर एक चक्र घूम रहा था। उसने ऊपर चढने वाले व्यक्ति से पूछा, तुम यहां इस पहाड पर क्यों आए हो? आगंतुक मित्र बोला, मैं एक बडे खजाने की खोज में यहां आया हूं। मेरे तीन मित्रों को जो कुछ रास्ते में मिला, लेकर चले गए हैं। मुझे विश्वास है कि यहां कहीं उससे भी अधिक बडा खजाना गडा हुआ है और मैं उसे पाना चाहता हूं।

जो तुम ढूंढ रहे हो, उसका पता मैं तुम्हें बता सकता हूं। थोडी देर के लिए मुझे इस चक्र से मुक्त कर दो ऊपर बैठे उस व्यक्ति ने कहा। आगंतुक व्यक्ति मान गया। मैं अब बहुत प्रसन्न हूं कि मैं इस भार से मुक्त हो गया। सच तो यह है कि मैं इसे दशकों से ढो रहा था। तुम्हारी तरह, मैं भी अपने मित्रों के साथ खजाने की खोज में यहां पहुंचा था। मुझे भी कुछ अधिक पाने की चाह थी। अंतत:मैं तुम्हारी तरह इस पर्वत की चोटी पर पहुंच गया। मुझे भी एक चक्रधर मिला था। जो मैंने तुम्हें कहा है, उसने भी मुझे वही कहा था। मैं भी तुम्हारी तरह उस मायाजाल में फंसगया था, जिससे अब मैं मुक्त हो चुका हूं।

अब तुम इस चक्र में फंसे रहो, जब तक और कोई लोभी व्यक्ति तुम्हें इससे मुक्त नहीं कराता। यह कह कर वह व्यक्ति चला गया। उस व्यक्ति का ऐसा हाल उसके लोभ के कारण हुआ। कहते हैं कि हर पाप का जन्म लोभ से भी होता है। शेख सादी कहते हैं कि लालची व्यक्ति पूरी दुनिया पाने पर भी भूखा रहता है, लेकिन संतोषी व्यक्ति एक रोटी से भी पेट भर लेता है। इंसान यदि लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर सकता है। क्योंकि संतोष ही हमेशा इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है।

धन जीवन-यात्रा के लिए महत्वपूर्ण साधन है। जीवन में हमें हर कदम पर धन की आवश्यकता पडती है। संभव है कि धन के अभाव में हमारा जीवन कष्टमयहो जाए। वेदों में कहा गया है- हम धन-ऐश्वर्य आदि के स्वामी बनें। लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि हम धर्मपूर्वक,सच्चाई और ईमानदारी से ही धन कमाएं। जब लोभ बढता है, तो हमारी अतृप्त इच्छाएं भी बढने लगती हैं। इसी कारण दिन-रात हम यही सोच कर चिंतित होते रहते हैं कि कैसे अधिक से अधिक धन कमाया जाए! एलबर्ट आइंस्टीनका कहना था संसार में मौजूद किसी भी प्रकार का धन-ऐश्वर्य मानवता को आगे ले जाने में सहायक नहीं हो सकता। जो कुछ हमारे पास है, उसमें संतुष्ट रहना ही हमारी सबसे बडी संपत्ति है, क्योंकि सभी इच्छाओं को मन शांत नहीं कर सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें धन-सम्पदा कमाने में प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि धन-सम्पत्ति प्राप्त करने की अंधी दौड ही हमें विनाश की ओर ले जाती है। लालसापूर्णजीवन और अंधाधुंध सम्पत्ति प्राप्त करने की दौड त्यागने में ही भलाई है। हम पैसे से सुख-साधन खरीद सकते हैं, लेकिन सुख और शान्ति नहीं।

हमारे मनीषियोंने सच ही कहा है कि धन सम्पत्ति पाने की होड हमें गर्त में ले जाती है, लेकिन जो साधक लोभरहितसत्य की राह पर चलते हैं, वे बुद्धिमान माने जाते हैं।

सच तो यह है कि सच्चा सुख और आनंद की प्राप्ति केवल धन-सम्पत्ति पाने की होड में लगे रहने से नहीं हो सकती है। दरअसल, हमें उतनी ही मात्रा में धन-सम्पत्ति की कामना करनी चाहिए, जिससे कि हमारा चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास संभव हो सके।

रामवाण एवं रामवाणी दोनों ही अचूक

अयोध्या में महाराजा दशरथ को नवरात्रि के अंतिम दिन पुत्र रत्न प्राप्त होने पर मनाए गए रामजन्मोत्सवका वाल्मीकीय रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत रामरचितमानस में अत्यधिक मनोरम वर्णन किया गया है। इस दिन मानो शक्ति पूजा का प्रसाद प्राप्त हुआ। वासंतीनवरात्रि की नौमीतिथि को शक्तिधर राम अवतरित हुए और अपने कृत्यों और सुयश से इस नवरात्रि को राम- नवरात्रि एवं नवमी को रामनवमी के रूप में प्रसिद्धि प्रदान की।

राम का रामत्वकथनी से अधिक करनी के माध्यम से व्यक्त हुआ। राम की पहचान एक बान यहां बान द्वि अर्थक है वाणी और वाण। उनका कथन ही उनका दृढसंकल्पहै। जिस पर वाण तान दिया, उसको दण्डित करके ही छोडा। उनकी शक्ति शरणागत की रक्षा और आतताईअत्याचारियोंके मान, मर्दन के लिए है।

राम में कथनी, करनी, गुण, स्वभाव, दृढता,कोमलता,क्रोध क्षमाशीलताआदि सभी अनुकरणीय है। राम मर्यादा, रक्षार्थसतत सृजनशील है। महर्षि वाल्मीकि के राम अवतार नहीं, देवर्षिनारद द्वारा अनुशंसित तीनों लोकों में आदर्श पुरुष है, जिनका वे गुण-गान करते

है। वे कल्पना नहीं परम ज्ञानी थे। नारदजीने कसौदीपर परखकर बताया है कि वे हाड मांस के पुतले के रूप में वास्तव में धरती माता के यशस्वी

पुत्र है। वास्तव में वे कीर्तनीयहै। तीनों लोको में मन की गति से भ्रमणशील नारद सभी प्राणियों के मुखर अभिमत को अभिव्यक्त करते हैं, उन्हें आदर्श पुरुष कहकर। वाल्मीकि जी ने उन्हें सशरीर धर्म कहा है।

यहां ध्यान देने योग्य है कि नारद जी के शाप से ही श्री हरि, विष्णु या श्रीमन्नारायणको मनुज रूप में अवतरित होकर उनके शाप से राक्षस

