Monday, March 23, 2009

बीमा में लेटलतीफी ठीक नहीं

इंश्योरेंस के क्षेत्र में लेटलतीफी जैसे शब्द बहुत कुछ प्रभावित करते हैं। प्रीमियम में डिले से निवेशकों को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। प्रीमियम का भुगतान प्रभावित होने से असर बीमा कवर की शर्तो पर पड़ता है। बीमा के क्षेत्र में कैसे ठीक से पैसा लगाया जाए कि किसी तरह की अड़चन न आए। इसके लिए कुछ खास चीजों पर गौर करना पड़ता है। इन पर अमल करके कोई भी निवेशक अपने निवेश और सुरक्षा शर्तो को बेहतर बना सकता है।

समय पर पैसा जमा करें
बीमा के प्रीमियम का समय पर भुगतान बहुत ही जरूरी है। ये निवेश की तरह नहीं है, जहां अगर आपका कोई भुगतान लेट हो जाए, तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। यहां प्रीमियम का भुगतान लटकने से काफी कुछ प्रभावित होता है। अगर प्रीमियम का समय पर भुगतान न किया जाए, तो बीमा कवर खत्म हो सकता है। ऐसा इसलिए भी जरूरी होता है कि आप जिस मकसद से पैसा जमा कर रहे हैं, उसका पूरा फायदा आपको मिले। बीमा क्षेत्र में भी निवेश के दूसरे तौर-तरीकों की तरह व्यवहार करने से आप मुसीबत में फंस सकते हैं।

आगे की योजना बनाएं बीमा में निवेश के लिए कुछ प्री प्लानिंग कर लेनी चाहिए। आपको जब भी प्रीमियम देना हो, उसके लिए कुछ महीने पहले से ही बचत शुरू कर देनी चाहिए। अचानक आप जब भी पैसा निकालने की कोशिश करेंगे, दिक्कत होगी। ऐसी स्थिति आपके सामने उस वक्त भी आ सकती है, जब आप पहली बार पॉलिसी खरीद रहे हों। इसके लिए जरूरी है कि आप जब पॉलिसी खरीद रहे हों, उसी समय सारी शर्तो को ठीक से समझ लेना चाहिए। इसमें ये भी पता चल जाता है कि आपको बीमा की किस्त किस समय देनी है। इसलिए इसके बाद आप किस्त के लिए पैसा जुटाने की प्लॉनिंग कर सकते हैं। वैसे भी कल किसी ने नहीं देखा है। इसलिए जब भी आप पॉलिसी खरीदें, उसके भुगतान के लिए पूरी प्लॉनिंग बना लें।

पॉलिसी का नेचर देखें
प्रीमियम के भुगतान में पॉलिसी का नेचर बहुत ही खास रोल अदा करता है। इसलिए जरूरी है कि आप जो भी पॉलिसी खरीदें, उसके बारे में ठीक से समझ लें। कोई भी पॉलिसी ये मायने नहीं रखती कि उससे आपको कितना बीमा कवर मिल रहा है। जरूरी ये है कि उसके लिए अपनाए जाने वाले प्रॉसेस में कोई बाधा न आए। किसी भी स्थिति में प्रीमियम का भुगतान प्रभावित नहीं होना चाहिए। पॉलिसी खरीदते वक्त ही प्रीमियम की शर्तो और उससे संबंधित तारीखों को साफ कर लेना चाहिए। इससे आपकी बीमा पॉलिसी सही चलती रहेगी।

Friday, March 13, 2009

परिश्रम से भाग्य बनता है मनुष्य

जुआरी भाग्य को बनाता नहीं आजमाता है जबकि किसान अपने कठिन परिश्रम एवं मेहनत से अपने भाग्य का निर्माण करने वाला स्वयं होता है। किसान अपनी समस्त शक्तियों को भीतर से खींचकर बाहर ले आता है, इसीलिए उसे कृषक कहा जाता है।

