Tuesday, September 29, 2009

प्राचीन देवी मंदिर में पूरी होती है मनोकामना

डासना स्थित प्राचीन देवी मंदिर में आज तक जो भी श्रद्धा के साथ माई के दरबार में गया वह खाली हाथ वापस नहीं आया। क्षेत्रीय लोगों व मंदिर के महंत का दावा है कि मंदिर के पास स्थित तालाब में नहाने से चर्मरोग दूर हो जाता है।

शारदीय नवरात्रके अवसर पर मंदिर में नौ दिवसीय शतचंडी यज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। इस यज्ञ में देश के 11अखाडों के धर्म प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे। मंदिर के महंत का दावा है कि देवी चंडी की पूजा मुगल काल से चली आ रही है। मुगलों शासक ने मंदिर पर हमला बोल दिया गया था। उस दौरान मंदिर के सेवादार ने देवी की मूर्ति तालाब में डाल दिया था। देवी मंदिर के पास में ही महाभारत काल का बना हुआ शिवमंदिर भी मौजूद है।

गाजियाबाद से आठ किमी दूर हापुड रोड पर जेल रोड से दक्षिण दिशा में डासना कस्बे में चंडी देवी का मंदिर है। देवी की मूर्ति कसौटी पत्थर से निर्मित है। बताया जाता है कि इस तरह की मूर्ति उत्तर भारत में अकेली प्रतिमा है। मंदिर के महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती का दावा है कि देश में इस तरह कसौटी पत्थर की तीन व पाकिस्तान में एक प्रतिमा हैं। कलकत्ता के दक्षिणेश्वरकाली मां की प्रतिमा, गोहाटी में कामाख्यादेवी, डासना में काली मां की व पाकिस्तान में इंग्लाजदेवी की मूर्ति कसौटी पत्थर की बनी है।

स्थानीय श्रद्धालुओं का दावा है कि मंदिर में प्रतिमा को जितनी बार निहारा जाता है प्रतिमा की भाव भंगिमा बदली नजर आती है। बताया जाता है कि मुगल शासकों ने हमले के दौरान मंदिर को नष्ट कर दिया था। तत्कालीन मंदिर के पुजारी ने देवी प्रतिमा को तालाब में डूबो दिया था।

कई सालों के बाद मंदिर में जगद्गिरि महाराज ने तपस्या की थी। एक दिन स्वप्न में देवी ने जगद्गिरि को स्वप्न में आदेश दिया कि मुझे तालाब से निकाल कर मंदिर में प्रतिष्ठापित करो। श्री गिरि ने स्वप्न टूटते ही तालाब से प्रतिमा निकालकर मंदिर में प्रतिष्ठापित किया था। कई वर्षो के बाद मौनी बाबा व ब्रम्हानंदसरस्वती ने मंदिर के जीर्णोद्धार में विशेष सहयोग किया था। एक मान्यता यह भी है कि पाडंवोंने अज्ञातवास के दौरान मंदिर में समय व्यतीत किया था। पांडव काल का शिव मंदिर भी मौजूद है।

मंदिर के पुजारी स्वामी केशवानंदका दावा है कि मंदिर के निर्माण के समय घना जंगल था। मंदिर के पास तालाब में एक शेर प्रतिदिन पानी पीने आता था। पानी पीने के बाद शेर बिना किसी को कोई हानि पहुंचाए देवी प्रतिमा के सामने कुछ देर तक बैठने के बाद वापस चला जाता था। बताया जाता है कि शेर ने अपने प्राण मंदिर में त्याग दिए थे। उसकी मौत के बाद देवी प्रतिमा के सामने शेर की प्रतिमा बनाई गई, जो आज भी मौजूद है।

मंदिर के महंत का दावा है कि देवी भक्तों द्वारा दी गई सात्विक पूजा स्वीकार करती हैं। तांत्रिक पूजा नहीं स्वीकार करती हैं। नवरात्रके अवसर पर आज भी कई प्रांतों के लोग देवी दर्शन के लिए मंदिर में पहुंचते हैं। मंदिर के पास ही रामलीला का मंचन भी किया जाता है। वर्तमान में तालाब उपेक्षित होने के कारण कमल, कुमुदनीव जंगली घासों से अटा हुआ है।

Friday, September 18, 2009

ग्रह-नक्षत्र का प्रभाव

हमारा शरीर ब्रह्मांड का ही एक अंश है। शास्त्रों में कहा गया है कि यत पिंडेतत ब्रह्मांडे।यह शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है। जिन तत्वों से शरीर बना है, उन्हीं तत्वों से पशु-पक्षी, पेड-पौधे, ग्रह-नक्षत्र भी बने हैं।

संपूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य, सौरमंडल, सैकडों सूर्यो से बनी नीहारिकाएंऔर नीहारिकाओंसे बनी आकाशगंगा भी आती है। सौरमंडल अनेक ग्रहों से बना है। हमारी पृथ्वी सूर्यमंडल का एक छोटा अंश है। पृथ्वी सूर्यमंडल के एक कोने में है और सूर्य की परिक्रमा कर शक्ति संग्रह करती है। इसलिए इस पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक जीव पर स्वभाविकरूप से ग्रह-नक्षत्र का गहरा प्रभाव पडता है।

प्राय: ऐसा कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति को शनिचराग्रह लगा हुआ है या शनि की साढेसाती लगी हुई है। इसका अर्थ है कि सूर्यमंडल का एक प्रभावशाली ग्रह शनि पृथ्वी के मनुष्य को प्रभावित कर रहा है।

यह खोज हमारे ऋषि-मुनियों की है। विज्ञान कहता है कि पृथ्वी के केंद्र में मैग्नेटिकऔर फेरसऑक्साइडहै, जिसके कारण उसमें गुरुत्वाकर्षण है। इसका सीधा अर्थ यह है कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति की वजह से मनुष्य का शरीर प्रतिक्षण प्रभावित होता रहता है। इस दृष्टि से मनुष्य सीधे सूर्य से प्रभाव ग्रहण करता है।

हम जो सांस लेते हैं, वह ऑक्सीजनहमें परोक्ष रूप से सूर्य से ही प्राप्त होती है, क्योंकि सूर्य से ऊर्जा लेकर ही पेड-पौधे ऑक्सीजनका निर्माण करते हैं। सूर्योदय होते ही पूरा वातावरण ऑक्सीजन,नाइट्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइडसे भर जाता है। वातावरण में अनुमानत:41प्रतिशत ऑक्सीजन,4प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइडऔर 55प्रतिशत नाइट्रोजन रहती है। नाइट्रोजन को हम फलों-सब्जियों के माध्यम से ग्रहण करते हैं। प्रात:काल में ऑक्सीजनअधिक रहती है, जिसमें प्राण तत्व मौजूद रहता है। इसके अलावा, वातावरण में अशुद्ध वायु के रूप में निगेटिव ऊर्जा भी रहती है, जिससे मनुष्य बीमार पड जाता है।

श्रीराम ने किया नवरात्र व्रत

मान्यता है कि शारदीय नवरात्रमें महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई। इसलिए इस समय आदिशक्तिकी आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। किष्किंधामें चिंतित श्रीराम रावण ने सीता का हरण कर लिया, जिससे श्रीराम दुखी और चिंतित थे। किष्किंधापर्वत पर वे लक्ष्मण के साथ रावण को पराजित करने की योजना बना रहे थे। उनकी सहायता के लिए उसी समय देवर्षिनारद वहां पहुंचे। श्रीराम को दुखी देखकर देवर्षिबोले, राघव! आप साधारण लोगों की भांति दुखी क्यों हैं? दुष्ट रावण ने सीता का अपहरण कर लिया है, क्योंकि वह अपने सिर पर मंडराती हुई मृत्यु के प्रति अनजान है। देवर्षिनारद का परामर्श रावण के वध का उपाय बताते हुए देवर्षिनारद ने श्रीराम को यह परामर्श दिया, आश्विन मास के नवरात्र-व्रतका श्रद्धापूर्वकअनुष्ठान करें। नवरात्रमें उपवास, भगवती-पूजन, मंत्र का जप और हवन मनोवांछित सिद्धि प्रदान करता है। पूर्वकाल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश और देवराज इंद्र भी इसका अनुष्ठान कर चुके हैं। किसी विपत्ति या कठिन समस्या से घिर जाने पर मनुष्य को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। महाशक्ति का परिचय

नारद ने संपूर्ण सृष्टि का संचालन करने वाली उस महाशक्ति का परिचय राम को देते हुए बताया कि वे सभी जगह विराजमान रहती हैं। उनकी कृपा से ही समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं। आराधना किए जाने पर भक्तों के दुखों को दूर करना उनका स्वाभाविक गुण है। त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनकी दी गई शक्ति से सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करते हैं। नवरात्रपूजा का विधान देवर्षिनारद ने राम को नवरात्रपूजा की विधि बताई कि समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को विराजमान कर दें। नौ दिनों तक उपवास रखते हुए उनकी आराधना करें। पूजा विधिपूर्वक होनी चाहिए। आप के इस अनुष्ठान का मैं आचार्य बनूंगा।