बने रावण को मारने आना पडा है। वे सतत सहज नर लीला कर रहे हैं, कोई भी संदेह नहीं कर पाया कि वे भगवान् हैं। नारद जी के शाप का मान रखने के लिए ही वे खग,मृग वृक्ष एवं लताओं से पूछते फिर रहे हैं कि आपने मृगनयनीसीता को देखा है, शिव पत्नी सती ने महर्षि अगस्त्य और शिवजी की पारस्परिक राम कथा सुनकर भी शिवजी से तर्क करना नहीं छोडा कि वे अज्ञ के समान जड पदार्थो से पत्नी का पता पूछ रहे हैं, वे सच्चिदानंद कैसे हो सकते हैं, उनका भ्रम दूर करने

के लिए शिवजी उन्हें परीक्षा लेने के लिए भेज देते हैं और वे सीता बनकर रामजी के सामने पडती हैं किंतु उनका भेद खुल गया। यहीं गीता की उक्ति चरितार्थ होती है। संशयात्माविनश्यति।

पति से परित्यक्त सती को पुन:पति की प्राप्ति के लिए नया शरीर धारण कर घोर तप करना पडता है। दक्ष शिव शरीर को वे दक्ष के ही यज्ञ कुंड में भस्म कर हिमालय पुत्री पार्वती बनती हैं। शक्ति भी ब्रह्मके निरादर का दंड भोगती है। सदेह शक्ति ने पार्वती के रूप में पति को प्रसन्न देख पूर्वजन्म की स्मृति बनी रहने से राम मूलक चौदह प्रश्न किए रामुकवन प्रभु पूछउंतोही,कहिअबुझाई कृपानिधि मोहि।यह प्रश्नाकुलजिज्ञासा वास्तव में गोस्वामी तुलसीदास के कृति विस्तार और जन सामान्य के संस्कार, परिष्कार के लिए है।

राम हमारे सामाजिक, नैतिक, राष्ट्रीय, धार्मिक, आध्यात्मिक और लौकिक सभी परिस्थितियों की समस्याओं के समाधान प्रश्नों के उत्तरहैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तमयों ही नहीं कहे गए। वाल्मीकि, व्यास, तुलसी, कालिदास.,भवभूतिसभी ने उनके मर्यादा पुरुषोत्तमत्वकी ही कथा कही है। रामजी भारतीय संस्कृति के आदर्श अपने आचरण, मानवीय व्यवहार की उच्च मर्यादाएं स्थापित करने से बने हैं।

भारतीय मानस में आदर्श पुत्र, भाई, सखा, स्वामी,पति, राजा के रूप में प्रतिष्ठित राम का संपूर्ण जीवन लोक संग्रह के सत्कर्म से सुवासित है। यही उनकी प्रासंगिकता का रहस्य है कि उनका रामराज्य गोस्वामीजीसे लेकर महात्मा गांधी तक का आदर्श रहा, जिसके लिए राजा राम का कीर्तन हमारी सफलता सुनिश्चित करने वाला बन गया। ये दो शब्द थे, जिन्होंने भारत में विदेशियों के पैर जमने नहीं दिए। अंग्रेजों के भी पैर पडे तो वे जहां, जहां भारतीयों को ले गए, राम ही दासों के संबल रहे और ये रामदास ही वहां के शासक बन गए। भले ही राम का आदर्श अभी चरितार्थ नहीं हो पाया।

भारतीय आदर्श नायक राम प्रजारंजनके ऐसे प्रतिष्ठित प्रतीक हैं कि लोकतांत्रिक भारत के मन का लक्ष्य ही रामराज्य हैं क्योंकि राजा राम के राज्य में लोग सभी कष्टों से मुक्त, सुखोंसे युक्त और स्वधर्म का पालन करते हुए प्रीतिपूर्वक एकता एवं शांति का जीवन जीते हैं। राम ने राजा बनते ही सबको अभय दान दिया।

जो अनीति कुछ भाखौंभाई, तौमोहिबरजहुभय बिसराई। अर्थात्- मेरे किसी आदेश निर्देश, वचन में अनीति की गंध भी आए तो निर्भय होकर मुझे रोको। सारी प्रजा को भाई का संबोधन आज के लोकतंत्र में है कहीं ऐसा उदाहरण। ध्यान दें राम ने दो विमत, माता कैकेईऔर मंथरा को भी विरोध में नहीं रहने दिया। वास्तव में पिता महाराजा दशरथ का नहीं माता कैकेयी,सौतेली माता का आदेश था चौदह वर्ष का वनवास और उन्होंने उसका पालन करते हुए राज्य की शत प्रतिशत जनता का मत अपने पक्ष में पाकर राज्य का नेतृत्व किया, लोकतंत्र का आदर्श भी राम का राज्याभिषेक है। उनके जन्म दिन पर हम भी संकल्प लें कि हम हृदय से राम का आवाहन करेंगे। अपने देश का भाग्य संवारेंगे

राम बनकर। देश के नेता तो राम या राम जैसे ही होने चाहिए। हमारे नेता तो राम या राम जैसे ही हो सकते हैं। राजनीति को दस्युनीतिबना देने वाले नहीं। जो जोड-तोड से गणितीय आंकडे को पक्ष में करके सत्ताधीशबन बैठते है।

Monday, March 23, 2009

बीमा में लेटलतीफी ठीक नहीं

इंश्योरेंस के क्षेत्र में लेटलतीफी जैसे शब्द बहुत कुछ प्रभावित करते हैं। प्रीमियम में डिले से निवेशकों को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। प्रीमियम का भुगतान प्रभावित होने से असर बीमा कवर की शर्तो पर पड़ता है। बीमा के क्षेत्र में कैसे ठीक से पैसा लगाया जाए कि किसी तरह की अड़चन न आए। इसके लिए कुछ खास चीजों पर गौर करना पड़ता है। इन पर अमल करके कोई भी निवेशक अपने निवेश और सुरक्षा शर्तो को बेहतर बना सकता है।

समय पर पैसा जमा करें
बीमा के प्रीमियम का समय पर भुगतान बहुत ही जरूरी है। ये निवेश की तरह नहीं है, जहां अगर आपका कोई भुगतान लेट हो जाए, तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। यहां प्रीमियम का भुगतान लटकने से काफी कुछ प्रभावित होता है। अगर प्रीमियम का समय पर भुगतान न किया जाए, तो बीमा कवर खत्म हो सकता है। ऐसा इसलिए भी जरूरी होता है कि आप जिस मकसद से पैसा जमा कर रहे हैं, उसका पूरा फायदा आपको मिले। बीमा क्षेत्र में भी निवेश के दूसरे तौर-तरीकों की तरह व्यवहार करने से आप मुसीबत में फंस सकते हैं।

