सैकडों हाथों से एकत्रित करो और हजारों हाथों से बांटो। यह कथन अथर्ववेदसे लिया गया है। वास्तव में, यदि हमें कुछ पाना है, तो कुछ त्याग भी करना पडेगा। यह आध्यात्मिक नियम भी है कि दिया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता है, बल्कि वह कई गुणा बढकर वापस हमारे पास आ जाता है। पाने का पूरक है दान
यदि हम कुछ पाना चाहते हैं, तो पहले दान देना होगा। यह नियम प्रकृति के साथ भी लागू होता है। उदाहरण के लिए यदि हमें अन्न प्राप्त करना है, तो पहले हमें पृथ्वी को बीज के रूप में दान देना पडता है। बाद में यही बीज हमें अन्न-भंडार के रूप में प्राप्त होता है। यदि वृक्षों से हमें फल प्राप्त करना है, तो पहले खाद-पानी एवं सेवा के रूप में कुछ न कुछ त्याग करना ही पडता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में यह नियम समान रूप से लागू होता है। महापुरुषों के अनुसार, जो कुछ भी आपको हासिल करना है, कुछ वही दूसरों को देकर देखिए। सच पूछिए, तो जितना आपने दिया है, उससे कई गुणा ज्यादा आपको मिल जाएगा। चिंतक का दृष्टिकोण
हमारे ऋषि-मुनि भी यही मानते हैं कि जितना अधिक हम दूसरों को देते हैं, उतना ही हम पाते भी हैं। यहां प्रसिद्ध भारतीय चिंतक कृष्णमूर्ति का एक दृष्टांत है। एक व्यक्ति ईश्वर के बहुत समीप था। एक बार ईश्वर ने उससे कहा, एक गिलास जल देना। वह व्यक्ति जल लेने कुछ दूर निकल गया। एक घर में जल मांगने पहुंचा, तो वहां एक सुन्दर युवती को देखा। युवती को देखते ही उसे प्रेम हो गया। यहां तक कि उसने उससे विवाह भी कर लिया। दंपत्तिके बाल-बच्चे भी हो गए। एक बार जोरों की वर्षा हुई। नदी-नाले उमड पडे। अपने घर-परिवार के साथ वह भी जब डूबने लगा, तो उसने ईश्वर से प्रार्थना की, प्रभु मुझे बचा लो। ईश्वर ने कहा, मेरा एक गिलास जल कहां है?
एक ईसाई चिंतक ने इस आध्यात्मिक प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए एक बडी अच्छी घटना को उद्धृत किया है। एक राजा हाथी पर सवार होकर जा रहा था। एक भिक्षुक ने उसे देखा और वह उसके पीछे दौडने लगा, राजा मुझे कुछ दान दो। राजा ने कहा, पहले तुम मुझे कुछ दो। भिक्षुक ने सोचा यह कैसा राजा है, जो एक भिखारी से दान लेना चाहता है! उसने क्रोध में चावल के चार दाने उसके ऊपर फेंक दिए। राजा ने उसके भिक्षा-पात्र में सोने के कई दाने डाल दिए। भिक्षुक ने आश्चर्य से अपने पात्र में पडे सोने के चावलों को देखा और सोचा, मुझे अपने सभी दान को राजा को दे देना चाहिए था। सबसे बडा धर्म
हमारे धर्मग्रंथों में भी कहा गया है कि दान से बडा कोई धर्म नहीं-न हि दानात्परो धर्म:। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है-जिस किसी विधि से दान दो, उससे आपका कल्याण ही होगा।
जेनकेन बिधिदीन्हें।
दान करईकल्यान।।
वेदों ने बहुत पहले ही दान की महत्ता बताई थी। ऋग्वेद में अनेक दान-संबंधी ऋचाएंहैं। उदाहरण के लिए दान नहीं देने वाले मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकते हैं। [ऋक्-10/117/1]
ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसमें दान की महत्ता को रेखांकित नहीं किया गया हो। ईसाई धर्म से लेकर इस्लाम, बौद्ध, जैन, पारसी आदि सभी धर्म एक स्वर से दान की महत्ता का गुणगान करते हैं।