राम ने नारद के निर्देश पर एक उत्तम सिंहासन बनवाया और उस पर कल्याणमयीभगवती जगदंबा की मूर्ति विराजमान की। श्रीराम ने नौ दिनों तक उपवास करते हुए देवी-पूजा के सभी नियमों का पालन भी किया। जगदंबा का वरदान मान्यता है कि आश्विन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि की आधी रात में श्रीराम और लक्ष्मण के समक्ष भगवती महाशक्ति प्रकट हो गई। देवी उस समय सिंह पर बैठी हुई थीं। भगवती ने प्रसन्न-मुद्रा में कहा- श्रीराम! मैं आपके व्रत से संतुष्ट हूं।

जो आपके मन में है, वह मुझसे मांग लें। सभी जानते हैं कि रावण-वध के लिए ही आपने पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में अवतार लिया है। आप भगवान विष्णु के अंश से प्रकट हुए हैं और लक्ष्मण शेषनाग के अवतार हैं। सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, जो युद्ध में आपके सहायक होंगे। इन सबमेंमेरी शक्ति निहित है। आप अवश्य रावण का वध कर सकेंगे। अवतार का प्रयोजन पूर्ण हो जाने के बाद आप अपने परमधाम चले जाएंगे। इस प्रकार श्रीराम के शारदीय नवरात्र-व्रतसे प्रसन्न भगवती उन्हें मनोवांछित वर देकर अंतर्धान हो गई।

Tuesday, September 8, 2009

कलियुग में काली-उपासना

मान्यता है कि प्राणियों का दुख दूर करने के लिए देवी भगवती निराकार होकर भी अलग-अलग रूप धारण कर अवतार लेती हैं। देवी ही सत्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का आश्रय लेती हैं और संपूर्ण विश्व का सृजन, पालन और संहार करती हैं। काल पर भी शासन करने के कारण महाशक्ति काली कहलाती हैं। अवतार की कथाएं कालिकापुराणमें काली-अवतार की कथा है। इसके अनुसार, एक बार देवगण हिमालय पर जाकर देवी की स्तुति करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवती ने उन्हें दर्शन दिया और उनसे पूछा-तुम लोग किसकी स्तुति कर रहे हो? तभी देवी के शरीर से काले पहाड जैसे वर्ण वाली दिव्य नारी प्रकट हो गई। उस तेजस्विनी स्त्री ने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया-ये लोग मेरी ही स्तुति कर रहे हैं। उनका रंग काजल के समान काला था, इसलिए उनका नाम काली पड गया।