आगे की योजना बनाएं बीमा में निवेश के लिए कुछ प्री प्लानिंग कर लेनी चाहिए। आपको जब भी प्रीमियम देना हो, उसके लिए कुछ महीने पहले से ही बचत शुरू कर देनी चाहिए। अचानक आप जब भी पैसा निकालने की कोशिश करेंगे, दिक्कत होगी। ऐसी स्थिति आपके सामने उस वक्त भी आ सकती है, जब आप पहली बार पॉलिसी खरीद रहे हों। इसके लिए जरूरी है कि आप जब पॉलिसी खरीद रहे हों, उसी समय सारी शर्तो को ठीक से समझ लेना चाहिए। इसमें ये भी पता चल जाता है कि आपको बीमा की किस्त किस समय देनी है। इसलिए इसके बाद आप किस्त के लिए पैसा जुटाने की प्लॉनिंग कर सकते हैं। वैसे भी कल किसी ने नहीं देखा है। इसलिए जब भी आप पॉलिसी खरीदें, उसके भुगतान के लिए पूरी प्लॉनिंग बना लें।

पॉलिसी का नेचर देखें
प्रीमियम के भुगतान में पॉलिसी का नेचर बहुत ही खास रोल अदा करता है। इसलिए जरूरी है कि आप जो भी पॉलिसी खरीदें, उसके बारे में ठीक से समझ लें। कोई भी पॉलिसी ये मायने नहीं रखती कि उससे आपको कितना बीमा कवर मिल रहा है। जरूरी ये है कि उसके लिए अपनाए जाने वाले प्रॉसेस में कोई बाधा न आए। किसी भी स्थिति में प्रीमियम का भुगतान प्रभावित नहीं होना चाहिए। पॉलिसी खरीदते वक्त ही प्रीमियम की शर्तो और उससे संबंधित तारीखों को साफ कर लेना चाहिए। इससे आपकी बीमा पॉलिसी सही चलती रहेगी।

Friday, March 13, 2009

परिश्रम से भाग्य बनता है मनुष्य

जुआरी भाग्य को बनाता नहीं आजमाता है जबकि किसान अपने कठिन परिश्रम एवं मेहनत से अपने भाग्य का निर्माण करने वाला स्वयं होता है। किसान अपनी समस्त शक्तियों को भीतर से खींचकर बाहर ले आता है, इसीलिए उसे कृषक कहा जाता है।

पंडित जी ने कहा कि कृषक शब्द कृष्टि से बना है और कृष्टि का अर्थ है मेहनत कर गुप्त शक्तियों का विकास करने वाला। वेदों में बहुधा कृष्टि शब्द पूर्ण विकसित मनुष्य के लिए आया है हर मनुष्य को कृष्टि नहीं कह सकते। जिसने अपनी अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास किया है वहीं कृष्टि या पूरा मनुष्य है। इसी प्रकार कला कौशल करने वाले सभी उद्योगी पुरुष खेती से किसी न किसी प्रकार संबंध रखते हैं। कृषि मूल हैं, अन्य समस्त व्यवसाय शाखा मात्र है। आम की शाखा भी आम ही कहलाती है। कृषि और कृष्टि शब्द कितने महत्वपूर्ण और व्यापक हैं, इसका पता अंग्रेजी के कल्चर शब्द से होता है। कल्चर के लिए संस्कृत में संस्कृति शब्द है। कृषि और संस्कृति में थोडा सा ही भेद है। कल्चर का साधारण अर्थ है एग्रीकल्चर या खेती। हिंदी भाषा में खेती, खेतिहर, किसान शब्दों के बहुत संकुचित अर्थ है इसलिए शायद कोई बडा आदमी खेतिहर या किसान कहलाने में संकोच करेगा। कृषक समाज का अधोभाग समझा जाता है परंतु संस्कृत का कृषि शब्द संस्कृत शब्द से भी अधिक उत्कृष्ट है क्योंकि संस्कृति या संस्कार का अर्थ तो है ही शोधना या मैल को दूर करना।

उन्होंने कहा कि चावलों से कंकडियों को बीनकर फेंक देना चावलों का संस्कार है परन्तु कृषि का अर्थ है गुप्त शक्तियों का विकास करना, जैसे बरगद के छोटे से बीज में निहित शक्तियों का इस प्रकार प्रादुर्भाव होना कि बरगद का बडा वृक्ष हो जाए। जैसे बरगद के बीच में बरगद की शक्तियां निहित है। जैसे बरगद का बीज घडे के भीतर पडा वृक्ष नहीं हो सकता जब तक कि उसकी कृषि न की जाए, इसी प्रकार मनुष्य की शक्तियां बिना कृषक के बाहर नहीं आती। उन्होंने कहा कि माता-पिता आचार्य, समाज, सरकार ये सब वस्तुत: कृषक हैं। जो मानवी शक्तियों को खींचकर बाहर लाते और मनुष्य को साधारण पशु से सुसंस्कृत, सुविकसित तथा कृष्टि बना देते हैं।

गौ-सेवा से जीवन हो सकता है सार्थक

बाला जी मंदिर में प्रवचन देते हुए महंत गोपालदास ने गौ-सेवा की महिमा का बखान किया। उन्होंने कहा कि गौ-सेवा से एक ही साथ 33करोड देवता प्रसन्न होते है। गाय का दूध, दूध ही नहीं अमृत तुल्य भी होता है। अगर बचपन से गाय के दूध पिलाया जाए तो बच्चे की बुद्धि कुशाग्र होती है।

उन्होंने कहा कि गाय का गोबर आंगन लिपने एवं मंगल कार्यो मे काम आता है। गौ-मूत्र पान करने से पेट के सभी विकार दूर होते हैं। गोबर, गौ मूत्र, गौ-दही, गौ-दूध, गौधृत ये पंचगव्य है। गाय की सेवा से भगवान शिव भी प्रसन्न होते है।

भगवान श्रीकृष्ण छह वर्ष के गोपाल बने क्योंकि उन्होंने गौ सेवा का संकल्प लिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने गौ सेवा करके गौ का महत्व बढाया। पर आज यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिस देश मे स्वयं भगवान अवतरित होकर गौ-सेवा का महत्व बताया, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण के भारत देश में गौ-माताओं दुर्दशा हो रही है।

उन्होंने कहा कि संसार मे हर व्यक्ति किसी न किसी कारण दुखी है। कोई अपने कर्मों या अपने पर आई विपदाओं से दुखी हैं अर्थात वह अपने दुखों के कारण दुखी हैं मगर कोई दूसरे के सुख से दुखी है अर्थात ईष्र्या के कारण भी दुखी है। यानी यहां दुखी हर कोई है कारण भले ही भिन्न-भिन्न हो सकते है।