इस्लाम में अनुयायियों के लिए आय का दसवां हिस्सा खैरात के रूप में देने का प्रावधान है। इसी तरह टेथर के रूप में ईसाई धर्म में भी आय का दशम भाग चर्च को नियमित रूप से देने की प्रथा है। बाइबल में भी दान के महत्व को रेखांकित किया गया है। उसके अनुसार, लेने से अधिक देना हमारे लिए सदैव हितकारी होता है। इसलिए यदि हमें आध्यात्मिक साधना करनी है, तो हमें अल्प ही सही, दान जरूर देना चाहिए।
Saturday, December 27, 2008
हम ईश्वर को क्यों मानते हैं
समय के साथ-साथ हम मानवों में सोचने की शक्ति भी विकसित हुई। सबसे पहले हमें यह ज्ञान हुआ कि इस सृष्टि की रचना के पीछे कोई अदृश्य शक्ति है और इसका संचालन भी उन्हीं के हाथों में है। मानव के एक समूह ने उस शक्ति को ईश्वर या प्रभु का नाम दिया, तो दूसरे समूह ने अल्लाह या गॉड कहकर पुकारा। ये सभी समूह बाद में अलग-अलग धर्मो के रूप में विकसित हो गए।
वास्तव में, भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने वाले ईश्वर एक ही हैं, जिनकी उपस्थिति के प्रति हम अपना विश्वास प्रकट करने के लिए उनकी वंदना करते हैं। उनकी वंदना करने का एक माध्यम अध्यात्म भी है। सच तो यह है कि परमात्मा तक पहुंचने का बाहरी मार्ग धर्म यानी भक्ति है। वहीं ध्यान के जरिए परमात्मा तक पहुंचने का भीतरी मार्ग अध्यात्म है। हम ईश्वर तक कैसे, किस मार्ग से पहुंचते हैं यह मुख्य नहीं, मुख्य है उन तक पहुंचना। लेकिन सवाल यह उठता है कि मनुष्य ईश्वर को क्यों मानता है? क्या ईश्वर को मानना उसकी जरूरत है या मजबूरी? उसका भय है या विश्वास? उसकी श्रद्धा है या लोभ? व्यक्ति के ईश्वर के प्रति आस्था के पीछे कौन-सी मनोवैज्ञानिक वजह अधिक प्रभावी होती है, यह शोध का विषय है। ईश्वर का स्वरूप
अलग-अलग व्यक्तियों के लिए ईश्वर का स्वरूप भी अलग-अलग ही होता है।
कोई ईश्वर को साकार रूप में मानता है, तो कोई निराकार रूप में। किसी के लिए ईश्वर मंदिरों एवं मूर्तियों में बसते हैं, तो किसी के लिए मन-मंदिर एवं दूसरों की सेवा में।
किसी के लिए जीवन ही परमात्मा है, तो किसी के लिए आस-पास मौजूद प्रकृति परमात्मा के समान है। कोई उन तक पहुंचने के लिए भजन-कीर्तन या धार्मिक कर्मकांडों का सहारा लेता है, तो कोई ध्यान एवं योग का। कारण और ढंग भले ही अलग-अलग हो, लेकिन यह सच है कि लोग ईश्वर को किसी न किसी रूप में मानते जरूर हैं। ईश्वर को मानने का चलन सदियों नहीं, युगों पुराना है। ईश्वर एक रहस्य
ईश्वर को मानने के पीछे न केवल धार्मिक कारण हैं, बल्कि कई मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। आज मनुष्य चाहे जितनी भी तरक्की कर ले, वह ईश्वर के रहस्यों को नहीं जान पाया है। वे इनसान के लिए आज भी एक चुनौती के समान हैं।
इनसान का विज्ञान आज भी आत्मा-परमात्मा, जन्म-मृत्यु के रहस्यों को लांघ नहीं पाया है। लेकिन यह सौ प्रतिशत सही नहीं है कि ईश्वर को मानने के पीछे उसका शक्तिशाली होना या रहस्यमयी होना ही एकमात्र कारण है। कुछ लोग भगवान को प्रेम वश भी चाहते हैं। वे ईश्वर को मानते ही इसीलिए हैं, क्योंकि वे उन्हें जान गए हैं। ईश्वर अब उनके लिए कोई रहस्य नहीं रहे। सरल है ईश्वर को मानना
इनसान ईश्वर को क्यों मानता है? क्योंकि मानने के अलावा, इनसान के पास और कोई चारा भी नहीं है। जब हम किसी चीज को मान लेते हैं, तो खोज करने के श्रम से खुद-ब-खुद बच जाते हैं। व्यक्ति सदा मेहनत से बचता रहा है। वह इस बात को भी जानने का प्रयास नहीं करना चाहता कि यह जीवन क्या है? क्यों है? यह सृष्टि किसने बनाई? वह बस मान लेता है, क्योंकि यही उसके लिए सरल है। ईश्वर को जानना या अनुभव में लाना आसान नहीं है।
