काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:।पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवरबन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधवके नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने कु्रद्ध होकर ब्रह्माजीका पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थकहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजीसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई।
एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगातटपर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रियलगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आकर रहने लगे। राजा दिवोदासअपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणोंको काशी छोडने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह भंग नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन:बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों,सूर्यदेव, ब्रह्माजीऔर नारायण ने बडा प्रयास किया। गणेशजीके सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिङ्गकी स्थापना करके उसकी अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए।
काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बडे पुराण स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन,महाश्मशान,रुद्रावास,काशिका,तप:स्थली,मुक्तिभूमि,शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरीहैं।
स्कन्दपुराणकाशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है-
भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया
या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:।
या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥
जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली(मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनीगङ्गाके तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवितहै, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे।
सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत:प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्रसुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूपप्रकाशित हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है-
यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।
जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥
काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्रसुनकर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति कराके मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-
अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।
काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।।
ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिíलंगका स्वरूप मानता है-
अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं<न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:पञ्चक्रोशपरीमितम्।">पञ्चक्रोशपरीमितम्।
ज्योतिíलङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥
पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिíलंग-स्वरूपमानना चाहिए।
अनेक प्रकाण्ड विद्वानों ने काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत का समर्थन करते हुए बहुत कुछ लिखा और कहा है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजीद्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग नामक पुस्तक में श्रीरामकृष्णपरमहंसदेवका इस विषय में प्रत्यक्ष अनुभव वíणत है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में मृतक को तारकमन्त्रप्रदान करने की सत्यता उजागर करता है। लेकिन यहां यह भी बात ध्यान रहे कि काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकरभैरवी यातना भी भोगनी पडती है। सहस्रोंवर्षो तक रुद्रपिशाचबनकर कुकर्मो का प्रायश्चित करने के उपरांत ही उसे मुक्ति मिलती है। किंतु काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता।
फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है।
मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, यहां निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। तभी तो काशी की स्तुति में कहा गया है-यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।
पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥
विश्वनाथजी की अतिश्रेष्ठनगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है।
Friday, February 20, 2009
भक्तों के हितार्थ प्रगटे शेषावतार श्री बलदेव
ब्रज का इतिहास बहुत पुराना है। त्रेतायुग में कौशलेन्द्र श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न ने मधुवनमें मधु के पुत्र लवण दैत्य का संहार कर मथुरा को बसाया था। द्वापर युग में मथुरा मण्डल के बृहद्वनमें, विद्रुमवन के नाम से विख्यात पूर्वी छोर पर वसुदेव-पत्नी रोहिणी जी निवास करती थीं। ब्रज का वास्तविक परिचय देने वाले गोपालतापिनी उपनिषद ने इसका उल्लेख बलभद्र वन से किया है तथा इसको ब्रज के समस्त वनों से श्रेष्ठ माना है। बाबा नन्द की गौओंके बडे-बडे खिरकइसी स्थल पर थे। महाराज वसुदेव के कंस के कारागार में बन्दी हो जाने के बाद नन्दरायजी ने रोहिणी को यहीं निवास दिया था। इसी स्थान पर संकर्षण भगवान श्री दाऊजीश्रीबलदेवमहाराज का अवतरण भाद्र शुक्ल षष्ठी को हुआ था। बलदेव जी श्रीकृष्ण से कुछ माह बडे थे। मां देवकी के गर्भ से वसुदेव की द्वितीय पत्नी रोहिणी के उदर में स्थानान्तरित ही प्रकट हुए। नन्दबाबाके कहने पर उनके कुलगुरु गर्गाचार्यने नामकरण किया था। दोनों भाइयों ने छठे वर्ष में प्रवेश होने से ही समाज-सेवा एवं दैत्य-संहार का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। दोनों ने ही अवन्तीपुर(उज्जैन) में मुनि सांदीपनजी के गुरुकुल में प्रवेश लिया तथा बडे-बडे दैवीय कार्य किए।
नृपश्रेष्ठककुद्मीकी तपस्वी कन्या रेवती से बलराम जी का पाणिग्रहण हुआ। राजा ककुद्मीको ब्रह्मा जी ने रेवती-हेतु बलराम जी को वर प्रस्तावित किया। रेवती ने भगवती की आराधना की। बलराम जी को वर रूप में पाया। रेवती भी अपने पति के समान ही तेजस्विनी व गम्भीर थी।
बलराम जी शेषावतारहैं। परब्रह्म परमात्मा श्रीशेषभगवान ही इस संसार के विधाता, परिपोषकऔर संहर्ता हैं। समय-समय पर यह सृष्टि भगवान शेष में ही लय और शेष से ही प्रकट होती है। भगवान शेष अपने भक्त, उपासक और ज्ञानियोंको इच्छा के अनुसार मुक्ति और भक्ति प्रदान करते हैं। भागवतमेंभगवान श्रीकृष्ण ने शेषावतारभगवान् बलभ्रदको अपना धाम बताया है-शेषाख्यं धाम मामकम्।विद्वानों ने धाम का अर्थ प्रभाव, शक्ति व तेज माना है। इन सबका भगवान बलदेव में समावेश है। न तो भगवान् श्रीकृष्ण श्रीबलभद्रसे अलग हैं और न श्रीबलभद्रही भगवान श्रीकृष्ण से अलग हैं, दोनों एक ही हैं।