ब्रह्मचर्य से मन-वचन और कर्म में आती है शुद्धि

ब्रह्मचर्य शक्ति का भंडार है, ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ब्रह्म में चरना, गति करना व ब्रह्म को खाना है। ब्रह्मचर्य रहने से मन, वचन और कर्म तीनों प्रकार के संयम करने से आत्मा स्थिर व शांत होती है और विचारों में शुद्धि की बुनियाद बनती है।

पंडित जी ने कहा कि ब्रह्मचर्य का अर्थ शरीर के रस की रक्षा करना नहीं है। बल्कि किसी भोग्य विषय की ओर प्रवृत्ति करके न जाने का नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है। अखण्ड ब्रह्मचर्य सिद्ध होने से ही मनुष्य आत्म शुद्धि की अंतिम स्थिति तक पहुंच सकता है। आत्म शुद्धि होने पर ही मानव को मोक्ष प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य का नाश ही मृत्यु है और ब्रह्मचर्य का पालन ही जीवन है। भगवान हनुमान ने उम्र भर ब्रह्मचर्य का पालन कर इतिहास में अमरत्व प्राप्त किया। आज भी ब्रह्मचर्य पुरुषों की गिनती में भगवान हनुमान को श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य माना गया है।

ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले को सदा चार बातों का पालन करना होता है, वह चिंता नहीं करता, भय रहित रहता है, भोग व विकारों से दूर रहता है और कटु वचनों का प्रयोग करता है। ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य रोगों से मुक्त हो जाता है जिससे वह रूप वान होता जाता है। साथ ही उसकी वाणी मधुर होती जाती है, जिससे वह दूसरों को प्रिय लगने लगता है। इसी कारण वह अन्यों के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बनता है। ब्रह्मचर्य जीवन सर्व रत्नों की खान है और आत्म शुद्धि का मूल तत्व है जो मनुष्य ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोभ नहीं करते वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा उसके पालन से होती है और ब्रह्मचर्य मनुष्य विषय विकार जन्य खाद्य पदार्थों दर्शन और स्वर्ण से सुरक्षित रहकर कामादिक होकर अपने उद्देश्य शांति पथ पर चलता हुआ मोक्ष को प्राप्त कर जाता है।

उन्होंने कहा कि जीवन में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व है। ब्रह्मचर्य के पालन से मन शांत, विचारों में शुद्धता आती है। ब्रह्मचर्य करने वाला मानव सदाचार का पालन करता है। संतों के अनुसार ब्रह्मचर्य से मनुष्य में ब्रह्म के तत्व आने प्रारंभ हो जाते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता वह ब्रह्म में लीन होता जाता है।

कर्म योग ही जीवन का आधार

संसार में प्रत्येक मनुष्य मन व आत्मा से शुद्ध होने के बाद भी अपने कर्म के कारण ही सुख या दुख पाता है। परंतु कर्म करते हुए उसे यह अंदाजा नही होता है कि व सकाम कर्म कर रहा है या निष्काम। यानी बिना ज्ञान के कर्म करते हुए सफल होना चाहता है जो संभव नहीं।

क्योंकि ज्ञान के साथ कर्म करने पर ही जीवन सार्थक बनता है। उक्त विचार मंगलवार को चिन्मयामिशन एवं चिन्मयायुवा केंद्र के निदेशक ब्रहमचारीगोविंद चैतन्य महाराज ने मद्रासीसम्मेलन में व्यक्त किए। चिन्मयामिशन जमशेदपुर एवं मद्रासीसम्मेलन के संयुक्त तत्वावधान में पांच दिवसीय श्रीमद्भागवत प्रवचन की शुरुआत करते हुए स्वामी जी ने गीता के प्रथम एवं दूसरे अध्याय की संक्षिप्त चर्चा करने के बाद तीसरे अध्याय की व्याख्या शुरू की।

उन्होंने बताया कि तीसरा अध्याय कर्मयोग प्रधान है। यानी इसमें ज्ञान योग एवं कर्म योग के एक साथ निर्वहन की जानकारी दी गयी है। उन्होंने कहा कि हम जो भी करते है मन और भावना के कारण करते है। यदि मन व भावना के साथ-साथ दिमाग काम नही करता तो हम मनुष्य नही पशु होते। इसलिए जीवन में कर्म करना उतना महत्वपूर्ण नही जितना ज्ञान के साथ कर्म करना। उन्होंने कहा, गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोगी बनने को कहा है, क्योंकि यही जीवन का आधार है।

अच्छे व्यवहार से यादों में जिंदा रहता है इंसान

स्थानीय वेदांत आश्रम में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए स्वामी देवेंद्रानंदगिरी ने कह कि दुनिया की हर चीज एक दिन मिट जाती है मगर मनुष्य का व्यवहार होता है जिसके कारण वह लोगों पर अपना प्रभाव छोड पाता है। यदि मनुष्य अच्छे व्यवहार करता है तो वह सदा दूसरों की यादों में जिंदा रहता है।

स्वामी जी ने कहा कि जीवन में मेहनत करके मनुष्य तरह-तरह की सुविधाएं व साधन प्राप्त करता है लेकिन यह भूल जाता है कि कोई भी वस्तु या सुख जीवन भर साथ नहीं देते और एक दिन मिट जाते हैं लेकिन मनुष्य द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कर्म उसकी मृत्यु के उपरांत भी लोगों की याद में बसे रहते हैं। उन्होंने कहा कि सत्य पथ पर चलते हुए मनुष्य को कई कठिनाईयों का सामना करना पडता है लेकिन इस पथ पर चलने वाले का अंत हमेशा सुखदायी होता है लेकिन बुराई के पथ पर चलने वाले मनुष्य जीवन में कभी भी मानसिक शांति नहीं प्राप्त कर सकता।

मनुष्य को सदा अच्छे संगत का प्रयास करना चाहिए क्योंकि बुरी संगत आदमी के जीवन पर बुरा प्रभाव डालती है जबकि अच्छी संगत इंसान को अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। जीवन में मनुष्य की संगति भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि बुरी संगती में बैठने वाला कभी न कभी बुराई के प्रति प्रभावित हो जाता है और उसका जीवन में पतन आरंभ हो जाता है इसलिए व्यक्ति को हमेशा अच्छी संगति में रहना चाहिए।

उन्होंने कहा कि किसी के प्रति भी मन में द्वेष नहीं रखना चाहिए और हमेशा दूसरों की भलाई सोचनी चाहिए क्योंकि इसी में मनुष्य की अपनी भलाई है। मनुष्य को हर मुश्किल में हिम्मत का दामन थामे रहने का उपदेश देते हुए उन्होंने बताया कि कठिनाइयां परीक्षा के समान हैं और सफलता आने की सूचक हैं।