दरअसल, ईश्वर को जान लेने का अर्थ है- स्वयं को मिटा देना और इनसान स्वयं को मिटाना नहीं चाहता है। इसीलिए वह मान लेता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। विश्वास से उपजी श्रद्धा
यदि हम ईश्वर को मानते हैं, तो उसके पीछे संपूर्ण सृष्टि के संचालक की शक्ति को मानना या उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना तर्कसंगत है। दरअसल, ईश्वर के प्रति श्रद्धा की वजह है हमारा विश्वास। हम यह मानते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है, वह ईश्वर की ही देन है। यहां तक कि हमें जीवन भी उन्होंने ही दिया है, यानी वे दाता हैं। इसलिए उनके प्रति आभार प्रकट करना लाजिमी है। फल प्राप्ति का माध्यम
ईश्वर को मानने का एक कारण भय भी हो सकता है। कुछ लोगों के मन में यह भय होता है कि जीवन में आने वाली विपत्तियां ईश्वर के क्रोधित होने के कारण ही आती हैं। इसलिए यदि वे ईश्वर की पूजा-अर्चना नहीं करेंगे, तो जीवन में कष्ट और तकलीफों का अंबार लग जाएगा। वहीं दूसरी ओर, यदि हम उनकी वंदना करते हैं, तो हमारे ऊपर अच्छे स्वास्थ्य, आयु, धन आदि की कृपा बनी रहेगी।
कुछ लोगों के लिए ईश्वर उनके द्वारा संपन्न किए गए कर्मो के लिए फल प्राप्ति का माध्यम है। सच तो यह है कि उनकी पूजा-अर्चना, धार्मिक कर्मकांड कुछ और नहीं, बल्कि उन्हें प्रसन्न कर मनोवांछित फल प्राप्त करने का माध्यम भर है।
कुछ लोग न केवल ज्योतिषीयगणना को ईश्वर की कृपा प्राप्ति का आधार मानते हैं, बल्कि कुछ लोग दान-पुण्य में ही ईश्वर की प्राप्ति करते हैं। परंपरा का पालन
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो केवल दूसरों की देखा-देखी में ईश्वर को मानने लगते हैं। उन्हें नफा-नुकसान और सच-झूठ किसी से कोई मतलब नहीं होता है। वे ईश्वर को मानते हैं, क्योंकि उनका परिवार मान रहा है या संपूर्ण दुनिया मान रही है। इसलिए वे भी उस भीड का हिस्सा बने रहना चाहते हैं। भीड से अलग चलना उन्हें समाज से अलग चलने के समान प्रतीत होता है।
सदियों से पीढी-दर-पीढी उनके घर-परिवार के लोग ईश्वर को मानते चले आ रहे हैं। कुछ लोग अपनी परंपरा को निभाने के कारण ईश्वर को पूजतेव मानते आए हैं। वे उसे तोडना नहीं चाहते, बल्कि उसे बरकरार रखना चाहते हैं। संभव है कि वे कुल देवी या कुल पूजन के रूप में इस प्रथा को निभाते आ रहे हों। धार्मिकताका पालन
अधिकतर लोगों का यही मानना है कि ईश्वर को मानना ही धार्मिक होने की परिभाषा है। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं, उन्हें नास्तिक समझा जाता है। उनका विचार होता है कि धार्मिक आदमी सीधा, सच्चा, साफ और सात्विक होता है। इस छवि को बनाए रखने के लिए स्वयं को धार्मिक या आस्तिक कहलवाने के लिए लोग ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखते हैं या उनकी पूजा-अर्चना करते रहते हैं। ध्यान का माध्यम
ईश्वर को ध्यान एवं योग साधना का सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है। दरअसल, हम सभी स्थान से अपना ध्यान हटाकर ईश्वर को याद करते हैं। ऐसे लोगों का मानना यही है कि यदि मन को एकाग्रचित्त करना है, तो उस सर्वशक्तिमान को सच्चे मन से याद करना चाहिए। इससे न केवल हमारे मन के विकार दूर होते हैं, बल्कि हम अपने इंद्रियों को वश में करने में भी सामर्थवानहो जाते हैं।