पंडित जी ने कहा कि कृषक शब्द कृष्टि से बना है और कृष्टि का अर्थ है मेहनत कर गुप्त शक्तियों का विकास करने वाला। वेदों में बहुधा कृष्टि शब्द पूर्ण विकसित मनुष्य के लिए आया है हर मनुष्य को कृष्टि नहीं कह सकते। जिसने अपनी अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास किया है वहीं कृष्टि या पूरा मनुष्य है। इसी प्रकार कला कौशल करने वाले सभी उद्योगी पुरुष खेती से किसी न किसी प्रकार संबंध रखते हैं। कृषि मूल हैं, अन्य समस्त व्यवसाय शाखा मात्र है। आम की शाखा भी आम ही कहलाती है। कृषि और कृष्टि शब्द कितने महत्वपूर्ण और व्यापक हैं, इसका पता अंग्रेजी के कल्चर शब्द से होता है। कल्चर के लिए संस्कृत में संस्कृति शब्द है। कृषि और संस्कृति में थोडा सा ही भेद है। कल्चर का साधारण अर्थ है एग्रीकल्चर या खेती। हिंदी भाषा में खेती, खेतिहर, किसान शब्दों के बहुत संकुचित अर्थ है इसलिए शायद कोई बडा आदमी खेतिहर या किसान कहलाने में संकोच करेगा। कृषक समाज का अधोभाग समझा जाता है परंतु संस्कृत का कृषि शब्द संस्कृत शब्द से भी अधिक उत्कृष्ट है क्योंकि संस्कृति या संस्कार का अर्थ तो है ही शोधना या मैल को दूर करना।

उन्होंने कहा कि चावलों से कंकडियों को बीनकर फेंक देना चावलों का संस्कार है परन्तु कृषि का अर्थ है गुप्त शक्तियों का विकास करना, जैसे बरगद के छोटे से बीज में निहित शक्तियों का इस प्रकार प्रादुर्भाव होना कि बरगद का बडा वृक्ष हो जाए। जैसे बरगद के बीच में बरगद की शक्तियां निहित है। जैसे बरगद का बीज घडे के भीतर पडा वृक्ष नहीं हो सकता जब तक कि उसकी कृषि न की जाए, इसी प्रकार मनुष्य की शक्तियां बिना कृषक के बाहर नहीं आती। उन्होंने कहा कि माता-पिता आचार्य, समाज, सरकार ये सब वस्तुत: कृषक हैं। जो मानवी शक्तियों को खींचकर बाहर लाते और मनुष्य को साधारण पशु से सुसंस्कृत, सुविकसित तथा कृष्टि बना देते हैं।

गौ-सेवा से जीवन हो सकता है सार्थक

बाला जी मंदिर में प्रवचन देते हुए महंत गोपालदास ने गौ-सेवा की महिमा का बखान किया। उन्होंने कहा कि गौ-सेवा से एक ही साथ 33करोड देवता प्रसन्न होते है। गाय का दूध, दूध ही नहीं अमृत तुल्य भी होता है। अगर बचपन से गाय के दूध पिलाया जाए तो बच्चे की बुद्धि कुशाग्र होती है।

उन्होंने कहा कि गाय का गोबर आंगन लिपने एवं मंगल कार्यो मे काम आता है। गौ-मूत्र पान करने से पेट के सभी विकार दूर होते हैं। गोबर, गौ मूत्र, गौ-दही, गौ-दूध, गौधृत ये पंचगव्य है। गाय की सेवा से भगवान शिव भी प्रसन्न होते है।

भगवान श्रीकृष्ण छह वर्ष के गोपाल बने क्योंकि उन्होंने गौ सेवा का संकल्प लिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने गौ सेवा करके गौ का महत्व बढाया। पर आज यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिस देश मे स्वयं भगवान अवतरित होकर गौ-सेवा का महत्व बताया, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण के भारत देश में गौ-माताओं दुर्दशा हो रही है।

उन्होंने कहा कि संसार मे हर व्यक्ति किसी न किसी कारण दुखी है। कोई अपने कर्मों या अपने पर आई विपदाओं से दुखी हैं अर्थात वह अपने दुखों के कारण दुखी हैं मगर कोई दूसरे के सुख से दुखी है अर्थात ईष्र्या के कारण भी दुखी है। यानी यहां दुखी हर कोई है कारण भले ही भिन्न-भिन्न हो सकते है।