भाग्य, प्रारब्ध व पुरुषार्थ के हाथों में है जीवन की डोर

बाला जी मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए महंत गोपालदास ने कहा कि जीवन में हर किसी को सभी कुछ नहीं मिलता है। जीवन की डोर भाग्य, प्रारब्ध और पुरुषार्थ के हाथों में है। अगर संतोष का सहारा न हो तो इंसान टूट जाए और जिंदगी बिखर जाए।

उन्होंने कहा कि जब इंसान किसी कार्य को नहीं कर पाता है और उसे असफलता मिलती है तो वह भाग्य को दोष देने लगता है। यही कहता है कि शायद ईश्वर को यह मंजूर न था। कोई बहुत परिश्रम करता है और थोडा ही कमा पाता है, परिवार का खर्च चलाना कठिन हो जाता है। इसके विपरीत कोई बहुत थोडे से ही परिश्रम में इतना कमा लेता है कि उसे कई दिनों तक कमाने की आवश्यकता नहीं होती। इसी को भाग्य कहा जाता है। यहां व्यक्ति की प्रतिभा, योग्यता, दक्षता और अपने विषय अथवा क्षेत्र में विशेष योग्यता का जो उसके परिश्रम में लगी है उसका भी मूल्यांकन होता है। हमें अपनी पालाता विकसित करनी चाहिए तभी हमारा समुचित मूल्यांकन हो सकता है नहीं तो हम जीवन भर अपनी असफलता के कारणों को दूसरों में ढूंढते रहेंगे और कुंठित होंगे।

जीवन सतत गतिशील रहता है एक पल के लिए भी रुकता नहीं। तमाम लोग हमसे जुडते रहते हैं जिनमें कुछ अपने परिवार के सदस्य भी हो जाते हैं, जिनका कुछ वर्षो पहले तक कहीं अता-पता नहीं होता और उनसे भावनात्मक संबंध बहुत गहराई तक बन जाते हैं जैसे कि अपनी संतान या पत्नी आदि।

इन सबको हमसे अपेक्षाएं भी रहती हैं, होना स्वाभाविक भी है क्योंकि इन सबके भरण-पोषण का दायित्व भी हम पर रहता है किंतु इन सभी का भाग्य भी साथ रहता है। इनके हिस्से का भाग्य इन्हें मिलता है। माध्यम चाहे हमें ही बनना पडता हो।

आवश्यकतानुसार कभी-कभी अपनी संतानों के खर्चे अपने से कहीं अधिक होते हैं, जबकि कमाते हम हैं। यह उनके भाग्य का ही भाग होता है। हम केवल अपने लिए ही नहीं जीते, हमसे जुडे बहुत से लोग होते हैं जो केवल हमारे ही सहारे होते हैं, जैसे हमारे परिवार के सदस्य।

कभी-कभी तो जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते जीवन की संध्या हो जाती हैं और हम आशाओं के सहारे जीवन गुजार देते हैं। इस प्रकार संसार और जीवन चक्र का चलता रहता है। हमें केवल अपने कर्तव्य को देखना है अधिकार को नहीं।

गौ-दान से मिलती है संकटों से मुक्ति

स्थानीय तीन शक्ति मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन देते पंडित भोलानाथ ने कहा कि गाय पृथ्वी का प्रतीक है क्योंकि जिस प्रकार पृथ्वी छोटा बीज डालने पर अन्न का भंडार प्रदान करती है, उसी प्रकार गाय घास खाकर अमृत तुल्य दूध प्रदान करती है। गाय पृथ्वी पर समस्त देवताओं की साक्षात प्रतिनिधि है। इसकी देह के अंग प्रत्यंग में सभी देवी देवता स्थित हैं। भगवान शिव की सवारी धर्म रूपी बैल है जिसके आधार पर भगवान सृष्टि का संचालन करने के लिए सवार होकर विभिन्न आदर्श प्रस्तुत करते हैं। शास्त्रों में भी कहा गया है कि गाय के शरीर में देवताओं का वास व पैरों में तीर्थ स्थल होता है। जब कोई भी मनुष्य गौ- माता की धुली को अपने माथे पर लगाता है तो उसे तत्काल किसी तीर्थ स्थल के जल में स्नान करने जितना पुण्य प्राप्त होता है और सफलता उसके कदम चूमती हैं। जहां पर गाय रहती हैं वह स्थान पवित्र होकर तीर्थ स्थल के समान हो जाता है। ऐसी भूमि पर प्राण त्यागने वाला इंसान तुरंत मुक्ति प्राप्त करता है। गाय सदा रहने वाली पुष्टि का कारण व लक्ष्मी की जड है। गौ माता को जो कुछ दिया जाता है उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता। जो लोग गौ -दान करते हैं वे सभी संकटों से मुक्त होकर दुष्कर्मो के पाप समूह से भी तर जाते हैं। गाय के सींगों के अग्र भाग में देवराज इंद्र, हृदय में कार्तिकेय, सिर में ब्रह्मा और ललाट में शंकर, दोनों नेत्रों में चंद्रमा और सूर्य, जीभ में सरस्वती, दांतों में मरुद्गण,स्तनों में चारों पवित्र समुद्र, गौ मूत्र में गंगा, गोबर में लक्ष्मी व खुरों के अग्र भाग में अप्सराएं निवास करती हैं। गाय के सींगों में चर व अचर सभी तीर्थ विद्यमान है। ललाट में देवी पार्वती व हुंकार में भगवती सरस्वती का वास है। गालों में यम व यक्ष निवास करते हैं।

शांति के लिए काम, क्रोध व लोभ का त्याग जरूरी

पाप का बाप काम, क्रोध और लोभ है, दुर्वासना इसकी बहन है। विवेक रूपी पुरुष की शांति रूपी पत्‍‌नी को दुर्वासना भगा देती है और अपने अधीन करके विषय भोगों की इच्छा कराती है जिससे जीव अशांति को प्राप्त होता है इसलिए आत्मिक शांति प्राप्त करने के लिए जीवन में काम, क्रोध और लोभ से दूर रहना अति आवश्यक है।

पंडित जी ने कहा कि जिस घर का काम और क्रोध का डेरा हो वहां शांति कैसे हो सकती है और शांति के बिना सुख कैसे संभव है। दुर्भावनाओं से दूर रहकर मनुष्य को प्रभु की निष्काम भक्ति का रास्ता अपनाना चाहिए क्योंकि इससे व्यक्ति जहां ईश्वर की समस्त दया का अधिकारी होता है वहीं मानसिक सुख भी भोगता है। मनुष्य का जीवन अमूल्य होने पर भी जीवन रोका नहीं जा सकता किन्तु जीवन यात्रा को परिवर्तित जरूर किया जा सकता है।