वास्तव में, भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने वाले ईश्वर एक ही हैं, जिनकी उपस्थिति के प्रति हम अपना विश्वास प्रकट करने के लिए उनकी वंदना करते हैं। उनकी वंदना करने का एक माध्यम अध्यात्म भी है। सच तो यह है कि परमात्मा तक पहुंचने का बाहरी मार्ग धर्म यानी भक्ति है। वहीं ध्यान के जरिए परमात्मा तक पहुंचने का भीतरी मार्ग अध्यात्म है। हम ईश्वर तक कैसे, किस मार्ग से पहुंचते हैं यह मुख्य नहीं, मुख्य है उन तक पहुंचना। लेकिन सवाल यह उठता है कि मनुष्य ईश्वर को क्यों मानता है? क्या ईश्वर को मानना उसकी जरूरत है या मजबूरी? उसका भय है या विश्वास? उसकी श्रद्धा है या लोभ? व्यक्ति के ईश्वर के प्रति आस्था के पीछे कौन-सी मनोवैज्ञानिक वजह अधिक प्रभावी होती है, यह शोध का विषय है। ईश्वर का स्वरूप
अलग-अलग व्यक्तियों के लिए ईश्वर का स्वरूप भी अलग-अलग ही होता है।
कोई ईश्वर को साकार रूप में मानता है, तो कोई निराकार रूप में। किसी के लिए ईश्वर मंदिरों एवं मूर्तियों में बसते हैं, तो किसी के लिए मन-मंदिर एवं दूसरों की सेवा में।
किसी के लिए जीवन ही परमात्मा है, तो किसी के लिए आस-पास मौजूद प्रकृति परमात्मा के समान है। कोई उन तक पहुंचने के लिए भजन-कीर्तन या धार्मिक कर्मकांडों का सहारा लेता है, तो कोई ध्यान एवं योग का। कारण और ढंग भले ही अलग-अलग हो, लेकिन यह सच है कि लोग ईश्वर को किसी न किसी रूप में मानते जरूर हैं। ईश्वर को मानने का चलन सदियों नहीं, युगों पुराना है। ईश्वर एक रहस्य
ईश्वर को मानने के पीछे न केवल धार्मिक कारण हैं, बल्कि कई मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। आज मनुष्य चाहे जितनी भी तरक्की कर ले, वह ईश्वर के रहस्यों को नहीं जान पाया है। वे इनसान के लिए आज भी एक चुनौती के समान हैं।
इनसान का विज्ञान आज भी आत्मा-परमात्मा, जन्म-मृत्यु के रहस्यों को लांघ नहीं पाया है। लेकिन यह सौ प्रतिशत सही नहीं है कि ईश्वर को मानने के पीछे उसका शक्तिशाली होना या रहस्यमयी होना ही एकमात्र कारण है। कुछ लोग भगवान को प्रेम वश भी चाहते हैं। वे ईश्वर को मानते ही इसीलिए हैं, क्योंकि वे उन्हें जान गए हैं। ईश्वर अब उनके लिए कोई रहस्य नहीं रहे। सरल है ईश्वर को मानना
इनसान ईश्वर को क्यों मानता है? क्योंकि मानने के अलावा, इनसान के पास और कोई चारा भी नहीं है। जब हम किसी चीज को मान लेते हैं, तो खोज करने के श्रम से खुद-ब-खुद बच जाते हैं। व्यक्ति सदा मेहनत से बचता रहा है। वह इस बात को भी जानने का प्रयास नहीं करना चाहता कि यह जीवन क्या है? क्यों है? यह सृष्टि किसने बनाई? वह बस मान लेता है, क्योंकि यही उसके लिए सरल है। ईश्वर को जानना या अनुभव में लाना आसान नहीं है।
दरअसल, ईश्वर को जान लेने का अर्थ है- स्वयं को मिटा देना और इनसान स्वयं को मिटाना नहीं चाहता है। इसीलिए वह मान लेता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। विश्वास से उपजी श्रद्धा
यदि हम ईश्वर को मानते हैं, तो उसके पीछे संपूर्ण सृष्टि के संचालक की शक्ति को मानना या उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना तर्कसंगत है। दरअसल, ईश्वर के प्रति श्रद्धा की वजह है हमारा विश्वास। हम यह मानते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है, वह ईश्वर की ही देन है। यहां तक कि हमें जीवन भी उन्होंने ही दिया है, यानी वे दाता हैं। इसलिए उनके प्रति आभार प्रकट करना लाजिमी है। फल प्राप्ति का माध्यम