ब्रह्मचर्य से मन-वचन और कर्म में आती है शुद्धि

ब्रह्मचर्य शक्ति का भंडार है, ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ब्रह्म में चरना, गति करना व ब्रह्म को खाना है। ब्रह्मचर्य रहने से मन, वचन और कर्म तीनों प्रकार के संयम करने से आत्मा स्थिर व शांत होती है और विचारों में शुद्धि की बुनियाद बनती है।

पंडित जी ने कहा कि ब्रह्मचर्य का अर्थ शरीर के रस की रक्षा करना नहीं है। बल्कि किसी भोग्य विषय की ओर प्रवृत्ति करके न जाने का नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है। अखण्ड ब्रह्मचर्य सिद्ध होने से ही मनुष्य आत्म शुद्धि की अंतिम स्थिति तक पहुंच सकता है। आत्म शुद्धि होने पर ही मानव को मोक्ष प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य का नाश ही मृत्यु है और ब्रह्मचर्य का पालन ही जीवन है। भगवान हनुमान ने उम्र भर ब्रह्मचर्य का पालन कर इतिहास में अमरत्व प्राप्त किया। आज भी ब्रह्मचर्य पुरुषों की गिनती में भगवान हनुमान को श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य माना गया है।

ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले को सदा चार बातों का पालन करना होता है, वह चिंता नहीं करता, भय रहित रहता है, भोग व विकारों से दूर रहता है और कटु वचनों का प्रयोग करता है। ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य रोगों से मुक्त हो जाता है जिससे वह रूप वान होता जाता है। साथ ही उसकी वाणी मधुर होती जाती है, जिससे वह दूसरों को प्रिय लगने लगता है। इसी कारण वह अन्यों के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बनता है। ब्रह्मचर्य जीवन सर्व रत्नों की खान है और आत्म शुद्धि का मूल तत्व है जो मनुष्य ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोभ नहीं करते वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा उसके पालन से होती है और ब्रह्मचर्य मनुष्य विषय विकार जन्य खाद्य पदार्थों दर्शन और स्वर्ण से सुरक्षित रहकर कामादिक होकर अपने उद्देश्य शांति पथ पर चलता हुआ मोक्ष को प्राप्त कर जाता है।

उन्होंने कहा कि जीवन में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व है। ब्रह्मचर्य के पालन से मन शांत, विचारों में शुद्धता आती है। ब्रह्मचर्य करने वाला मानव सदाचार का पालन करता है। संतों के अनुसार ब्रह्मचर्य से मनुष्य में ब्रह्म के तत्व आने प्रारंभ हो जाते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता वह ब्रह्म में लीन होता जाता है।

कर्म योग ही जीवन का आधार

संसार में प्रत्येक मनुष्य मन व आत्मा से शुद्ध होने के बाद भी अपने कर्म के कारण ही सुख या दुख पाता है। परंतु कर्म करते हुए उसे यह अंदाजा नही होता है कि व सकाम कर्म कर रहा है या निष्काम। यानी बिना ज्ञान के कर्म करते हुए सफल होना चाहता है जो संभव नहीं।

क्योंकि ज्ञान के साथ कर्म करने पर ही जीवन सार्थक बनता है। उक्त विचार मंगलवार को चिन्मयामिशन एवं चिन्मयायुवा केंद्र के निदेशक ब्रहमचारीगोविंद चैतन्य महाराज ने मद्रासीसम्मेलन में व्यक्त किए। चिन्मयामिशन जमशेदपुर एवं मद्रासीसम्मेलन के संयुक्त तत्वावधान में पांच दिवसीय श्रीमद्भागवत प्रवचन की शुरुआत करते हुए स्वामी जी ने गीता के प्रथम एवं दूसरे अध्याय की संक्षिप्त चर्चा करने के बाद तीसरे अध्याय की व्याख्या शुरू की।