भागवत माहात्म्य के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारकामें निवास के अनन्तर ब्रज भी रिक्त हो गया था। जिस समय राजा परीक्षित हस्तिनापुर के शासक बने ब्रज का अधिकांश भाग वन रूप में ही था। उस काल में ही श्रीकृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्रनाभको मथुरा की गद्दी पर बिठाया गया था। राजा वज्रनाभने आध्यात्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत हो चार देव और चार देवियों के श्री विग्रह ब्रज मण्डल में प्रतिष्ठित कराए। उन्हीं में श्री केशवदेव,श्रीहरदेव,श्रीगोविन्ददेवके साथ ही बलदेव जी को रेवती सहित उन्हीं के प्रिय स्थल बलभद्र वन में प्रतिष्ठित कराया था। कालान्तर में वे ही भूमिस्थपूजा-अर्चना स्वीकार करते रहे और अगहन शुक्ल पूर्णिमा सम्वत्1638वि.को पुन:श्रद्धालु भक्तों के हितार्थ प्रगटे।अन्तरात्मा की विशेष प्रेरणा से भगवान् शेष के जन्म-जन्मान्तर के अनन्य भक्त एवं श्री शेष के सगुण स्वरूप एवं विभवावतारभगवान् बलदेव के अर्चावतारकी पूजा करने की अमिट इच्छा रखने वाले आदि गौड अहिवासीब्राह्मण महर्षि सोभरिके वंशज श्री कल्याण देवाचार्यजी वहीं हरे-भरे वट वृक्ष तले भगवान के ध्यान में मग्न रहने लगे। सदैव की भांति एक दिवस इनकी श्री दाऊजीके ध्यान में निर्विकल्प समाधि लगी हुई थी कि भगवान बलदेव ने रेवती के साथ भक्तवरगोस्वामी कल्याण देव जी को साक्षात दर्शन दिए। आनन्दातिरेक से भक्त के नेत्रों में अश्रुधारा बह निकली। भगवन्ने कहा मुझको आप इसी वट वृक्ष तले से खुदवा कर प्रकट करो। श्यामा गाय यहीं पर स्वयमेव मेरे ऊपर दूध देती है। यह कहकर भगवान अंतर्धान हो गए। इधर गोकुल के गोस्वामी गोकुलनाथजी महाराज अपनी श्यामा गौ के दूध देने के वृत्तांत से बडे चिन्तित थे। भगवान ने उन्हें भी स्वप्न दिया कि मेरे प्राकट्य में कल्याण देव को सहयोग करो। जब गोकुलनाथजी विद्रुमवनआए तो कल्याण देव जी कस्सी से स्थल खोदते हुए मिले। भगवान श्री विग्रह रूप में प्रकट हुए तथा युगल छवि को कल्याण देव जी की कुटिया में सिंहासन पर विधि-विधान से प्रतिष्ठित किया गया। गोकुलनाथजी ने अपनी उसी श्यामा गाय के दूध की खीर का कटोरा भगवान के सम्मुख अर्पित किया जो भगवान के मुख्य नैवेद्य के रूप में आज तक मान्य है। उसी स्थल पर गोकुलनाथजी ने भगवान के प्रथम मंदिर का निर्माण कराया। मार्गशीर्ष(अगहन)पूर्णिमा को पूरे ब्रजमंडलमें दाऊ जी महाराज का प्राकट्य महोत्सव मनाया जाता है। बलराम,बलदेव,बलभद्र,दाऊ आदि नामों से इनकी प्रसिद्धि है।
नृपश्रेष्ठककुद्मीकी तपस्वी कन्या रेवती से बलराम जी का पाणिग्रहण हुआ। राजा ककुद्मीको ब्रह्मा जी ने रेवती-हेतु बलराम जी को वर प्रस्तावित किया। रेवती ने भगवती की आराधना की। बलराम जी को वर रूप में पाया। रेवती भी अपने पति के समान ही तेजस्विनी व गम्भीर थी।
बलराम जी शेषावतारहैं। परब्रह्म परमात्मा श्रीशेषभगवान ही इस संसार के विधाता, परिपोषकऔर संहर्ता हैं। समय-समय पर यह सृष्टि भगवान शेष में ही लय और शेष से ही प्रकट होती है। भगवान शेष अपने भक्त, उपासक और ज्ञानियोंको इच्छा के अनुसार मुक्ति और भक्ति प्रदान करते हैं। भागवतमेंभगवान श्रीकृष्ण ने शेषावतारभगवान् बलभ्रदको अपना धाम बताया है-शेषाख्यं धाम मामकम्।विद्वानों ने धाम का अर्थ प्रभाव, शक्ति व तेज माना है। इन सबका भगवान बलदेव में समावेश है। न तो भगवान् श्रीकृष्ण श्रीबलभद्रसे अलग हैं और न श्रीबलभद्रही भगवान श्रीकृष्ण से अलग हैं, दोनों एक ही हैं।
भागवत माहात्म्य के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारकामें निवास के अनन्तर ब्रज भी रिक्त हो गया था। जिस समय राजा परीक्षित हस्तिनापुर के शासक बने ब्रज का अधिकांश भाग वन रूप में ही था। उस काल में ही श्रीकृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्रनाभको मथुरा की गद्दी पर बिठाया गया था। राजा वज्रनाभने आध्यात्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत हो चार देव और चार देवियों के श्री विग्रह ब्रज मण्डल में प्रतिष्ठित कराए। उन्हीं में श्री केशवदेव,श्रीहरदेव,श्रीगोविन्ददेवके साथ ही बलदेव जी को रेवती सहित उन्हीं के प्रिय स्थल बलभद्र वन में प्रतिष्ठित कराया था। कालान्तर में वे ही भूमिस्थपूजा-अर्चना स्वीकार करते रहे और अगहन शुक्ल पूर्णिमा सम्वत्1638वि.को पुन:श्रद्धालु भक्तों के हितार्थ प्रगटे।अन्तरात्मा की विशेष प्रेरणा से भगवान् शेष के जन्म-जन्मान्तर के अनन्य भक्त एवं श्री शेष के सगुण स्वरूप एवं विभवावतारभगवान् बलदेव के अर्चावतारकी पूजा करने की अमिट इच्छा रखने वाले आदि गौड अहिवासीब्राह्मण महर्षि सोभरिके वंशज श्री कल्याण देवाचार्यजी वहीं हरे-भरे वट वृक्ष तले भगवान के ध्यान में मग्न रहने लगे। सदैव की भांति एक दिवस इनकी श्री दाऊजीके ध्यान में निर्विकल्प समाधि लगी हुई थी कि भगवान बलदेव ने रेवती के साथ भक्तवरगोस्वामी कल्याण देव जी को साक्षात दर्शन दिए। आनन्दातिरेक से भक्त के नेत्रों में अश्रुधारा बह निकली। भगवन्ने कहा मुझको आप इसी वट वृक्ष तले से खुदवा कर प्रकट करो। श्यामा गाय यहीं पर स्वयमेव मेरे ऊपर दूध देती है। यह कहकर भगवान अंतर्धान हो गए। इधर गोकुल के गोस्वामी गोकुलनाथजी महाराज अपनी श्यामा गौ के दूध देने के वृत्तांत से बडे चिन्तित थे। भगवान ने उन्हें भी स्वप्न दिया कि मेरे प्राकट्य में कल्याण देव को सहयोग करो। जब गोकुलनाथजी विद्रुमवनआए तो कल्याण देव जी कस्सी से स्थल खोदते हुए मिले। भगवान श्री विग्रह रूप में प्रकट हुए तथा युगल छवि को कल्याण देव जी की कुटिया में सिंहासन पर विधि-विधान से प्रतिष्ठित किया गया। गोकुलनाथजी ने अपनी उसी श्यामा गाय के दूध की खीर का कटोरा भगवान के सम्मुख अर्पित किया जो भगवान के मुख्य नैवेद्य के रूप में आज तक मान्य है। उसी स्थल पर गोकुलनाथजी ने भगवान के प्रथम मंदिर का निर्माण कराया। मार्गशीर्ष(अगहन)पूर्णिमा को पूरे ब्रजमंडलमें दाऊ जी महाराज का प्राकट्य महोत्सव मनाया जाता है। बलराम,बलदेव,बलभद्र,दाऊ आदि नामों से इनकी प्रसिद्धि है।
देव वृक्ष पीपल में रहता है देवताओं का निवास