ईश्वर को मानने का एक कारण भय भी हो सकता है। कुछ लोगों के मन में यह भय होता है कि जीवन में आने वाली विपत्तियां ईश्वर के क्रोधित होने के कारण ही आती हैं। इसलिए यदि वे ईश्वर की पूजा-अर्चना नहीं करेंगे, तो जीवन में कष्ट और तकलीफों का अंबार लग जाएगा। वहीं दूसरी ओर, यदि हम उनकी वंदना करते हैं, तो हमारे ऊपर अच्छे स्वास्थ्य, आयु, धन आदि की कृपा बनी रहेगी।
कुछ लोगों के लिए ईश्वर उनके द्वारा संपन्न किए गए कर्मो के लिए फल प्राप्ति का माध्यम है। सच तो यह है कि उनकी पूजा-अर्चना, धार्मिक कर्मकांड कुछ और नहीं, बल्कि उन्हें प्रसन्न कर मनोवांछित फल प्राप्त करने का माध्यम भर है।
कुछ लोग न केवल ज्योतिषीयगणना को ईश्वर की कृपा प्राप्ति का आधार मानते हैं, बल्कि कुछ लोग दान-पुण्य में ही ईश्वर की प्राप्ति करते हैं। परंपरा का पालन
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो केवल दूसरों की देखा-देखी में ईश्वर को मानने लगते हैं। उन्हें नफा-नुकसान और सच-झूठ किसी से कोई मतलब नहीं होता है। वे ईश्वर को मानते हैं, क्योंकि उनका परिवार मान रहा है या संपूर्ण दुनिया मान रही है। इसलिए वे भी उस भीड का हिस्सा बने रहना चाहते हैं। भीड से अलग चलना उन्हें समाज से अलग चलने के समान प्रतीत होता है।
सदियों से पीढी-दर-पीढी उनके घर-परिवार के लोग ईश्वर को मानते चले आ रहे हैं। कुछ लोग अपनी परंपरा को निभाने के कारण ईश्वर को पूजतेव मानते आए हैं। वे उसे तोडना नहीं चाहते, बल्कि उसे बरकरार रखना चाहते हैं। संभव है कि वे कुल देवी या कुल पूजन के रूप में इस प्रथा को निभाते आ रहे हों। धार्मिकताका पालन
अधिकतर लोगों का यही मानना है कि ईश्वर को मानना ही धार्मिक होने की परिभाषा है। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं, उन्हें नास्तिक समझा जाता है। उनका विचार होता है कि धार्मिक आदमी सीधा, सच्चा, साफ और सात्विक होता है। इस छवि को बनाए रखने के लिए स्वयं को धार्मिक या आस्तिक कहलवाने के लिए लोग ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखते हैं या उनकी पूजा-अर्चना करते रहते हैं। ध्यान का माध्यम
ईश्वर को ध्यान एवं योग साधना का सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है। दरअसल, हम सभी स्थान से अपना ध्यान हटाकर ईश्वर को याद करते हैं। ऐसे लोगों का मानना यही है कि यदि मन को एकाग्रचित्त करना है, तो उस सर्वशक्तिमान को सच्चे मन से याद करना चाहिए। इससे न केवल हमारे मन के विकार दूर होते हैं, बल्कि हम अपने इंद्रियों को वश में करने में भी सामर्थवानहो जाते हैं।
पहले हम स्वयं बनें पात्र
सोचा हुआ नहीं, किया हुआ कर्म काम आता है
यह सच है कि समाज में सोचने वाले व्यक्तियों की संख्या अधिक है, लेकिन एक सच यह भी है कि उस सोच को अपने जीवन में ढालने वाले लोग कम ही हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो यह कहे कि मुझे सफलता नहीं चाहिए। लेकिन लाखों लोग ऐसे भी होंगे, जो सफलता प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करना चाहते होंगे। हालांकि सच्चाई यह है कि बिना प्रयास किए हुए किसी भी व्यक्ति को सफलता मिल ही नहीं सकती।
वैसे, कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पडता है। इसलिए जो लोग सफलता का रहस्य जानना चाहते हैं, वे शीघ्र पात्र बनने का प्रयास करें। दरअसल, सफलता पाने के लिए पात्रता आवश्यक है, लेकिन प्रश्न यह है कि पात्र बनें कैसे? इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। जिस प्रकार हम पानी प्राप्त करने के लिए गड्ढा खोदते हैं, उसी प्रकार हमें अपनी संकल्प शक्ति से मन की भूमि में भी गड्ढा खोदना चाहिए। इससे हम सफलता का अमृत-कण प्राप्त कर सकेंगे। इसी अमृत-कण की ऊर्जा से हमारे जीवन के विकार नष्ट होंगे और हमारी कुंठाएंभी समाप्त हो जाएंगी।