उन्होंने बताया कि तीसरा अध्याय कर्मयोग प्रधान है। यानी इसमें ज्ञान योग एवं कर्म योग के एक साथ निर्वहन की जानकारी दी गयी है। उन्होंने कहा कि हम जो भी करते है मन और भावना के कारण करते है। यदि मन व भावना के साथ-साथ दिमाग काम नही करता तो हम मनुष्य नही पशु होते। इसलिए जीवन में कर्म करना उतना महत्वपूर्ण नही जितना ज्ञान के साथ कर्म करना। उन्होंने कहा, गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोगी बनने को कहा है, क्योंकि यही जीवन का आधार है।

अच्छे व्यवहार से यादों में जिंदा रहता है इंसान

स्थानीय वेदांत आश्रम में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए स्वामी देवेंद्रानंदगिरी ने कह कि दुनिया की हर चीज एक दिन मिट जाती है मगर मनुष्य का व्यवहार होता है जिसके कारण वह लोगों पर अपना प्रभाव छोड पाता है। यदि मनुष्य अच्छे व्यवहार करता है तो वह सदा दूसरों की यादों में जिंदा रहता है।

स्वामी जी ने कहा कि जीवन में मेहनत करके मनुष्य तरह-तरह की सुविधाएं व साधन प्राप्त करता है लेकिन यह भूल जाता है कि कोई भी वस्तु या सुख जीवन भर साथ नहीं देते और एक दिन मिट जाते हैं लेकिन मनुष्य द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कर्म उसकी मृत्यु के उपरांत भी लोगों की याद में बसे रहते हैं। उन्होंने कहा कि सत्य पथ पर चलते हुए मनुष्य को कई कठिनाईयों का सामना करना पडता है लेकिन इस पथ पर चलने वाले का अंत हमेशा सुखदायी होता है लेकिन बुराई के पथ पर चलने वाले मनुष्य जीवन में कभी भी मानसिक शांति नहीं प्राप्त कर सकता।

मनुष्य को सदा अच्छे संगत का प्रयास करना चाहिए क्योंकि बुरी संगत आदमी के जीवन पर बुरा प्रभाव डालती है जबकि अच्छी संगत इंसान को अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। जीवन में मनुष्य की संगति भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि बुरी संगती में बैठने वाला कभी न कभी बुराई के प्रति प्रभावित हो जाता है और उसका जीवन में पतन आरंभ हो जाता है इसलिए व्यक्ति को हमेशा अच्छी संगति में रहना चाहिए।

उन्होंने कहा कि किसी के प्रति भी मन में द्वेष नहीं रखना चाहिए और हमेशा दूसरों की भलाई सोचनी चाहिए क्योंकि इसी में मनुष्य की अपनी भलाई है। मनुष्य को हर मुश्किल में हिम्मत का दामन थामे रहने का उपदेश देते हुए उन्होंने बताया कि कठिनाइयां परीक्षा के समान हैं और सफलता आने की सूचक हैं।

भाग्य, प्रारब्ध व पुरुषार्थ के हाथों में है जीवन की डोर

बाला जी मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए महंत गोपालदास ने कहा कि जीवन में हर किसी को सभी कुछ नहीं मिलता है। जीवन की डोर भाग्य, प्रारब्ध और पुरुषार्थ के हाथों में है। अगर संतोष का सहारा न हो तो इंसान टूट जाए और जिंदगी बिखर जाए।

उन्होंने कहा कि जब इंसान किसी कार्य को नहीं कर पाता है और उसे असफलता मिलती है तो वह भाग्य को दोष देने लगता है। यही कहता है कि शायद ईश्वर को यह मंजूर न था। कोई बहुत परिश्रम करता है और थोडा ही कमा पाता है, परिवार का खर्च चलाना कठिन हो जाता है। इसके विपरीत कोई बहुत थोडे से ही परिश्रम में इतना कमा लेता है कि उसे कई दिनों तक कमाने की आवश्यकता नहीं होती। इसी को भाग्य कहा जाता है। यहां व्यक्ति की प्रतिभा, योग्यता, दक्षता और अपने विषय अथवा क्षेत्र में विशेष योग्यता का जो उसके परिश्रम में लगी है उसका भी मूल्यांकन होता है। हमें अपनी पालाता विकसित करनी चाहिए तभी हमारा समुचित मूल्यांकन हो सकता है नहीं तो हम जीवन भर अपनी असफलता के कारणों को दूसरों में ढूंढते रहेंगे और कुंठित होंगे।