भारतीय संस्कृति में पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। पीपल वृक्ष प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में विशेष रूप से पूजनीय रहा है। ग्रंथों में पीपल को प्रत्यक्ष देवता की संज्ञा दी गई है। स्कन्दपुराणमें वर्णित है कि अश्वत्थ(पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरिऔर फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं। पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है। यह सभी अभीष्टोंका साधक है। इसका आश्रय मानव के सभी पाप ताप का शमन करता है। भगवान कृष्ण कहते हैं-अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणांअर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्वको व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि अश्वत्थ: पूजितोयत्र पूजिता:सर्व देवता:। अर्थात् पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्रम्में दिया गया मंत्र है-अश्वत्थ सुमहाभागसुभग प्रियदर्शन। इष्टकामांश्चमेदेहिशत्रुभ्यस्तुपराभवम्॥आयु: प्रजांधनंधान्यंसौभाग्यंसर्व संपदं।देहिदेवि महावृक्षत्वामहंशरणंगत:॥वृहस्पतिकी प्रतिकूलता से उत्पन्न होने वाले अशुभ फल में पीपल समिधा से हवन करने पर शांति मिलती है। प्राय: यज्ञ में इसकी समिधा को बडा उपयोगी और महत्वपूर्ण माना गया है। प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज में अश्वत्थोपासनामें पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है। इसमें अर्थवणऋषि पिप्पलादमुनि को बताते हैं कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचारों से पीडित समस्त देवता जब विष्णु के पास गए और उनसे कष्ट मुक्ति का उपाय पूछा, तब प्रभु ने उत्तर दिया-मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्षत:विद्यमान हूं। आप सभी को सब प्रकार से पीपल वृक्ष की आराधना करनी चाहिए। इसके पूजन से यम लोक के दारुण दु:ख से मुक्ति मिलती है। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनकवर्णित करते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल के वृक्ष को लगाकर आठ वर्षो तक पुत्र की भांति उसका लालन-पालन करना चाहिए। इसके अनन्तर उपनयनसंस्कार करके नित्य सम्यक् पूजा करने से अक्षय लक्ष्मी मिलती हैं। पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है। शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष के पूजन और सात परिक्रमा करने से तथा काले तिल से युक्त सरसोतेल के दीपक को जलाकर छायादानसे शनि की पीडा का शमन होता है। अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या में पीपल वृक्ष के पूजन से शनि से मुक्ति प्राप्त होती है। श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से बडे संकट से मुक्ति मिल जाती है। पीपल का वृक्ष इसीलिए ब्रह्मस्थानहै। इससे सात्विकताबढती है। पीपल के वृक्ष के नीचे मंत्र,जप और ध्यान उपादेय रहता है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है कि द्वापरयुगमें परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए। इसका प्रभाव तन-मन तक ही नहीं भाव जगत तक रहता है।
साक्षात् रुद्र हैं श्री भैरवनाथ
श्रीभैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।
वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है- विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:।शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।
अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निíवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।
धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।
ज्योतिषशास्त्र की बहुचíचत पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। इस वर्ष शनिवार के दिन भैरवाष्टमीपडने से शनि की शान्ति का प्रभावशाली योग बन रहा है। शनिवार 1दिसम्बर को कालभैरवाष्टमी है। इस दिन भैरवनाथके व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीडा का निवारण होगा। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत रखकर भैरवनाथकी उपासना करें।
कालाष्टमी-व्रत का योग इस वर्ष आगे 31दिसम्बर को तथा अगले साल 30जनवरी, 29फरवरी, 29मार्च, 28अप्रैल, 28मई, 26जून, 25जुलाई, 23अगस्त, 22सितम्बर, 21अक्टूबर, 19नवम्बर को बनेगा। अगले वर्ष सन् 2008ई. में श्रीकालभैरवाष्टमी19नवम्बर को पडेगी। कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है- ॐहंषंनंगंकंसं खंमहाकालभैरवायनम:।
इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।। साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे।
साम्बसदाशिवकी अष्टमूíतयोंमें रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजीकलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।
इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं।
वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है- विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:।शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।
अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निíवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।
धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।
ज्योतिषशास्त्र की बहुचíचत पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। इस वर्ष शनिवार के दिन भैरवाष्टमीपडने से शनि की शान्ति का प्रभावशाली योग बन रहा है। शनिवार 1दिसम्बर को कालभैरवाष्टमी है। इस दिन भैरवनाथके व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीडा का निवारण होगा। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत रखकर भैरवनाथकी उपासना करें।
कालाष्टमी-व्रत का योग इस वर्ष आगे 31दिसम्बर को तथा अगले साल 30जनवरी, 29फरवरी, 29मार्च, 28अप्रैल, 28मई, 26जून, 25जुलाई, 23अगस्त, 22सितम्बर, 21अक्टूबर, 19नवम्बर को बनेगा। अगले वर्ष सन् 2008ई. में श्रीकालभैरवाष्टमी19नवम्बर को पडेगी। कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है- ॐहंषंनंगंकंसं खंमहाकालभैरवायनम:।
इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।। साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे।
साम्बसदाशिवकी अष्टमूíतयोंमें रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजीकलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।
इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं।
महाकाल नमोऽस्तुते
शिप्रानदी के किनारे बसी है उज्जयिनी।यह भारतवर्ष के महत्वपूर्ण प्राचीन नगरों में से एक है। उज्जयिनी शब्द का अर्थ है विजयनी।
कहते हैं कि यदि यहां की तीर्थयात्रा की जाती है, तो विजय का भाव प्राप्त होता है। उज्जयिनीको प्राचीन ग्रन्थों में अवंतिका के नाम से पुकारा गया है। अवंतिका का शाब्दिक अर्थ है-सबकी रक्षा करने वाली।
पुराणों में इसे मोक्षदायिनीपुरी माना गया है। मान्यता है कि यहां महाकालेश्वर का वास है। भारतवर्ष के मानचित्र में अवंतिका[उज्जयिनी] मध्य बिन्दु यानी नाभिचक्रमें स्थित है। इसे वैदिक साहित्य अमृतग्रंथि में कहा गया है- अमृतस्यनाभि:। इसलिए यहां प्रत्येक बारह वर्ष में सिंहस्थ गुरु के समय पूर्ण कुंभ का आयोजन होता है। अवंतिकामें महाकालेश्वर आदिकाल से ही स्वयंभू ज्योतिर्लिङ्गके रूप में विराजमान हैं। कहते हैं कि इनकी आराधना करने वाले को अकाल मृत्यु का भय ही नहीं रहता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कहते हैं कि