साथ ही, हमारी संकल्प-शक्ति भी दृढ होगी। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब हम स्वयं निर्णय ले सकेंगे कि किस कार्य को करने से सफलता मिलेगी।
दरअसल, जब हम सफलता चाहेंगे, यानी सफलता पाने की इच्छाशक्ति ही होती है, तो निश्चित रूप से सफलता मिलेगी। जो लोग आज सफल हैं, वास्तव में उनकी सफलता के पीछे उनकी दृढ इच्छाशक्ति है। वहीं दूसरी ओर, जो लोग न तो प्रयास करते हैं और न ही दृढ इच्छाशक्ति रखते हैं, उन्हें हमेशा असफलता ही हाथ लगती है। इसलिए हमारी इच्छा महत्वपूर्ण है। सच तो यह है कि सफल व्यक्ति यह मान लेते हैं कि उसे सफलता मिलनी तय है। इसलिए वे उसी के अनुरूप अपना आचरण और व्यवहार भी करने लगते हैं।
सच तो यह है कि वे सफलता प्राप्त करने सेपहलेही मानसिक रूप से खुद को सफल मान लेते हैं। ऐसी ही मानसिकता उसे सफल व्यक्ति की तरह आचरण करने के लिए प्रेरित करती रहती है और उसे रास्ते से डिगने नहीं देती है। यदि हम अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए सफल होना चाहते हैं, तो पहले उस जीवन को जीने योग्य बनाना चाहिए। वास्तव में, यदि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सुमार्ग पर चला जाए, तो हम खुद-ब-खुद सफलता प्राप्त करने के पात्र बन जाते हैं। कहने का मतलब यही है कि हम जब चाहें, अपने संकल्प-पात्र में सफलता की बीज को अंकुरित कर सकते हैं, क्योंकि सफलता की बीज के अंकुरण के लिए आधार की आवश्यकता भी होती है।
दरअसल, यही आधार हमारा संकल्पमयजीवन है। यदि हम प्रतिक्षण दूसरों की भलाई, कल्याण कार्य आदि के लिए प्रयासरत रहेंगे, तो हमें पता चल सकेगा कि जीवन जीने की विधि क्या है? जीवन को सुंदर कैसे बनाया जाए? क्योंकि हमें सफलता भी जीवन को सुंदर बनाने के लिए ही मिलती है।
यह सच है कि समाज में सोचने वाले व्यक्तियों की संख्या अधिक है, लेकिन एक सच यह भी है कि उस सोच को अपने जीवन में ढालने वाले लोग कम ही हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो यह कहे कि मुझे सफलता नहीं चाहिए। लेकिन लाखों लोग ऐसे भी होंगे, जो सफलता प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करना चाहते होंगे। हालांकि सच्चाई यह है कि बिना प्रयास किए हुए किसी भी व्यक्ति को सफलता मिल ही नहीं सकती।
वैसे, कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पडता है। इसलिए जो लोग सफलता का रहस्य जानना चाहते हैं, वे शीघ्र पात्र बनने का प्रयास करें। दरअसल, सफलता पाने के लिए पात्रता आवश्यक है, लेकिन प्रश्न यह है कि पात्र बनें कैसे? इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। जिस प्रकार हम पानी प्राप्त करने के लिए गड्ढा खोदते हैं, उसी प्रकार हमें अपनी संकल्प शक्ति से मन की भूमि में भी गड्ढा खोदना चाहिए। इससे हम सफलता का अमृत-कण प्राप्त कर सकेंगे। इसी अमृत-कण की ऊर्जा से हमारे जीवन के विकार नष्ट होंगे और हमारी कुंठाएंभी समाप्त हो जाएंगी।
साथ ही, हमारी संकल्प-शक्ति भी दृढ होगी। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब हम स्वयं निर्णय ले सकेंगे कि किस कार्य को करने से सफलता मिलेगी।