जीवन सतत गतिशील रहता है एक पल के लिए भी रुकता नहीं। तमाम लोग हमसे जुडते रहते हैं जिनमें कुछ अपने परिवार के सदस्य भी हो जाते हैं, जिनका कुछ वर्षो पहले तक कहीं अता-पता नहीं होता और उनसे भावनात्मक संबंध बहुत गहराई तक बन जाते हैं जैसे कि अपनी संतान या पत्नी आदि।

इन सबको हमसे अपेक्षाएं भी रहती हैं, होना स्वाभाविक भी है क्योंकि इन सबके भरण-पोषण का दायित्व भी हम पर रहता है किंतु इन सभी का भाग्य भी साथ रहता है। इनके हिस्से का भाग्य इन्हें मिलता है। माध्यम चाहे हमें ही बनना पडता हो।

आवश्यकतानुसार कभी-कभी अपनी संतानों के खर्चे अपने से कहीं अधिक होते हैं, जबकि कमाते हम हैं। यह उनके भाग्य का ही भाग होता है। हम केवल अपने लिए ही नहीं जीते, हमसे जुडे बहुत से लोग होते हैं जो केवल हमारे ही सहारे होते हैं, जैसे हमारे परिवार के सदस्य।

कभी-कभी तो जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते जीवन की संध्या हो जाती हैं और हम आशाओं के सहारे जीवन गुजार देते हैं। इस प्रकार संसार और जीवन चक्र का चलता रहता है। हमें केवल अपने कर्तव्य को देखना है अधिकार को नहीं।

गौ-दान से मिलती है संकटों से मुक्ति

स्थानीय तीन शक्ति मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन देते पंडित भोलानाथ ने कहा कि गाय पृथ्वी का प्रतीक है क्योंकि जिस प्रकार पृथ्वी छोटा बीज डालने पर अन्न का भंडार प्रदान करती है, उसी प्रकार गाय घास खाकर अमृत तुल्य दूध प्रदान करती है। गाय पृथ्वी पर समस्त देवताओं की साक्षात प्रतिनिधि है। इसकी देह के अंग प्रत्यंग में सभी देवी देवता स्थित हैं। भगवान शिव की सवारी धर्म रूपी बैल है जिसके आधार पर भगवान सृष्टि का संचालन करने के लिए सवार होकर विभिन्न आदर्श प्रस्तुत करते हैं। शास्त्रों में भी कहा गया है कि गाय के शरीर में देवताओं का वास व पैरों में तीर्थ स्थल होता है। जब कोई भी मनुष्य गौ- माता की धुली को अपने माथे पर लगाता है तो उसे तत्काल किसी तीर्थ स्थल के जल में स्नान करने जितना पुण्य प्राप्त होता है और सफलता उसके कदम चूमती हैं। जहां पर गाय रहती हैं वह स्थान पवित्र होकर तीर्थ स्थल के समान हो जाता है। ऐसी भूमि पर प्राण त्यागने वाला इंसान तुरंत मुक्ति प्राप्त करता है। गाय सदा रहने वाली पुष्टि का कारण व लक्ष्मी की जड है। गौ माता को जो कुछ दिया जाता है उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता। जो लोग गौ -दान करते हैं वे सभी संकटों से मुक्त होकर दुष्कर्मो के पाप समूह से भी तर जाते हैं। गाय के सींगों के अग्र भाग में देवराज इंद्र, हृदय में कार्तिकेय, सिर में ब्रह्मा और ललाट में शंकर, दोनों नेत्रों में चंद्रमा और सूर्य, जीभ में सरस्वती, दांतों में मरुद्गण,स्तनों में चारों पवित्र समुद्र, गौ मूत्र में गंगा, गोबर में लक्ष्मी व खुरों के अग्र भाग में अप्सराएं निवास करती हैं। गाय के सींगों में चर व अचर सभी तीर्थ विद्यमान है। ललाट में देवी पार्वती व हुंकार में भगवती सरस्वती का वास है। गालों में यम व यक्ष निवास करते हैं।