अहं और ममता जीव के बन्धन का कारण है इसलिए शरीर से अहं और शरीर के संबंधी प्राणी पदार्थो से ममता का त्याग करना साधक को जरूरी है। जो मनुष्य अपने मन का गुलाम है वह लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता अपितु लक्ष्य की प्राप्ति तो वही कर सकता है जिसने मन को गुलाम बना रखा है। जीवन में सफलता चाहने वालों को एक-एक क्षण की कदर करनी चाहिए क्योंकि दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन बीता हुआ समय कभी दोबारा नहीं आता। संकल्पों का स्वरूप से नष्ट होना ही संकल्पों का त्याग नहीं, किन्तु जैसे ज्ञान से पूर्व अपने को संकल्पों का कर्ता मानता था और अब तत्व ज्ञान होने पर अपने को संकल्पों का साक्षी मानता है।

किसी मानव में त्याग की भावना कितनी है इस बात से न केवल उसकी महानता का पता चलता है बल्कि इसी के अनुसार वह लोगों में अधिक लोकप्रिय भी पाया जाता है। जीवन में त्याग की भावना हर मनुष्य में होना बहुत जरूरी है क्योंकि त्याग से जहां मन को शांति मिलती है वहीं प्रभु भी ऐसे मनुष्य से प्रेम करते हुए उसका साथ देते हैं।

Wednesday, March 4, 2009

मंगलमूर्ति अमंगलहारी

एक हजार साल पहले राजस्थान के सवाई माधोपुर व दौसामें दो पहाडियोंके बीच स्थित घाटा मेहंदीपुरकी तरफ रुख करने से पहले लोग हजार बार विचार करते थे। कारण-चारो ओर घना जंगल और शेर, चीते, बघेरोंका भय। बची-खुची कसर पूरी कर देते थे लुटेरे, लेकिन मंगलमूर्तिहनुमान जी की कृपा से आतंक का नाम भी न बचा। कहते हैं, पवनपुत्र के स्मरण मात्र से भक्तों की आकांक्षापूर्तिहो जाती है। यह बात केवल कहने की नहीं..प्राचीन मेहंदीपुरबालाजीमंदिर के सामने लाखों भक्तों की अनवरत उपस्थिति से पता चलता है कि कलियुग में प्रभु ने

श्री बालाजीके रूप में मानव को भक्ति और मुक्ति का आशीर्वाद प्रदान किया है। मान्यता है कि मेहंदीपुरबालाजीके दर्शन करने से भूत-प्रेत की बाधा तो दूर होती ही है, पागलपन, मिर्गी, लकवा, टीबीऔर बांझपन की बीमारी से भी मुक्ति मिल जाती है।

श्रीबालाजी,श्री प्रेतराजसरकार और श्रीकोतवाल,यानी भैरवजीकी प्रतिमाएं एक पतली-सी गली में स्थित मंदिर में हैं। पुराणविदोंका मानना है कि भगवान श्रीराम ने परमभक्तहनुमानजी को वरदान दिया था, हे पवनपुत्र! कलियुग में घाटा मेहंदीपुरमें आपकी पूजा प्रधान देव के रूप में होगी।

जानकार बताते हैं कि महंत किशोर पुरी के पूर्वजों को स्वप्न में हनुमान जी ने दर्शन दिए और कहा, मेरा विग्रह पास में ही स्थित है। आप अर्चना करें। भोर हुई और महंत जी का परिवार जंगल में पहुंचा। वहां पर्वत में ही प्रभु का विग्रह था। श्री प्रेतराजसरकार और श्री कोतवालजी(भैरव) की प्रतिमाएं भी वहीं थी। कहते हैं कि किसी दंभी शासक ने एक बार बालाजीकी मूर्ति खोदकर निकालने का प्रयास किया था, लेकिन सैकडों हाथ की गहराई तक खुदाई करने के बाद भी जब वह प्रभुश्रीके चरणों तक भी नहीं पहुंच पाया, तो उसने क्षमा मांगी और लौट गया। सच तो यह है कि मूर्ति को किसी कलाकार ने अलग से नहीं गढा, प्रभु विग्रह उसी पर्वत का अंग है और पर्वत हनुमानजी के कनक भूधराकारशरीर का प्रतीक। मूर्ति के चरणों से एक छोटी-सी जलधारा सदैव बहती रहती है, जिसका स्त्रोत कोई खोज नहीं पाया। जिस तरह जलधारा का अंत नहीं, उसी प्रकार मंगलमूर्तिबालाजीकी कृपावृष्टिकी भी कोई सीमा नहीं! बांदी कुईस्टेशन से तकरीबन 24मील दूर स्थित मंदिर में भक्तगण बालाजीको लड्डू, प्रेतराजजीको चावल और कोतवालजीको उडद का प्रसाद चढाते हैं, इसमें से दो लड्डू रोगों से त्रस्त भक्त खाते हैं और शेष प्रसाद पशुओं को खिला दिया जाता है। कहने की बात नहीं कि मंगलमूर्तिकी कृपा से हर व्याधि नष्ट हो जाती है।