महाकालं नमस्कृत्यनरोमृत्युंन शोचयेत्।महाकाल के उपासक को मृत्यु की चिंता नहीं रहती है। धर्म ग्रंथों के अनुसार, सृष्टि का प्रारंभ महाकाल से हुआ है और अंत भी इसी से होगा। यही वजह है कि उज्जयिनीको काल-गणना का केंद्र कहा जाता है।
द्वादश ज्योतिर्लिङ्गोंमें केवल महाकाल ही दक्षिणमुखीहैं। सनातन धर्म के अनुसार, दक्षिण दिशा में मृत्यु के देवता यमराज का निवास है। महाकालेश्वर का दक्षिणमुखीहोना, उन्हें स्वत:मृत्युलोक का शासक बना देता है। प्रति दिन ब्रह्ममुहूर्तमें श्रीमहाकालेश्वरकी अनूठी भस्म-आरती होती है।
इस आरती को देखने के लिए दूर-दूर से लोग उज्जैनआते हैं। वर्षो पूर्व इसमें चिता की भस्म का प्रयोग होता था, लेकिन महात्मा गांधी के अनुरोध पर स्थानीय विद्वानों ने उपलों से निर्मित भस्म से आरती करने की व्यवस्था की, जो आज तक चली आ रही है।
फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष में षष्ठी से चतुर्दशी तिथि तक के नौ दिनों को महाकालेश्वर-नवरात्र का नाम दिया गया है। इसमें महाकाल के दर्शन-पूजन और अभिषेक का बडा माहात्म्य है। देशभर से भक्तगण नवरात्रमें उज्जयिनीके महाकालेश्वर में आकर पूजा-अर्चना करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि काल के शासक महाकाल की संपूर्ण महिमा का बखान शब्दों में संभव नहीं है। इसलिए उनके श्रीचरणोंमें साष्टांग प्रणाम अर्पित है:
महाकाल महादेव, महाकाल महाप्रभो।
महाकाल महारुद्र,महाकाल नमोऽस्तुते॥
कहते हैं कि यदि यहां की तीर्थयात्रा की जाती है, तो विजय का भाव प्राप्त होता है। उज्जयिनीको प्राचीन ग्रन्थों में अवंतिका के नाम से पुकारा गया है। अवंतिका का शाब्दिक अर्थ है-सबकी रक्षा करने वाली।
पुराणों में इसे मोक्षदायिनीपुरी माना गया है। मान्यता है कि यहां महाकालेश्वर का वास है। भारतवर्ष के मानचित्र में अवंतिका[उज्जयिनी] मध्य बिन्दु यानी नाभिचक्रमें स्थित है। इसे वैदिक साहित्य अमृतग्रंथि में कहा गया है- अमृतस्यनाभि:। इसलिए यहां प्रत्येक बारह वर्ष में सिंहस्थ गुरु के समय पूर्ण कुंभ का आयोजन होता है। अवंतिकामें महाकालेश्वर आदिकाल से ही स्वयंभू ज्योतिर्लिङ्गके रूप में विराजमान हैं। कहते हैं कि इनकी आराधना करने वाले को अकाल मृत्यु का भय ही नहीं रहता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कहते हैं कि
महाकालं नमस्कृत्यनरोमृत्युंन शोचयेत्।महाकाल के उपासक को मृत्यु की चिंता नहीं रहती है। धर्म ग्रंथों के अनुसार, सृष्टि का प्रारंभ महाकाल से हुआ है और अंत भी इसी से होगा। यही वजह है कि उज्जयिनीको काल-गणना का केंद्र कहा जाता है।
द्वादश ज्योतिर्लिङ्गोंमें केवल महाकाल ही दक्षिणमुखीहैं। सनातन धर्म के अनुसार, दक्षिण दिशा में मृत्यु के देवता यमराज का निवास है। महाकालेश्वर का दक्षिणमुखीहोना, उन्हें स्वत:मृत्युलोक का शासक बना देता है। प्रति दिन ब्रह्ममुहूर्तमें श्रीमहाकालेश्वरकी अनूठी भस्म-आरती होती है।
इस आरती को देखने के लिए दूर-दूर से लोग उज्जैनआते हैं। वर्षो पूर्व इसमें चिता की भस्म का प्रयोग होता था, लेकिन महात्मा गांधी के अनुरोध पर स्थानीय विद्वानों ने उपलों से निर्मित भस्म से आरती करने की व्यवस्था की, जो आज तक चली आ रही है।
फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष में षष्ठी से चतुर्दशी तिथि तक के नौ दिनों को महाकालेश्वर-नवरात्र का नाम दिया गया है। इसमें महाकाल के दर्शन-पूजन और अभिषेक का बडा माहात्म्य है। देशभर से भक्तगण नवरात्रमें उज्जयिनीके महाकालेश्वर में आकर पूजा-अर्चना करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि काल के शासक महाकाल की संपूर्ण महिमा का बखान शब्दों में संभव नहीं है। इसलिए उनके श्रीचरणोंमें साष्टांग प्रणाम अर्पित है:
महाकाल महादेव, महाकाल महाप्रभो।
महाकाल महारुद्र,महाकाल नमोऽस्तुते॥
Wednesday, February 4, 2009
जिसकी कोई सीमा नही वही अनहद
आज मनुष्य किसी न किसी रूप में संगीत का आनंद उठाता है। यह अलग बात है कि कोई यह आनंद भजन के रूप में लेता है तो कोई गजल, गाने, कौवाली, पश्चिमी संगीत या शास्त्रीय संगीत को सुनकर आनंदित होता है। संगीत पद्धति चाहे कोई भी हो, लेकिन आनंद संगीत में ही आता है। परंतु संसार में चाहे किसी भी पद्धति द्वारा संगीत सुनें उसकी एक सीमा है। कहीं न कहीं वह संगीत खत्म हो जाता है। बहुत से लोग यह कहते हुए भी सुने जा सकते हैं कि जब मंदिर या गुरुद्वारे में कीर्तन सुन रहे थे, तब तक मन शांत था। परंतु संसार के कार्यो में आकर यह मन फिर उलझ गया। हमारी यह स्थिति वैसी ही है, जैसे कि कोई व्यक्ति जब इत्र की दुकान के नजदीक से गुजरता है तब वह इत्र की सुगंध प्राप्त कर आनंदित होता है। परंतु उसके आनंद की सीमा है। जब वह इत्र की दुकान से दूर चला जाता है, तब वह उस सुगंध से वंचित हो जाता है। यदि वह इत्र को खरीद कर अपने शरीर पर लगा ले और इसके बाद वह कहीं भी चला जाए तो इत्र की सुगंध भी उसके साथ-साथ जाएगी। इसी तरह हमें भी उस आनंदमय संगीत की प्राप्ति करनी है। संगीत दो प्रकार का बताया गया है। एक को आहत नाद कहा जाता है और दूसरा अनहद। आहत नाद जो हमारे करताल अथवा फूंक आदि से पैदा होता है। जिसे घंटे, शंख, नगाडे, मृदंग, बांसुरी इत्यादि के द्वारा प्रकट करते हैं। परंतु एक ऐसा संगीत भी है जिसे बजाया नहीं जाता, जो स्वत: अपने आप ही बजता है। लेकिन उसकी प्राप्ति गुरु के द्वारा ही संभव है। उसके लिए कबीर जी कहते हैं कि -
निरभउ कै घरि बजावहि तूर।
अनहद बजहि सदा भरपूर।
उस निर्भय प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है। लेकिन बाहरी संगीत के संबंध में कहा है कि-
इतु किंगुरी धिआनु न लागै जोगी ना सचु पलै पाइ।
इतु किंगुरी सांति न आवै जोगी अभिमानु न विचहु जाइ॥
गुरु अमरदास जी कहते हैं, जो सांसारिक किंगरी बजा रहा है उससे ध्यान नहीं लग सकता और न ही उससे सचाई हाथ आ सकती है। अत: मन को शांति तो मिलेगी नहीं, अपितु मानव अत्यधिक अभिमान को संचित कर लेता है कि हम तो बहुत संगीत जानते हैं। वास्तव में बाहरी संगीत तो अंतर्जगत की ओर संकेत करता है। मंदिर-गुरुद्वारे में किया जाने वाला संकीर्तन हमें जीवन की सत्यता की ओर इशारा करता है कि इस प्रकार का संकीर्तन जो कि प्रभु के दरबार में हो रहा है वही संकीर्तन हमारे घट में बज रहा है।
देव सथानै किआ निसाणी।
तह बाजे सबद अनाहद बाणी॥
परमात्मा के घर की निशानी बताते हुए गुरवाणी में स्पष्ट किया है कि वहां अनहद वाणी बज रही है। जरूरत है उस स्थान को जानने की, जहां वह अनहद वाणी बज रही है।
पंच सखी मिलि मंगलु गाइआ।
अनहद बाणी नादु वजाइआ॥
जब अनहद वाणी का नाद हमारे अंतर में बजता है, तभी हमारे अंदर में हमारे पांचों मित्र-दया, क्षमा, शील, संतोष एवं सत्य प्रसन्न होकर हमारे लिए आनंद का मार्ग खोल देते हैं। लेकिन यह अनहद वाणी कैसे प्राप्त होती है?