शांति के लिए काम, क्रोध व लोभ का त्याग जरूरी

पाप का बाप काम, क्रोध और लोभ है, दुर्वासना इसकी बहन है। विवेक रूपी पुरुष की शांति रूपी पत्‍‌नी को दुर्वासना भगा देती है और अपने अधीन करके विषय भोगों की इच्छा कराती है जिससे जीव अशांति को प्राप्त होता है इसलिए आत्मिक शांति प्राप्त करने के लिए जीवन में काम, क्रोध और लोभ से दूर रहना अति आवश्यक है।

पंडित जी ने कहा कि जिस घर का काम और क्रोध का डेरा हो वहां शांति कैसे हो सकती है और शांति के बिना सुख कैसे संभव है। दुर्भावनाओं से दूर रहकर मनुष्य को प्रभु की निष्काम भक्ति का रास्ता अपनाना चाहिए क्योंकि इससे व्यक्ति जहां ईश्वर की समस्त दया का अधिकारी होता है वहीं मानसिक सुख भी भोगता है। मनुष्य का जीवन अमूल्य होने पर भी जीवन रोका नहीं जा सकता किन्तु जीवन यात्रा को परिवर्तित जरूर किया जा सकता है।

अहं और ममता जीव के बन्धन का कारण है इसलिए शरीर से अहं और शरीर के संबंधी प्राणी पदार्थो से ममता का त्याग करना साधक को जरूरी है। जो मनुष्य अपने मन का गुलाम है वह लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता अपितु लक्ष्य की प्राप्ति तो वही कर सकता है जिसने मन को गुलाम बना रखा है। जीवन में सफलता चाहने वालों को एक-एक क्षण की कदर करनी चाहिए क्योंकि दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन बीता हुआ समय कभी दोबारा नहीं आता। संकल्पों का स्वरूप से नष्ट होना ही संकल्पों का त्याग नहीं, किन्तु जैसे ज्ञान से पूर्व अपने को संकल्पों का कर्ता मानता था और अब तत्व ज्ञान होने पर अपने को संकल्पों का साक्षी मानता है।

किसी मानव में त्याग की भावना कितनी है इस बात से न केवल उसकी महानता का पता चलता है बल्कि इसी के अनुसार वह लोगों में अधिक लोकप्रिय भी पाया जाता है। जीवन में त्याग की भावना हर मनुष्य में होना बहुत जरूरी है क्योंकि त्याग से जहां मन को शांति मिलती है वहीं प्रभु भी ऐसे मनुष्य से प्रेम करते हुए उसका साथ देते हैं।

Wednesday, March 4, 2009

मंगलमूर्ति अमंगलहारी

एक हजार साल पहले राजस्थान के सवाई माधोपुर व दौसामें दो पहाडियोंके बीच स्थित घाटा मेहंदीपुरकी तरफ रुख करने से पहले लोग हजार बार विचार करते थे। कारण-चारो ओर घना जंगल और शेर, चीते, बघेरोंका भय। बची-खुची कसर पूरी कर देते थे लुटेरे, लेकिन मंगलमूर्तिहनुमान जी की कृपा से आतंक का नाम भी न बचा। कहते हैं, पवनपुत्र के स्मरण मात्र से भक्तों की आकांक्षापूर्तिहो जाती है। यह बात केवल कहने की नहीं..प्राचीन मेहंदीपुरबालाजीमंदिर के सामने लाखों भक्तों की अनवरत उपस्थिति से पता चलता है कि कलियुग में प्रभु ने

श्री बालाजीके रूप में मानव को भक्ति और मुक्ति का आशीर्वाद प्रदान किया है। मान्यता है कि मेहंदीपुरबालाजीके दर्शन करने से भूत-प्रेत की बाधा तो दूर होती ही है, पागलपन, मिर्गी, लकवा, टीबीऔर बांझपन की बीमारी से भी मुक्ति मिल जाती है।