मैनपुरी की देवी मां शीतला

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैनपुरी नगर की देवी माँ शीतला की महिमा अपरम्पार है। उनका भव्य मंदिर मैनपुरी कुरावली मार्ग पर मैनपुरी नगर से लगभग 4कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 16वींशताब्दी में मैनपुरी के आठवें व चौहान राजवंश के नब्बे वेंराजा जगतमणिने कराया था। कहा जाता है कि जो व्यक्ति एक बार भी इस मंदिर में विराजितमां शीतला के दर्शन कर लेता है। उसकी मनोकामनाएंनिश्चित ही पूरी हो जाती हैं। इसीलिए यहां वर्ष भर विभिन्न जाति-सम्प्रदाय के भक्त-श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। चैत्र व आश्विन मास की नवदुर्गा में तो यहां असंख्य श्रद्धालु आते है। मैनपुरी में मां शीतलाको मैनपुरी के राजा जगतमणिही यहां लाए थे। वे प्राय: मां शीतला के दर्शनों के लिए अपने उत्तरप्रदेश स्थित गुमधामकडा मानिकपुर (प्रतापगढ) जाया करते थे। एक बार जब वह चैत्र मास में कडा मानिकपुर गए हुए थे, तो वहां सप्तमी-अष्टमी की रात्रि से शीतला मां ने उन्हें स्वप्न दिया और यह कहा कि राजन! में तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूं। अब तुम्हें इतना कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है कि तुम अपना राजकाजछोड कर मेरे दर्शनों के लिए यहां आओ। तुम मुझे मैनपुरी ले चलो। मैं तुम्हें वह जगह बताए देती हूं, जहां पर कि मैं प्रकट होऊंगी। राजा जगमणिने माँ शीतला द्वारा बताए गए स्थान पर पृथ्वी से खोदना शुरू किया, जिसमें कि उन्हें लाल पत्थर व काले संगमरमर से निर्मित माँ शीतला की अत्यंत आकर्षक प्रतिमा प्राप्त हुई। प्रकटव्यस्थान पर राजा जगतमणिने 24फुट की वर्गाकृतिके अन्तर्गत 9.9फुट ऊंचे मंदिर का निर्माण कराया। तत्पश्चात मां शीतला की प्राण प्रतिष्ठा अत्यंत धूमधाम से कराई गई। मैनपुरी में मां शीतला का मंदिर बनते ही वह यहां की सांस-सांस में बस गई और यहां की कुल देवी मानी जाने लगी। मैनपुरी की देवी मां शीतला का मंदिर प्राचीनतम आध्यात्मिक व सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ तत्कालीन शिल्पकला व पुरातत्व की भी बहुमूल्य कृति है। मंदिर के मुख्य द्वारा के शीर्ष पर दुधाराखड्ग धाम भैरों बाबा की मूर्ति है। जिनकी अगलबगल में दो खौफनाक सिंहों की मूर्तियां हैं। मंदिर के मुख्य दरवाजे को पार करने के बाद अंदर के प्रकोष्ठ में मां शीतला का अत्यंत आकर्षक विग्रह स्थापित है। यह विग्रह अत्यंत सिद्ध है। विग्रह के सम्मुख वह झार आज भी बनी हुई है। जिसमें से कि मां शीतला प्रकट हुई थीं। बताया जाता है कि इस झार की गहराई अथाह है। मां शीतला के मंदिर से गंगा व यमुना नदियों की दूरी बिल्कुल एक समान है। मैनपुरी का किला व अश्वावलिका किला भी यहां से समान दूरी पर स्थित है। प्रमुख नदी ईसनमैनपुरी में मां शीतला के मंदिर की परिक्रमा सी करती हुई निकलती है। लोग-बागों ने मां शीतला के करिश्मे प्रत्यक्ष देखे है। कुछ वर्ष पूर्व मां शीतला की प्रतिमा को कुछ व्यक्तियों ने मंदिर से चुरा लिया था। जिससे कुछ ही दिनों में चारों के परिवार खण्डित होने लगे। साथ ही भांति-भांति की व्याधियोंने उन्हें घेर लिया। परिणामत:उन्होंने एक रात को देवी की प्रतिमा को यहां की देवी गेट चुंगी के पास रखा छोड दिया। देवी जी के भक्तों ने प्राप्त प्रतिमा को मंदिर में पहुंचाया। प्रतिमा के मंदिर में पहुंचते ही मूर्ति चोरों की सटी व्याधियांअपने आप समाप्त हो गई। देवीजीके मंदिर के निकट रहने वाले संत मिट्ठू लाल व नागा बाबा में देवी जी के प्रताप से इतने अधिक दैव्यत्वकी प्राप्ति हो गई थी कि वह जब कभी जिस किसी वस्तु की आवश्यकता अनुभव करते थे, वह वस्तु उनकी कुटिया में स्वत:आ जाती थी। मैनपुरी की देवी मां शीतलाका आशीर्वाद लेने असंख्य जन यहां आते है। यहां बच्चों के मुण्डन यज्ञोपवीत संसार, श्राद्ध, कथा व हवन आदि कराना निहायत शुभ माना जाता है। कोई यहां मनौती करने आता है तो कोई अपना मनोरथ पूरा होने पर बोले गए अनुष्ठान पूरे करता दिखाई देता है। आज भी मैनपुरी में बहुत सारे ऐसे परिवार हैं, जिनकी दिनचर्या मां शीतला के दर्शन करने के बाद आरंभ होती है। वस्तुत:न केवल मैनपुरी का अपितु उसके निकटवर्ती व दूरदराज के क्षेत्रों की जनता का भी बहुत बडा प्रतिशत मैनपुरी की देवी के साथ किसी न किसी रूप में जुडा हुआ है।

Friday, February 20, 2009

मुक्तिदायिनी है बाबा विश्वनाथ की काशी

काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:।पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवरबन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधवके नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने कु्रद्ध होकर ब्रह्माजीका पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थकहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजीसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई।

एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगातटपर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रियलगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आकर रहने लगे। राजा दिवोदासअपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणोंको काशी छोडने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह भंग नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन:बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों,सूर्यदेव, ब्रह्माजीऔर नारायण ने बडा प्रयास किया। गणेशजीके सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिङ्गकी स्थापना करके उसकी अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए।

काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बडे पुराण स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन,महाश्मशान,रुद्रावास,काशिका,तप:स्थली,मुक्तिभूमि,शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरीहैं।

स्कन्दपुराणकाशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है-

भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया

या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:।

या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते

सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥

जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली(मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनीगङ्गाके तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवितहै, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे।

सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत:प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्रसुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूपप्रकाशित हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है-

यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।

जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥

काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्रसुनकर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति कराके मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-

अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।

काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।।

ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिíलंगका स्वरूप मानता है-

अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं<न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:पञ्चक्रोशपरीमितम्।">पञ्चक्रोशपरीमितम्।

ज्योतिíलङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥

पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिíलंग-स्वरूपमानना चाहिए।

अनेक प्रकाण्ड विद्वानों ने काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत का समर्थन करते हुए बहुत कुछ लिखा और कहा है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजीद्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग नामक पुस्तक में श्रीरामकृष्णपरमहंसदेवका इस विषय में प्रत्यक्ष अनुभव वíणत है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में मृतक को तारकमन्त्रप्रदान करने की सत्यता उजागर करता है। लेकिन यहां यह भी बात ध्यान रहे कि काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकरभैरवी यातना भी भोगनी पडती है। सहस्रोंवर्षो तक रुद्रपिशाचबनकर कुकर्मो का प्रायश्चित करने के उपरांत ही उसे मुक्ति मिलती है। किंतु काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता।

फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है।

मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, यहां निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। तभी तो काशी की स्तुति में कहा गया है-यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।

पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥

विश्वनाथजी की अतिश्रेष्ठनगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है।