दरअसल, जब हम सफलता चाहेंगे, यानी सफलता पाने की इच्छाशक्ति ही होती है, तो निश्चित रूप से सफलता मिलेगी। जो लोग आज सफल हैं, वास्तव में उनकी सफलता के पीछे उनकी दृढ इच्छाशक्ति है। वहीं दूसरी ओर, जो लोग न तो प्रयास करते हैं और न ही दृढ इच्छाशक्ति रखते हैं, उन्हें हमेशा असफलता ही हाथ लगती है। इसलिए हमारी इच्छा महत्वपूर्ण है। सच तो यह है कि सफल व्यक्ति यह मान लेते हैं कि उसे सफलता मिलनी तय है। इसलिए वे उसी के अनुरूप अपना आचरण और व्यवहार भी करने लगते हैं।
सच तो यह है कि वे सफलता प्राप्त करने सेपहलेही मानसिक रूप से खुद को सफल मान लेते हैं। ऐसी ही मानसिकता उसे सफल व्यक्ति की तरह आचरण करने के लिए प्रेरित करती रहती है और उसे रास्ते से डिगने नहीं देती है। यदि हम अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए सफल होना चाहते हैं, तो पहले उस जीवन को जीने योग्य बनाना चाहिए। वास्तव में, यदि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सुमार्ग पर चला जाए, तो हम खुद-ब-खुद सफलता प्राप्त करने के पात्र बन जाते हैं। कहने का मतलब यही है कि हम जब चाहें, अपने संकल्प-पात्र में सफलता की बीज को अंकुरित कर सकते हैं, क्योंकि सफलता की बीज के अंकुरण के लिए आधार की आवश्यकता भी होती है।
दरअसल, यही आधार हमारा संकल्पमयजीवन है। यदि हम प्रतिक्षण दूसरों की भलाई, कल्याण कार्य आदि के लिए प्रयासरत रहेंगे, तो हमें पता चल सकेगा कि जीवन जीने की विधि क्या है? जीवन को सुंदर कैसे बनाया जाए? क्योंकि हमें सफलता भी जीवन को सुंदर बनाने के लिए ही मिलती है।
सहजता में है असीम सौंदर्य
एक अच्छे इनसान में सहजता अनिवार्य गुण है। जो व्यक्ति सहज भाव से अपने लक्ष्य के प्रति निरंतर प्रयासरत रहते हैं, वे अपने जीवन में बहुत आगे जाते हैं।
कहा भी गया है-
जहां लोग पहुंचे छलांगें लगाकर,
वहां हम भी पहुंचे मगर धीरे-धीरे। सहजता का अनुसरण करने वाले पथिक जीवन में कभी भी पिछडते नहीं हैं। सच तो यह है कि एक ही झटके में शिखर पर पहुंचने में आनंद कहां मिलता है? अब प्रश्न यह उठता है कि कुछ लोग सहज होते हुए भी अपेक्षित सफलता क्यों नहीं हासिल कर पाते हैं? वे जीवन में क्यों पिछड जाते हैं? क्या ऊपर से सहज दिखने वाले व्यक्ति वास्तव में सहज होते भी हैं या नहीं?
कई बार कुछ व्यक्ति ऊपर से सहज जरूर दिखाई पडते हैं, लेकिन वास्तव में, वे सहज नहीं होते हैं। उस व्यक्ति के मन में द्वंद्व-पीडा और राग-द्वेष का एक तूफान चलता रहता है। दरअसल, यह उनके अंदर नकारात्मक भावों का तूफान होता है, लेकिन बाहर से वे सहजता का भाव प्रदर्शित करने का प्रयास करते रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि बाहर की खामोशी अभिनय मात्र है। अब यदि अभिनय ही करना है, तो आंतरिक शांति का अभिनय करना चाहिए। बाहर की खामोशी बेकार है। दूसरी ओर, यदि कोई व्यक्ति बाहर से मुखर है, तो यह बुरी बात नहीं है, क्योंकि बाहर की मुखरताआंतरिक शांति प्रदान कर सकती है। यदि आप बाहर से मुखर हैं, हंस रहे हैं, काम कर रहे हैं, प्रसन्नता व पीडा दोनों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति प्रगट कर रहे हैं, हर भाव को व्यक्त कर रहे हैं, लेकिन मन में अशांति हावी नहीं है, तो यही वास्तविक सहजता है।