पूरे गुर ते महल पाइआ पति परगटु लोई।
नानक अनहद धुनी दरि वजदे मिलिया हरि सोई॥
पूर्ण गुरु के द्वारा ही वह महल प्रकट होता है, जो हमारी लाज रखता है। श्री गुरु अमरदास जी कहते हैं कि वहां अनहद वाणी बज रही है, वह धुन बज रही है। जब हमें प्रभु के परम तत्व ज्ञान की प्राप्ति होती है, इस संबंध में कहा है-
द्रिसटि भई तब भीतरि आइओ मेरा मनु अनदिनु सीतलागिओ।
कहु नानक रसि मंगल गाए सबदु अनाहदु बाजिओ॥
श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि जब अंतर्दृष्टि खुलती है तभी अंतर्जगत में प्रवेश कर मन को शांति मिलती है। तभी प्रभु के निर्मल गायन को जान सकते हैं, जब अनहद शब्द की ध्वनि सुनाई देती है। परमात्मा के इस शरीर रूपी घर में प्रकट होने के बारे में कहा है-
पंच सबद धुनि अनहद वाजे हम घरि साजन आए॥
कबीर जी कहते हैं-
पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी।
कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी॥
हे निरंकार! मैं तेरी वही आरती करता हूं जहां पर पांच धुनें बज रही हैं। श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं-
घर महि घरू देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु।
पंच सबद धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु नीसाणु॥
जो हमें इस शरीर में ही सच्च्े घर को दिखा दे वही पूर्ण सतगुरु है। जो हमें वह दृष्टि न दे सके और जिसके द्वारा हम अपने हृदय में उस ज्योति को न देख सकें, वह पूर्ण गुरु नहीं है। पूर्ण सतगुरु हमें हृदय में ही प्रभु के दर्शन करा देते हैं, वह हमें वहां पांच शब्दों की अनहद धुनि सुना देते हैं। अब विचार करना है कि उसे पांच शब्द ही क्यों कहा है, क्योंकि आवाजें (ध्वनियां) पांच प्रकार की होती हैं।
पहली आवाज जो हवा से पैदा होती है, जैसे बांसुरी या शंख इत्यादि की आवाज। दूसरी जो तार के कंपन से पैदा होती है जैसे सितार, गिटार, वायलिन, बैंजो आदि की आवाज। तीसरी जो कि चमडे पर थाप देने से पैदा होती है-जैसे तबला, ढोलक, मृदंग, डमरू इत्यादि की आवाज। चौथी आवाज जो दो धातुओं के टकराने से पैदा होती है जैसे घंटा, खडताल, चिमटा या मंजीरा बजाते हैं। पांचवीं पत्ती के कंपन से पैदा होती है, जैसे हारमोनियम इत्यादि की आवाज। इसी कारण इन्हें पांच शब्दों से संबोधित किया गया है। ब्रह्मानंद जी कहते हैं-
पहले-पहले रिलमिल बाजे पीछे न्यारी न्यारी रे।
घंटा शंख बांसुरी बीणा ताल मृदंग नगारी रे॥
एक अन्य स्थान पर कहा है कि -
बिना बजाए निस दिन बाजे घंटा शंख नगारी रे।
बहरा सुन सुन मस्त होत है तन की खबर बिसारी रे॥
बिना बजाए ही वह घंटा, शंख, नगाडे बज रहे हैं, जिसे सुनकर बहरा भी मस्त हो जाता है। यही नाद था जो द्वापर में गोपियां सुना करती थीं, जिसे सुनकर वे मस्त हो जाती थीं। भगवान श्रीकृष्ण से मिलने के लिए व्याकुल होकर दौडी आती थीं। लेकिन वह बांसुरी केवल गोपियों को ही क्यों सुनाई देती थी? क्योंकि गोपियों को ज्ञान मिला हुआ था। अत: वह बांसुरी गोपियां बाह्य जगत में नहीं अपितु अपने अंतर्जगत में सुनती थीं। वह बांसुरी द्वापर में ही नहीं बज रही थी, आज भी बज रही है। जरूरत है तो ऐसे सतगुरु की जिनकी कृपा से हम आज भी उस बांसुरी की धुन को सुन सकते हैं, जो हमारे अंतर में हो रहा है। जो हमें वह कीर्तन सुना दे वही पूर्ण सतगुरु है।
सुणीया बंसी दीया घनघोरा कृका तन मन वांगू मोरा।
बुल्लेशाह कहते हैं कि कन्हैया ने ऐसी बांसुरी बजाई कि मैं मोर की तरह नाचने लगा। जरूरत है उसी बंसी को पहचानने की। बुल्लेशाह कहते हैं कि -
जां मैं सबक इशक दा पढिया मसजिद कोलो जीऊडा डरिआ।
डेरे जा ठाकुर दे वडिया जित्थे वजदे नाद हजार॥
जब सच्चे इश्क को जाना तो बाहरी बातों को छोडकर मैंने अंतर्जगत में प्रवेश किया, जहां हजारों नाद बज रहे हैं। गुरवाणी में कहा है-
अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिऊ लिव लाई।
ऋग्वेद में इस आवाज के बारे में कहा है-
ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द कर्णा बुधान: शुचमान आयो:॥
सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान आवाज बहरे मनुष्य को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, विष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। ये सब अंतर्जगत की ही वाणी के प्रतीक हैं, जिसे अनहद नाद कहते हैं, अनहद वाणी कहते हैं। जरूरत है कि हम भी उस वाणी को सुन कर अंतर्नाद को जान कर जीवन के संगीतमय आनंद में डूबकर परमानंद को जानें।
निरभउ कै घरि बजावहि तूर।
अनहद बजहि सदा भरपूर।
उस निर्भय प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है। लेकिन बाहरी संगीत के संबंध में कहा है कि-
इतु किंगुरी धिआनु न लागै जोगी ना सचु पलै पाइ।
इतु किंगुरी सांति न आवै जोगी अभिमानु न विचहु जाइ॥
गुरु अमरदास जी कहते हैं, जो सांसारिक किंगरी बजा रहा है उससे ध्यान नहीं लग सकता और न ही उससे सचाई हाथ आ सकती है। अत: मन को शांति तो मिलेगी नहीं, अपितु मानव अत्यधिक अभिमान को संचित कर लेता है कि हम तो बहुत संगीत जानते हैं। वास्तव में बाहरी संगीत तो अंतर्जगत की ओर संकेत करता है। मंदिर-गुरुद्वारे में किया जाने वाला संकीर्तन हमें जीवन की सत्यता की ओर इशारा करता है कि इस प्रकार का संकीर्तन जो कि प्रभु के दरबार में हो रहा है वही संकीर्तन हमारे घट में बज रहा है।
देव सथानै किआ निसाणी।
तह बाजे सबद अनाहद बाणी॥
परमात्मा के घर की निशानी बताते हुए गुरवाणी में स्पष्ट किया है कि वहां अनहद वाणी बज रही है। जरूरत है उस स्थान को जानने की, जहां वह अनहद वाणी बज रही है।
पंच सखी मिलि मंगलु गाइआ।
अनहद बाणी नादु वजाइआ॥
जब अनहद वाणी का नाद हमारे अंतर में बजता है, तभी हमारे अंदर में हमारे पांचों मित्र-दया, क्षमा, शील, संतोष एवं सत्य प्रसन्न होकर हमारे लिए आनंद का मार्ग खोल देते हैं। लेकिन यह अनहद वाणी कैसे प्राप्त होती है?
पूरे गुर ते महल पाइआ पति परगटु लोई।
नानक अनहद धुनी दरि वजदे मिलिया हरि सोई॥
पूर्ण गुरु के द्वारा ही वह महल प्रकट होता है, जो हमारी लाज रखता है। श्री गुरु अमरदास जी कहते हैं कि वहां अनहद वाणी बज रही है, वह धुन बज रही है। जब हमें प्रभु के परम तत्व ज्ञान की प्राप्ति होती है, इस संबंध में कहा है-
द्रिसटि भई तब भीतरि आइओ मेरा मनु अनदिनु सीतलागिओ।
कहु नानक रसि मंगल गाए सबदु अनाहदु बाजिओ॥
श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि जब अंतर्दृष्टि खुलती है तभी अंतर्जगत में प्रवेश कर मन को शांति मिलती है। तभी प्रभु के निर्मल गायन को जान सकते हैं, जब अनहद शब्द की ध्वनि सुनाई देती है। परमात्मा के इस शरीर रूपी घर में प्रकट होने के बारे में कहा है-