श्रीबालाजी,श्री प्रेतराजसरकार और श्रीकोतवाल,यानी भैरवजीकी प्रतिमाएं एक पतली-सी गली में स्थित मंदिर में हैं। पुराणविदोंका मानना है कि भगवान श्रीराम ने परमभक्तहनुमानजी को वरदान दिया था, हे पवनपुत्र! कलियुग में घाटा मेहंदीपुरमें आपकी पूजा प्रधान देव के रूप में होगी।

जानकार बताते हैं कि महंत किशोर पुरी के पूर्वजों को स्वप्न में हनुमान जी ने दर्शन दिए और कहा, मेरा विग्रह पास में ही स्थित है। आप अर्चना करें। भोर हुई और महंत जी का परिवार जंगल में पहुंचा। वहां पर्वत में ही प्रभु का विग्रह था। श्री प्रेतराजसरकार और श्री कोतवालजी(भैरव) की प्रतिमाएं भी वहीं थी। कहते हैं कि किसी दंभी शासक ने एक बार बालाजीकी मूर्ति खोदकर निकालने का प्रयास किया था, लेकिन सैकडों हाथ की गहराई तक खुदाई करने के बाद भी जब वह प्रभुश्रीके चरणों तक भी नहीं पहुंच पाया, तो उसने क्षमा मांगी और लौट गया। सच तो यह है कि मूर्ति को किसी कलाकार ने अलग से नहीं गढा, प्रभु विग्रह उसी पर्वत का अंग है और पर्वत हनुमानजी के कनक भूधराकारशरीर का प्रतीक। मूर्ति के चरणों से एक छोटी-सी जलधारा सदैव बहती रहती है, जिसका स्त्रोत कोई खोज नहीं पाया। जिस तरह जलधारा का अंत नहीं, उसी प्रकार मंगलमूर्तिबालाजीकी कृपावृष्टिकी भी कोई सीमा नहीं! बांदी कुईस्टेशन से तकरीबन 24मील दूर स्थित मंदिर में भक्तगण बालाजीको लड्डू, प्रेतराजजीको चावल और कोतवालजीको उडद का प्रसाद चढाते हैं, इसमें से दो लड्डू रोगों से त्रस्त भक्त खाते हैं और शेष प्रसाद पशुओं को खिला दिया जाता है। कहने की बात नहीं कि मंगलमूर्तिकी कृपा से हर व्याधि नष्ट हो जाती है।