भक्तों के हितार्थ प्रगटे शेषावतार श्री बलदेव

ब्रज का इतिहास बहुत पुराना है। त्रेतायुग में कौशलेन्द्र श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न ने मधुवनमें मधु के पुत्र लवण दैत्य का संहार कर मथुरा को बसाया था। द्वापर युग में मथुरा मण्डल के बृहद्वनमें, विद्रुमवन के नाम से विख्यात पूर्वी छोर पर वसुदेव-पत्नी रोहिणी जी निवास करती थीं। ब्रज का वास्तविक परिचय देने वाले गोपालतापिनी उपनिषद ने इसका उल्लेख बलभद्र वन से किया है तथा इसको ब्रज के समस्त वनों से श्रेष्ठ माना है। बाबा नन्द की गौओंके बडे-बडे खिरकइसी स्थल पर थे। महाराज वसुदेव के कंस के कारागार में बन्दी हो जाने के बाद नन्दरायजी ने रोहिणी को यहीं निवास दिया था। इसी स्थान पर संकर्षण भगवान श्री दाऊजीश्रीबलदेवमहाराज का अवतरण भाद्र शुक्ल षष्ठी को हुआ था। बलदेव जी श्रीकृष्ण से कुछ माह बडे थे। मां देवकी के गर्भ से वसुदेव की द्वितीय पत्नी रोहिणी के उदर में स्थानान्तरित ही प्रकट हुए। नन्दबाबाके कहने पर उनके कुलगुरु गर्गाचार्यने नामकरण किया था। दोनों भाइयों ने छठे वर्ष में प्रवेश होने से ही समाज-सेवा एवं दैत्य-संहार का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। दोनों ने ही अवन्तीपुर(उज्जैन) में मुनि सांदीपनजी के गुरुकुल में प्रवेश लिया तथा बडे-बडे दैवीय कार्य किए।

नृपश्रेष्ठककुद्मीकी तपस्वी कन्या रेवती से बलराम जी का पाणिग्रहण हुआ। राजा ककुद्मीको ब्रह्मा जी ने रेवती-हेतु बलराम जी को वर प्रस्तावित किया। रेवती ने भगवती की आराधना की। बलराम जी को वर रूप में पाया। रेवती भी अपने पति के समान ही तेजस्विनी व गम्भीर थी।

बलराम जी शेषावतारहैं। परब्रह्म परमात्मा श्रीशेषभगवान ही इस संसार के विधाता, परिपोषकऔर संहर्ता हैं। समय-समय पर यह सृष्टि भगवान शेष में ही लय और शेष से ही प्रकट होती है। भगवान शेष अपने भक्त, उपासक और ज्ञानियोंको इच्छा के अनुसार मुक्ति और भक्ति प्रदान करते हैं। भागवतमेंभगवान श्रीकृष्ण ने शेषावतारभगवान् बलभ्रदको अपना धाम बताया है-शेषाख्यं धाम मामकम्।विद्वानों ने धाम का अर्थ प्रभाव, शक्ति व तेज माना है। इन सबका भगवान बलदेव में समावेश है। न तो भगवान् श्रीकृष्ण श्रीबलभद्रसे अलग हैं और न श्रीबलभद्रही भगवान श्रीकृष्ण से अलग हैं, दोनों एक ही हैं।

भागवत माहात्म्य के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारकामें निवास के अनन्तर ब्रज भी रिक्त हो गया था। जिस समय राजा परीक्षित हस्तिनापुर के शासक बने ब्रज का अधिकांश भाग वन रूप में ही था। उस काल में ही श्रीकृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्रनाभको मथुरा की गद्दी पर बिठाया गया था। राजा वज्रनाभने आध्यात्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत हो चार देव और चार देवियों के श्री विग्रह ब्रज मण्डल में प्रतिष्ठित कराए। उन्हीं में श्री केशवदेव,श्रीहरदेव,श्रीगोविन्ददेवके साथ ही बलदेव जी को रेवती सहित उन्हीं के प्रिय स्थल बलभद्र वन में प्रतिष्ठित कराया था। कालान्तर में वे ही भूमिस्थपूजा-अर्चना स्वीकार करते रहे और अगहन शुक्ल पूर्णिमा सम्वत्1638वि.को पुन:श्रद्धालु भक्तों के हितार्थ प्रगटे।अन्तरात्मा की विशेष प्रेरणा से भगवान् शेष के जन्म-जन्मान्तर के अनन्य भक्त एवं श्री शेष के सगुण स्वरूप एवं विभवावतारभगवान् बलदेव के अर्चावतारकी पूजा करने की अमिट इच्छा रखने वाले आदि गौड अहिवासीब्राह्मण महर्षि सोभरिके वंशज श्री कल्याण देवाचार्यजी वहीं हरे-भरे वट वृक्ष तले भगवान के ध्यान में मग्न रहने लगे। सदैव की भांति एक दिवस इनकी श्री दाऊजीके ध्यान में निर्विकल्प समाधि लगी हुई थी कि भगवान बलदेव ने रेवती के साथ भक्तवरगोस्वामी कल्याण देव जी को साक्षात दर्शन दिए। आनन्दातिरेक से भक्त के नेत्रों में अश्रुधारा बह निकली। भगवन्ने कहा मुझको आप इसी वट वृक्ष तले से खुदवा कर प्रकट करो। श्यामा गाय यहीं पर स्वयमेव मेरे ऊपर दूध देती है। यह कहकर भगवान अंतर्धान हो गए। इधर गोकुल के गोस्वामी गोकुलनाथजी महाराज अपनी श्यामा गौ के दूध देने के वृत्तांत से बडे चिन्तित थे। भगवान ने उन्हें भी स्वप्न दिया कि मेरे प्राकट्य में कल्याण देव को सहयोग करो। जब गोकुलनाथजी विद्रुमवनआए तो कल्याण देव जी कस्सी से स्थल खोदते हुए मिले। भगवान श्री विग्रह रूप में प्रकट हुए तथा युगल छवि को कल्याण देव जी की कुटिया में सिंहासन पर विधि-विधान से प्रतिष्ठित किया गया। गोकुलनाथजी ने अपनी उसी श्यामा गाय के दूध की खीर का कटोरा भगवान के सम्मुख अर्पित किया जो भगवान के मुख्य नैवेद्य के रूप में आज तक मान्य है। उसी स्थल पर गोकुलनाथजी ने भगवान के प्रथम मंदिर का निर्माण कराया। मार्गशीर्ष(अगहन)पूर्णिमा को पूरे ब्रजमंडलमें दाऊ जी महाराज का प्राकट्य महोत्सव मनाया जाता है। बलराम,बलदेव,बलभद्र,दाऊ आदि नामों से इनकी प्रसिद्धि है।