लगभग इसी से मिलती-जुलती कथा मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा-सप्तशती में भी मिलती है। शुम्भ-निशुम्भनामक दो दैत्य थे। उनके उपद्रव से पीडित होकर देवताओं ने महाशक्ति का आह्वान किया, तब पार्वती की देह से कौशिकीप्रकट हुई, जिनके अलग होते ही देवी का स्वरूप काला हो गया। इसलिए शिवप्रियापार्वती काली नाम से विख्यात हुई। आराधना तंत्रशास्त्रमें कहा गया है- कलौ काली कलौकाली नान्यदेव कलौयुगे।कलियुग में एकमात्र काली की आराधना ही पर्याप्त है। साथ ही, यह भी कहा गया है-कालिका मोक्षदादेवि कलौशीघ्र फलप्रदा।मोक्षदायिनीकाली की उपासना कलियुग में शीघ्र फल प्रदान करती है। शास्त्रों में कलियुग में कृष्णवर्ण [काले रंग] के देवी-देवताओं की पूजा को ही अभीष्ट-सिद्धिदायक बताया गया है, क्योंकि कलियुग की अधिष्ठात्री महाशक्ति काली स्वयं इसी वर्ण [रंग] की हैं। माना जाता है कि काली का रूप रौद्र है। उनके दांत बडे हैं। वे अपनी चार भुजाओं में क्रम से खड्ग, मुंड, वर और अभय धारण करती हैं। शिव की पत्नी काली के गले में नरमुंडोंकी माला है। हालांकि उनका यह रूप भयानक है, लेकिन कई ग्रंथों में उनके अन्य रूप का भी वर्णन है। भक्तों को जगदंबा का जो रूप प्रिय लगे, वह उनका उसी रूप में ध्यान कर सकता है। बनें पुत्र तंत्रशास्त्रकी दस महाविद्याओंमें काली को सबसे पहला स्थान दिया गया है, लेकिन काली की साधना के नियम बहुत कठोर हैं। इसलिए साधक पहले गुरु से दीक्षा लें और मंत्र का सविधि अनुष्ठान करें। यह सभी लोगों के लिए संभव नहीं है, इसलिए ऐसे लोग काली को माता मानकर पुत्र के रूप में उनकी शरण में चले जाएं। जो व्यक्ति जटिल मंत्रों की साधना नहीं कर पाते हों, वे सिर्फ काली नाम का जप करके उनकी अनुकंपा प्राप्त कर सकते हैं। टलते हैं संकट मान्यता है कि आज के समय में कठिन परिस्थितियों से सामना करने में काली अपने भक्तों की सहायता करती हैं। आज मनुष्य अपने को सब तरफ से असुरक्षित महसूस कर रहा है। काली माता का ध्यान करने से उनके मन में सुरक्षा का भाव आता है। उनकी अर्चना और स्मरण से बडे से बडा संकट भी टल जाता है। हम सभी मिलकर उनसे यह प्रार्थना करें कि वे अभाव और आतंक-स्वरूप असुरों का नाश कर मानवता की रक्षा करें। काली जयंती तंत्रग्रंथोंके अनुसार साधक आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन काली-जयंती मनाते हैं, लेकिन कुछ विद्वानों के विचार से जन्माष्टमी [भाद्रपद-कृष्ण-अष्टमी] काली की जयंती-तिथि है।

Sunday, September 6, 2009

सालासर के बालाजी

राजस्थान के चुरूजिले में स्थित है सालासर बालाजीका मंदिर। जयपुर बीकानेर सडक मार्ग पर स्थित सालासर धाम हनुमान भक्तों के बीच शक्ति स्थल के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर में अगाध आस्था है भक्तों की। आपको यहां हर दिन हजारों की संख्या में देशी-विदेशी भक्त मत्था टेकने के लिए कतारबद्ध खडे दिखाई देंगे।

जयपुर से लगभग 2घंटे के सफर के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। यहां हनुमानजी की वयस्क मूर्ति स्थापित है, इसलिए भक्तगण इसे बडे हनुमान जी पुकारते हैं। एक कथा के अनुसार, राजस्थान के नागौर जिले के एक छोटे से गांव असोतामें संवत 1811में शनिवार के दिन एक किसान का हल खेत की जुताई करते समय रुक गया। दरअसल, हल किसी शिला से टकरा गया था। वह तिथि श्रावण शुक्ल नवमी थी।

उसने उस स्थान की खुदाई की, तो मिट्टी और बालू से ढंकी हनुमान जी की प्रतिमा निकली। किसान और उसकी पत्नी ने इसे साफ किया और घटना की जानकारी गांव के लोगों को दी। माना जाता है कि उस रात असोताके जमींदार ने रात में स्वप्न देखा कि हनुमानजी कह रहे हैं कि मुझे असोतासे ले जाकर सालासारमें स्थापित कर दो। ठीक उसी रात सालासर के एक हनुमान भक्त मोहनदासको भी हनुमान जी ने स्वप्न दिया कि मैं असोतामें हूं, मुझे सालासर लाकर स्थापित करो। अगली सुबह मोहनदासने अपना सपना असोताके जमींदार को बताया। यह सुनकर जमींदार को आश्चर्य हुआ और उसने बालाजी[हनुमान जी] का आदेश मानकर प्रतिमा को सालासर में स्थापित करा दिया। धीरे-धीरे यह छोटा सा कस्बा सालासर धाम के नाम से विख्यात हो गया।

मंदिर परिसर में हनुमान भक्त मोहनदासऔर कानी दादी की समाधि है। यहां मोहनदासजी के जलाए गए अग्नि कुंड की धूनी आज भी जल रही है। भक्त इस अग्नि कुंड की विभूति अपने साथ ले जाते हैं। मान्यता है कि विभूति सारे कष्टों को हर लेती है। पिछले बीस वर्षो से यहां पवित्र रामायण का अखंड कीर्तन हो रहा है, जिसमें यहां आने वाला हर भक्त शामिल होता है और बालाजीके प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। चैत्र पूर्णिमा और आश्विन पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां बहुत बडा मेला लगता है।