पंच सबद धुनि अनहद वाजे हम घरि साजन आए॥
कबीर जी कहते हैं-
पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी।
कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी॥
हे निरंकार! मैं तेरी वही आरती करता हूं जहां पर पांच धुनें बज रही हैं। श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं-
घर महि घरू देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु।
पंच सबद धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु नीसाणु॥
जो हमें इस शरीर में ही सच्च्े घर को दिखा दे वही पूर्ण सतगुरु है। जो हमें वह दृष्टि न दे सके और जिसके द्वारा हम अपने हृदय में उस ज्योति को न देख सकें, वह पूर्ण गुरु नहीं है। पूर्ण सतगुरु हमें हृदय में ही प्रभु के दर्शन करा देते हैं, वह हमें वहां पांच शब्दों की अनहद धुनि सुना देते हैं। अब विचार करना है कि उसे पांच शब्द ही क्यों कहा है, क्योंकि आवाजें (ध्वनियां) पांच प्रकार की होती हैं।
पहली आवाज जो हवा से पैदा होती है, जैसे बांसुरी या शंख इत्यादि की आवाज। दूसरी जो तार के कंपन से पैदा होती है जैसे सितार, गिटार, वायलिन, बैंजो आदि की आवाज। तीसरी जो कि चमडे पर थाप देने से पैदा होती है-जैसे तबला, ढोलक, मृदंग, डमरू इत्यादि की आवाज। चौथी आवाज जो दो धातुओं के टकराने से पैदा होती है जैसे घंटा, खडताल, चिमटा या मंजीरा बजाते हैं। पांचवीं पत्ती के कंपन से पैदा होती है, जैसे हारमोनियम इत्यादि की आवाज। इसी कारण इन्हें पांच शब्दों से संबोधित किया गया है। ब्रह्मानंद जी कहते हैं-
पहले-पहले रिलमिल बाजे पीछे न्यारी न्यारी रे।
घंटा शंख बांसुरी बीणा ताल मृदंग नगारी रे॥
एक अन्य स्थान पर कहा है कि -
बिना बजाए निस दिन बाजे घंटा शंख नगारी रे।
बहरा सुन सुन मस्त होत है तन की खबर बिसारी रे॥
बिना बजाए ही वह घंटा, शंख, नगाडे बज रहे हैं, जिसे सुनकर बहरा भी मस्त हो जाता है। यही नाद था जो द्वापर में गोपियां सुना करती थीं, जिसे सुनकर वे मस्त हो जाती थीं। भगवान श्रीकृष्ण से मिलने के लिए व्याकुल होकर दौडी आती थीं। लेकिन वह बांसुरी केवल गोपियों को ही क्यों सुनाई देती थी? क्योंकि गोपियों को ज्ञान मिला हुआ था। अत: वह बांसुरी गोपियां बाह्य जगत में नहीं अपितु अपने अंतर्जगत में सुनती थीं। वह बांसुरी द्वापर में ही नहीं बज रही थी, आज भी बज रही है। जरूरत है तो ऐसे सतगुरु की जिनकी कृपा से हम आज भी उस बांसुरी की धुन को सुन सकते हैं, जो हमारे अंतर में हो रहा है। जो हमें वह कीर्तन सुना दे वही पूर्ण सतगुरु है।
सुणीया बंसी दीया घनघोरा कृका तन मन वांगू मोरा।
बुल्लेशाह कहते हैं कि कन्हैया ने ऐसी बांसुरी बजाई कि मैं मोर की तरह नाचने लगा। जरूरत है उसी बंसी को पहचानने की। बुल्लेशाह कहते हैं कि -
जां मैं सबक इशक दा पढिया मसजिद कोलो जीऊडा डरिआ।
डेरे जा ठाकुर दे वडिया जित्थे वजदे नाद हजार॥
जब सच्चे इश्क को जाना तो बाहरी बातों को छोडकर मैंने अंतर्जगत में प्रवेश किया, जहां हजारों नाद बज रहे हैं। गुरवाणी में कहा है-
अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिऊ लिव लाई।
ऋग्वेद में इस आवाज के बारे में कहा है-
ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द कर्णा बुधान: शुचमान आयो:॥
सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान आवाज बहरे मनुष्य को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, विष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। ये सब अंतर्जगत की ही वाणी के प्रतीक हैं, जिसे अनहद नाद कहते हैं, अनहद वाणी कहते हैं। जरूरत है कि हम भी उस वाणी को सुन कर अंतर्नाद को जान कर जीवन के संगीतमय आनंद में डूबकर परमानंद को जानें।
एकाग्रता
1. शुभांगी की सबसे बडी दिक्कत थी कि उसमें एकाग्रता की कमी थी। एक पल में यहां तो अगले ही पल वहां। किताब लेकर बैठे दस मिनट भी नहीं बीतते कि किसी दोस्त का फोन आ जाता और वह भूल जाती कि क्या कर रही थी। बोर्ड के एग्जाम जैसे-जैसे नजदीक आ रहे थे मम्मी की परेशानी बढती जा रही थी।
छात्रों के लिए राय
एकाग्रता छात्र जीवन की सबसे महत्वपूर्ण पूंजी है। इसके बल पर काबिलीयत न होते हुए भी छात्र को सफलता प्राप्त करते देखा गया है। एकाग्रता की कमी से सबसे बडी परेशानी यह है कि आप अधिक देर तक टिक कर नहीं बैठ पाते। इसलिए आपको चाहिए कि बीस मिनट का लक्ष्य लेकर चलें। एकाग्रता दिमागी एक्सरसाइज है, इससे मस्तिष्क की ट्रेनिंग होती है। सबसे पहले अपने समय को नियमबद्ध करें। जो दिनचर्या तय की है यदि उस पर चलने की कोशिश सफल हुई है तो अपने को सराहें। इससे आगे के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। यदि पढते-पढते थक गए या बोर हो रहे हैं तो अपने से बात करिए। यदि एकरसता से परेशान हो रहें हैं तो थोडा सा परिवर्तन लाने की कोशिश करें। अडिग नहीं थोडे लचीले बनें। ज्यादा सख्ती बेरुखी पैदा करती है। कहीं किताब खोलते ही मन घबराना न शुरू हो जाए। पढने के लिए शांत व व्यवस्थित जगह चुनें। कभी भी बेड पर या आरामकुर्सी पर बैठ कर न पढें, इससे आलस और नींद आती है। हमेशा सीधे बैठकर पढाई करें। न्यूयार्क में हाल में हुए अध्ययन से यह बात सामने आई कि चाय या कॉफी की जगह पानी पीना दिमागी विकास के लिए जरूरी है। इसलिए पानी खूब पिएं। जिस प्रकार वेटलिफ्टिंग से शरीर की ट्रेनिंग होती है उसी प्रकार दिमागी नियंत्रण के लिए योग और ध्यान भी जरूरी है।
अभिभावक के लिए
यह याद रखें कि उम्र के इस नाजुक दौर में किशोरों के लक्ष्य स्पष्ट नहीं होते तथा दिलो-दिमाग हकीकत में कम और कल्पना में ज्यादा रमते हैं। ऐसे में पेरेंट्स के सहयोग और सलाह की उन्हें बहुत जरूरत होती है।
2. दूसरी तरफ वे किशोर हैं जो प्रतिभाशाली व योग्य होने के बावजूद अति आत्मविश्वासी होने के कारण जानते हुए भी प्रश्नों के उत्तर गलत दे आते हैं। कक्षा में हमेशा प्रथम आने वाला हिमांशु जब बोर्ड की परीक्षा देकर बाहर निकला तो बहुत खुश था उसे सभी प्रश्नों के उत्तर मालूम थे। सारा पेपर उसे आता था। जब उत्तर मिलाने शुरू किए तो चेहरा उतरते देर नहीं लगी। असावधानीवश आते हुए जवाब भी उसने गलत दे दिए थे। क्योंकि क्या पूछा जा रहा है उसने समझा नहीं, शुरू की दो पंक्तियों को पढ कर ही जवाब लिख दिया।
छात्रों के लिए
इस उम्र में चिंता कम बेफिक्री ज्यादा होती है। ऐसे में अपने को व्यवस्थित रखना आना बहुत जरूरी है। पेपर सामने आने पर उसे सबसे पहले समय सीमा में बांधो। प्रश्न को एक बार नहीं दूसरी बार पढने के बाद हल करो। अपने मस्तिष्क को केंद्रित करने के लिए लगातार एक्सरसाइज करते रहो।