मैनपुरी की देवी मां शीतला

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैनपुरी नगर की देवी माँ शीतला की महिमा अपरम्पार है। उनका भव्य मंदिर मैनपुरी कुरावली मार्ग पर मैनपुरी नगर से लगभग 4कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 16वींशताब्दी में मैनपुरी के आठवें व चौहान राजवंश के नब्बे वेंराजा जगतमणिने कराया था। कहा जाता है कि जो व्यक्ति एक बार भी इस मंदिर में विराजितमां शीतला के दर्शन कर लेता है। उसकी मनोकामनाएंनिश्चित ही पूरी हो जाती हैं। इसीलिए यहां वर्ष भर विभिन्न जाति-सम्प्रदाय के भक्त-श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। चैत्र व आश्विन मास की नवदुर्गा में तो यहां असंख्य श्रद्धालु आते है। मैनपुरी में मां शीतलाको मैनपुरी के राजा जगतमणिही यहां लाए थे। वे प्राय: मां शीतला के दर्शनों के लिए अपने उत्तरप्रदेश स्थित गुमधामकडा मानिकपुर (प्रतापगढ) जाया करते थे। एक बार जब वह चैत्र मास में कडा मानिकपुर गए हुए थे, तो वहां सप्तमी-अष्टमी की रात्रि से शीतला मां ने उन्हें स्वप्न दिया और यह कहा कि राजन! में तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूं। अब तुम्हें इतना कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है कि तुम अपना राजकाजछोड कर मेरे दर्शनों के लिए यहां आओ। तुम मुझे मैनपुरी ले चलो। मैं तुम्हें वह जगह बताए देती हूं, जहां पर कि मैं प्रकट होऊंगी। राजा जगमणिने माँ शीतला द्वारा बताए गए स्थान पर पृथ्वी से खोदना शुरू किया, जिसमें कि उन्हें लाल पत्थर व काले संगमरमर से निर्मित माँ शीतला की अत्यंत आकर्षक प्रतिमा प्राप्त हुई। प्रकटव्यस्थान पर राजा जगतमणिने 24फुट की वर्गाकृतिके अन्तर्गत 9.9फुट ऊंचे मंदिर का निर्माण कराया। तत्पश्चात मां शीतला की प्राण प्रतिष्ठा अत्यंत धूमधाम से कराई गई। मैनपुरी में मां शीतला का मंदिर बनते ही वह यहां की सांस-सांस में बस गई और यहां की कुल देवी मानी जाने लगी। मैनपुरी की देवी मां शीतला का मंदिर प्राचीनतम आध्यात्मिक व सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ तत्कालीन शिल्पकला व पुरातत्व की भी बहुमूल्य कृति है। मंदिर के मुख्य द्वारा के शीर्ष पर दुधाराखड्ग धाम भैरों बाबा की मूर्ति है। जिनकी अगलबगल में दो खौफनाक सिंहों की मूर्तियां हैं। मंदिर के मुख्य दरवाजे को पार करने के बाद अंदर के प्रकोष्ठ में मां शीतला का अत्यंत आकर्षक विग्रह स्थापित है। यह विग्रह अत्यंत सिद्ध है। विग्रह के सम्मुख वह झार आज भी बनी हुई है। जिसमें से कि मां शीतला प्रकट हुई थीं। बताया जाता है कि इस झार की गहराई अथाह है। मां शीतला के मंदिर से गंगा व यमुना नदियों की दूरी बिल्कुल एक समान है। मैनपुरी का किला व अश्वावलिका किला भी यहां से समान दूरी पर स्थित है। प्रमुख नदी ईसनमैनपुरी में मां शीतला के मंदिर की परिक्रमा सी करती हुई निकलती है। लोग-बागों ने मां शीतला के करिश्मे प्रत्यक्ष देखे है। कुछ वर्ष पूर्व मां शीतला की प्रतिमा को कुछ व्यक्तियों ने मंदिर से चुरा लिया था। जिससे कुछ ही दिनों में चारों के परिवार खण्डित होने लगे। साथ ही भांति-भांति की व्याधियोंने उन्हें घेर लिया। परिणामत:उन्होंने एक रात को देवी की प्रतिमा को यहां की देवी गेट चुंगी के पास रखा छोड दिया। देवी जी के भक्तों ने प्राप्त प्रतिमा को मंदिर में पहुंचाया। प्रतिमा के मंदिर में पहुंचते ही मूर्ति चोरों की सटी व्याधियांअपने आप समाप्त हो गई। देवीजीके मंदिर के निकट रहने वाले संत मिट्ठू लाल व नागा बाबा में देवी जी के प्रताप से इतने अधिक दैव्यत्वकी प्राप्ति हो गई थी कि वह जब कभी जिस किसी वस्तु की आवश्यकता अनुभव करते थे, वह वस्तु उनकी कुटिया में स्वत:आ जाती थी। मैनपुरी की देवी मां शीतलाका आशीर्वाद लेने असंख्य जन यहां आते है। यहां बच्चों के मुण्डन यज्ञोपवीत संसार, श्राद्ध, कथा व हवन आदि कराना निहायत शुभ माना जाता है। कोई यहां मनौती करने आता है तो कोई अपना मनोरथ पूरा होने पर बोले गए अनुष्ठान पूरे करता दिखाई देता है। आज भी मैनपुरी में बहुत सारे ऐसे परिवार हैं, जिनकी दिनचर्या मां शीतला के दर्शन करने के बाद आरंभ होती है। वस्तुत:न केवल मैनपुरी का अपितु उसके निकटवर्ती व दूरदराज के क्षेत्रों की जनता का भी बहुत बडा प्रतिशत मैनपुरी की देवी के साथ किसी न किसी रूप में जुडा हुआ है।