अभिभावकों के लिए
एकाग्रता के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार अभिभावक ही होते हैं। घर पर किशोर अपना समय किस प्रकार कहां लगा रहा है व कितनी एकाग्रता से क्या कर रहा है यह देखना और समझना जरूरी है। उसे उसकी रुचि के काम या दिमागी कसरत वाले गेम में व्यस्त रखें। अधिक से अधिक पढने की आदत डालें। एकाग्रता के लिए इससे बेहतर एक्सरसाइज नहीं। ये कोर्स की किताबों की जगह, कहानी या उपन्यास भी हों तो कोई बात नहीं।
3. अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है। इस उम्र में ध्यान भटकने की परेशानी बहुत होती है। पल में यहां तो पल में वहां विचार पहुंच जाते हैं। शालू का मसला भी ऐसा ही था, वह परीक्षा देने गई हिंदी की और पेपर था सोशल साइंस का। रोते-रोते दिमाग खराब हो गया। भले ही कोर्स पूरा तैयार हो लेकिन अंतिम तैयारी का भी तो कोई मतलब होता है। राहुल तो उससे भी आगे निकला बोर्ड की परीक्षा देने गया तो रोल नंबर घर ही भूल गया। यह सब घटनाएं दिमागी अस्थिरता की निशानी हैं। इसी क्रम में गजेन है, जो इंजीनियरिंग ड्राइंग की परीक्षा देने गया और जरूरी इंस्ट्रूमेंट ले जाना ही भूल गया। योग्य छात्र होने के कारण उसे अध्यापक से लेकर सहपाठियों तक ने सहयोग दिया, लेकिन इससे समय तो नष्ट हुआ ही।
छात्रों के लिए
हम जब बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सिखाते हैं तो सबसे पहला पाठ यही पढाते हैं कि अपने मूल्यों को समझो। भारतीय होने के कारण अपनी जडों से अलग होना आसान और सही निर्णय नहीं। क्रोध से बुद्धि का नाश होता है, सही निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है। काम, क्रोध, लोभ और मोह को काबू में रखो। चीजों को बढा-चढाकर नहीं, उनके सही रूप में देखो और समझो। एक गलत कदम आगे के कितने कदमों को गलत करेगा यह इस उम्र में नहीं पता होता, लेकिन यह जानना जरूरी है।
अभिभावकों के लिए
सबसे ज्यादा परेशानी भावनाओं के मामले में इसलिए आ रही है क्योंकि किशोर अकेले होते जा रहे हैं। एकल परिवारों में पलने वाले और कामकाजी स्त्रियों के बच्चे अपने को अकेला महसूस करते हैं। उनकी भावनाओं को समझने और उन्हें जानने का वक्त पेरेंट्स के पास है ही नहीं। सबसे अनिवार्य कदम इस दिशा में यह होगा कि अभिभावक इस परेशानी को समझें व क्वालिटी टाइम बच्चे के साथ बिताएं।
4. इसी अकेलेपन से उपजती है पियर प्रेशर की समस्या। वेणी अकेली बच्ची होने के कारण अंतर्मुखी रही, किशोर हुई तो मां की नौकरी ने उसे और अकेला कर दिया। ऐसे में दोस्तों के सिवाय उसका कोई साथी ही नहीं था। जो दोस्त कहें वही अंतिम रूप से मान्य होता, भले ही गलत हो।
छात्रों के लिए
इस उम्र में शेयरिंग की समस्या से गुजरना आम है। हमसे आप बेझिझक बात करते हैं लेकिन अपने परिवारजन से बात करने में कतराते हैं। उनसे दोस्ती करने का प्रयास करें।
अभिभावकों के लिए
एक बच्चे की तुलना दूसरे से न करें। जब दो इंसानों की शक्ल एक सी नहीं होती तो अक्ल कैसे एक सी हो सकती है। हो सकता है कि एक बच्चा पढाई में अच्छा हो तो दूसरा अन्य किसी क्षेत्र में विलक्षण हो। इसे पहचान कर प्रोत्साहन देना भी आवश्यक है। सबसे जरूरी है कि आप किशोर होते बच्चे के दोस्त बनें। दोस्त बनते ही बहुत सी समस्याएं अपने आप आसानी से हल हो जाएंगी।
5. किसी विषय को लेकर मन में डर समाते भी इस उम्र में देखा जाता है। पल्लवी की मम्मी को स्कूल में बुला कर गणित के अध्यापक ने बताया कि न तो यह कक्षा कार्य ठीक से करती है और न ही गृहकार्य करके लाती है। पल्लवी अति संवेदनशील होने के कारण अपने कडक टीचर से तालमेल नहीं बैठा पा रही थी। जरा सी कोशिशों ने उसे कक्षा के योग्य छात्रों में ला खडा किया।
छात्रों के लिए
हर छात्र का अपना एप्टीटयूड होता है। जब हमारे पास कोई समस्या लेकर आता है तब हम सबसे पहले गलती की जड ढूंढते हैं। फोबिया होने की भी अलग-अलग वजह होती हैं। कई बार योग्यता का अभाव होता है तो कई बार अतिरिक्त योग्यता होने पर भी आप तालमेल नहीं बैठा पाते। इसके लिए गलती को समझना और गहराई से जानना जरूरी होता है।
अभिभावकों के लिए
अपनी संतान की बेहतरी के लिए जितने प्रयास आपको करने पडें कम हैं। उसके पास बैठिए और समझने की कोशिश करें कि कहां क्या कमी है जिसे सुधारा जा सकता है। यदि आप काउंसलर की सहायता लेना चाहते हैं तो भी आपके ब"ो के सारे विवरण होने जरूरी हैं।
न डरें बोर्ड परीक्षा से
दस से बारह साल तक अपने स्कूल में परीक्षा देने के स्थान पर बोर्ड परीक्षा के नाम से ही अकसर छात्रों के मन में डर हावी हो जाता है। यदि समझदारी से थोडी भी तैयारी की गई है तो डरने की जरूरत नहीं है। उत्तर पुस्तिका में आपकी राइटिंग साफ हो। हर उत्तर थोडा सा स्पेस देकर लिखें जिससे जांचकर्ता को समझने में कम से कम परेशानी हो। प्रश्न पत्र मिलने पर ध्यान से उसे पढें तथा समय के अनुरूप हर प्रश्न को बांट लें। अच्छी तरह आने वाले उत्तर पहले दें। यदि एक प्रश्न के कई भाग हैं तो सभी के उत्तर एक ही जगह दें। अंग्रेजी विषय को चार भागों में बांटा जाता है रीडिंग (पढना), राइटिंग (लेखन), ग्रामर (व्याकरण) और प्रोज (गद्य)। अकेले रीडिंग हिस्से के नंबर 34 हैं। यदि थोडी भी तैयारी हो तो पास होने का प्रतिशत सुरक्षित हो जाता है।
छात्रों के लिए राय
एकाग्रता छात्र जीवन की सबसे महत्वपूर्ण पूंजी है। इसके बल पर काबिलीयत न होते हुए भी छात्र को सफलता प्राप्त करते देखा गया है। एकाग्रता की कमी से सबसे बडी परेशानी यह है कि आप अधिक देर तक टिक कर नहीं बैठ पाते। इसलिए आपको चाहिए कि बीस मिनट का लक्ष्य लेकर चलें। एकाग्रता दिमागी एक्सरसाइज है, इससे मस्तिष्क की ट्रेनिंग होती है। सबसे पहले अपने समय को नियमबद्ध करें। जो दिनचर्या तय की है यदि उस पर चलने की कोशिश सफल हुई है तो अपने को सराहें। इससे आगे के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। यदि पढते-पढते थक गए या बोर हो रहे हैं तो अपने से बात करिए। यदि एकरसता से परेशान हो रहें हैं तो थोडा सा परिवर्तन लाने की कोशिश करें। अडिग नहीं थोडे लचीले बनें। ज्यादा सख्ती बेरुखी पैदा करती है। कहीं किताब खोलते ही मन घबराना न शुरू हो जाए। पढने के लिए शांत व व्यवस्थित जगह चुनें। कभी भी बेड पर या आरामकुर्सी पर बैठ कर न पढें, इससे आलस और नींद आती है। हमेशा सीधे बैठकर पढाई करें। न्यूयार्क में हाल में हुए अध्ययन से यह बात सामने आई कि चाय या कॉफी की जगह पानी पीना दिमागी विकास के लिए जरूरी है। इसलिए पानी खूब पिएं। जिस प्रकार वेटलिफ्टिंग से शरीर की ट्रेनिंग होती है उसी प्रकार दिमागी नियंत्रण के लिए योग और ध्यान भी जरूरी है।
अभिभावक के लिए
यह याद रखें कि उम्र के इस नाजुक दौर में किशोरों के लक्ष्य स्पष्ट नहीं होते तथा दिलो-दिमाग हकीकत में कम और कल्पना में ज्यादा रमते हैं। ऐसे में पेरेंट्स के सहयोग और सलाह की उन्हें बहुत जरूरत होती है।
2. दूसरी तरफ वे किशोर हैं जो प्रतिभाशाली व योग्य होने के बावजूद अति आत्मविश्वासी होने के कारण जानते हुए भी प्रश्नों के उत्तर गलत दे आते हैं। कक्षा में हमेशा प्रथम आने वाला हिमांशु जब बोर्ड की परीक्षा देकर बाहर निकला तो बहुत खुश था उसे सभी प्रश्नों के उत्तर मालूम थे। सारा पेपर उसे आता था। जब उत्तर मिलाने शुरू किए तो चेहरा उतरते देर नहीं लगी। असावधानीवश आते हुए जवाब भी उसने गलत दे दिए थे। क्योंकि क्या पूछा जा रहा है उसने समझा नहीं, शुरू की दो पंक्तियों को पढ कर ही जवाब लिख दिया।
छात्रों के लिए
इस उम्र में चिंता कम बेफिक्री ज्यादा होती है। ऐसे में अपने को व्यवस्थित रखना आना बहुत जरूरी है। पेपर सामने आने पर उसे सबसे पहले समय सीमा में बांधो। प्रश्न को एक बार नहीं दूसरी बार पढने के बाद हल करो। अपने मस्तिष्क को केंद्रित करने के लिए लगातार एक्सरसाइज करते रहो।
अभिभावकों के लिए
एकाग्रता के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार अभिभावक ही होते हैं। घर पर किशोर अपना समय किस प्रकार कहां लगा रहा है व कितनी एकाग्रता से क्या कर रहा है यह देखना और समझना जरूरी है। उसे उसकी रुचि के काम या दिमागी कसरत वाले गेम में व्यस्त रखें। अधिक से अधिक पढने की आदत डालें। एकाग्रता के लिए इससे बेहतर एक्सरसाइज नहीं। ये कोर्स की किताबों की जगह, कहानी या उपन्यास भी हों तो कोई बात नहीं।
3. अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है। इस उम्र में ध्यान भटकने की परेशानी बहुत होती है। पल में यहां तो पल में वहां विचार पहुंच जाते हैं। शालू का मसला भी ऐसा ही था, वह परीक्षा देने गई हिंदी की और पेपर था सोशल साइंस का। रोते-रोते दिमाग खराब हो गया। भले ही कोर्स पूरा तैयार हो लेकिन अंतिम तैयारी का भी तो कोई मतलब होता है। राहुल तो उससे भी आगे निकला बोर्ड की परीक्षा देने गया तो रोल नंबर घर ही भूल गया। यह सब घटनाएं दिमागी अस्थिरता की निशानी हैं। इसी क्रम में गजेन है, जो इंजीनियरिंग ड्राइंग की परीक्षा देने गया और जरूरी इंस्ट्रूमेंट ले जाना ही भूल गया। योग्य छात्र होने के कारण उसे अध्यापक से लेकर सहपाठियों तक ने सहयोग दिया, लेकिन इससे समय तो नष्ट हुआ ही।
छात्रों के लिए
हम जब बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सिखाते हैं तो सबसे पहला पाठ यही पढाते हैं कि अपने मूल्यों को समझो। भारतीय होने के कारण अपनी जडों से अलग होना आसान और सही निर्णय नहीं। क्रोध से बुद्धि का नाश होता है, सही निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है। काम, क्रोध, लोभ और मोह को काबू में रखो। चीजों को बढा-चढाकर नहीं, उनके सही रूप में देखो और समझो। एक गलत कदम आगे के कितने कदमों को गलत करेगा यह इस उम्र में नहीं पता होता, लेकिन यह जानना जरूरी है।
अभिभावकों के लिए
सबसे ज्यादा परेशानी भावनाओं के मामले में इसलिए आ रही है क्योंकि किशोर अकेले होते जा रहे हैं। एकल परिवारों में पलने वाले और कामकाजी स्त्रियों के बच्चे अपने को अकेला महसूस करते हैं। उनकी भावनाओं को समझने और उन्हें जानने का वक्त पेरेंट्स के पास है ही नहीं। सबसे अनिवार्य कदम इस दिशा में यह होगा कि अभिभावक इस परेशानी को समझें व क्वालिटी टाइम बच्चे के साथ बिताएं।
4. इसी अकेलेपन से उपजती है पियर प्रेशर की समस्या। वेणी अकेली बच्ची होने के कारण अंतर्मुखी रही, किशोर हुई तो मां की नौकरी ने उसे और अकेला कर दिया। ऐसे में दोस्तों के सिवाय उसका कोई साथी ही नहीं था। जो दोस्त कहें वही अंतिम रूप से मान्य होता, भले ही गलत हो।
छात्रों के लिए
इस उम्र में शेयरिंग की समस्या से गुजरना आम है। हमसे आप बेझिझक बात करते हैं लेकिन अपने परिवारजन से बात करने में कतराते हैं। उनसे दोस्ती करने का प्रयास करें।
अभिभावकों के लिए
एक बच्चे की तुलना दूसरे से न करें। जब दो इंसानों की शक्ल एक सी नहीं होती तो अक्ल कैसे एक सी हो सकती है। हो सकता है कि एक बच्चा पढाई में अच्छा हो तो दूसरा अन्य किसी क्षेत्र में विलक्षण हो। इसे पहचान कर प्रोत्साहन देना भी आवश्यक है। सबसे जरूरी है कि आप किशोर होते बच्चे के दोस्त बनें। दोस्त बनते ही बहुत सी समस्याएं अपने आप आसानी से हल हो जाएंगी।
5. किसी विषय को लेकर मन में डर समाते भी इस उम्र में देखा जाता है। पल्लवी की मम्मी को स्कूल में बुला कर गणित के अध्यापक ने बताया कि न तो यह कक्षा कार्य ठीक से करती है और न ही गृहकार्य करके लाती है। पल्लवी अति संवेदनशील होने के कारण अपने कडक टीचर से तालमेल नहीं बैठा पा रही थी। जरा सी कोशिशों ने उसे कक्षा के योग्य छात्रों में ला खडा किया।
छात्रों के लिए
हर छात्र का अपना एप्टीटयूड होता है। जब हमारे पास कोई समस्या लेकर आता है तब हम सबसे पहले गलती की जड ढूंढते हैं। फोबिया होने की भी अलग-अलग वजह होती हैं। कई बार योग्यता का अभाव होता है तो कई बार अतिरिक्त योग्यता होने पर भी आप तालमेल नहीं बैठा पाते। इसके लिए गलती को समझना और गहराई से जानना जरूरी होता है।
अभिभावकों के लिए
अपनी संतान की बेहतरी के लिए जितने प्रयास आपको करने पडें कम हैं। उसके पास बैठिए और समझने की कोशिश करें कि कहां क्या कमी है जिसे सुधारा जा सकता है। यदि आप काउंसलर की सहायता लेना चाहते हैं तो भी आपके ब"ो के सारे विवरण होने जरूरी हैं।
न डरें बोर्ड परीक्षा से
दस से बारह साल तक अपने स्कूल में परीक्षा देने के स्थान पर बोर्ड परीक्षा के नाम से ही अकसर छात्रों के मन में डर हावी हो जाता है। यदि समझदारी से थोडी भी तैयारी की गई है तो डरने की जरूरत नहीं है। उत्तर पुस्तिका में आपकी राइटिंग साफ हो। हर उत्तर थोडा सा स्पेस देकर लिखें जिससे जांचकर्ता को समझने में कम से कम परेशानी हो। प्रश्न पत्र मिलने पर ध्यान से उसे पढें तथा समय के अनुरूप हर प्रश्न को बांट लें। अच्छी तरह आने वाले उत्तर पहले दें। यदि एक प्रश्न के कई भाग हैं तो सभी के उत्तर एक ही जगह दें। अंग्रेजी विषय को चार भागों में बांटा जाता है रीडिंग (पढना), राइटिंग (लेखन), ग्रामर (व्याकरण) और प्रोज (गद्य)। अकेले रीडिंग हिस्से के नंबर 34 हैं। यदि थोडी भी तैयारी हो तो पास होने का प्रतिशत सुरक्षित हो जाता है।
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