सच तो यह है कि बाहरी मुखरताऔर चंचलतासे ही अंदर की सहजता प्राप्त की जा सकती है। किसी भी प्रकार का शारीरिक श्रम, व्यायाम, योगासन, खेल-कूद, शिल्प और कलाएं आंतरिक सहजता प्राप्त करने में सहायक हो सकती हैं। अक्सर हम देखते हैं कि किसान और मजदूर प्राय: अंदर से काफी सहज होते हैं, जबकि तथाकथित बुद्धिजीवी या प्रोफेशनल्सकभी-कभी ऊपर से सहज जरूर दिखते हैं, लेकिन वास्तव में वे अंदर से उतने ही असहज होते हैं। उनकी असहजताकी वजह मानसिक अशांति, तनाव, दबाव और द्वंद्व भी हो सकता है। ऐसी स्थिति मेयदि यह कहें कि जब तक भौतिक शरीर की जडता श्रम से समाप्त नहीं हो जाती है, तब तक आंतरिक सहजता संभव नहीं है, तो शायद गलत नही होगा। यह सच है कि शुरुआत में आपको सहज होने में कठिनाई हो सकती है। उदाहरण के लिए यदि आप कोई कार्य कर रहे हैं, तो उसमें बार-बार गलती हो सकती है। इसलिए उसे ठीक करने का सबसे आसान तरीका है कि उसे और अधिक सहज रूप से कीजिए। आप उसे अपनी स्वाभाविक गति से भी धीमी गति से कीजिए। इस सहजता से जो आंतरिक विकास और एकाग्रता हासिल होती है, वह कार्य को और बेहतर करने की क्षमता प्रदान करती है।
यदि आपको कोई विषय ज्यादा मुश्किल लगता है, तो उस विषय को बिल्कुल प्रारंभ से दोबारा शुरू कीजिए। जहां आप अटक रहे हैं, दो-तीन बार अभ्यास करें, लेकिन सभी कार्यो को पूरा करने में सहजता का गुण अनिवार्य है। सच तो यह है कि असहजताके कारण ही समस्याएं उत्पन्न होती हैं। दरअसल, सहजता में ही सौंदर्य का वास होता है। कली से फूल बनने में सहजता है, तभी फूल में असीम सौंदर्य व्याप्त होता है। यदि आप जोर-जबर्दस्ती कर सौंदर्य को निखारना चाहेंगे, तो यह संभव नहीं है। वास्तव में, कला या सौंदर्य के लिए अपेक्षित है सधे हुए हाथों से कार्य करना, अर्थात सहजता, जिसे हम तहजीब भी कह सकते हैं। जहां सहजता नहीं, वहां कैसी तहजीब और कैसा शिष्टाचार!
इसलिए यदि जीवन को सौंदर्य से लबालब करना है या उसे कलापूर्ण बनाना है, तो सहजता का दामन थामना ही होगा। वह भी बाहरी सहजता का नहीं, बल्कि आंतरिक सहजता का।
कहा भी गया है-
जहां लोग पहुंचे छलांगें लगाकर,
वहां हम भी पहुंचे मगर धीरे-धीरे। सहजता का अनुसरण करने वाले पथिक जीवन में कभी भी पिछडते नहीं हैं। सच तो यह है कि एक ही झटके में शिखर पर पहुंचने में आनंद कहां मिलता है? अब प्रश्न यह उठता है कि कुछ लोग सहज होते हुए भी अपेक्षित सफलता क्यों नहीं हासिल कर पाते हैं? वे जीवन में क्यों पिछड जाते हैं? क्या ऊपर से सहज दिखने वाले व्यक्ति वास्तव में सहज होते भी हैं या नहीं?
कई बार कुछ व्यक्ति ऊपर से सहज जरूर दिखाई पडते हैं, लेकिन वास्तव में, वे सहज नहीं होते हैं। उस व्यक्ति के मन में द्वंद्व-पीडा और राग-द्वेष का एक तूफान चलता रहता है। दरअसल, यह उनके अंदर नकारात्मक भावों का तूफान होता है, लेकिन बाहर से वे सहजता का भाव प्रदर्शित करने का प्रयास करते रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि बाहर की खामोशी अभिनय मात्र है। अब यदि अभिनय ही करना है, तो आंतरिक शांति का अभिनय करना चाहिए। बाहर की खामोशी बेकार है। दूसरी ओर, यदि कोई व्यक्ति बाहर से मुखर है, तो यह बुरी बात नहीं है, क्योंकि बाहर की मुखरताआंतरिक शांति प्रदान कर सकती है। यदि आप बाहर से मुखर हैं, हंस रहे हैं, काम कर रहे हैं, प्रसन्नता व पीडा दोनों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति प्रगट कर रहे हैं, हर भाव को व्यक्त कर रहे हैं, लेकिन मन में अशांति हावी नहीं है, तो यही वास्तविक सहजता है।
सच तो यह है कि बाहरी मुखरताऔर चंचलतासे ही अंदर की सहजता प्राप्त की जा सकती है। किसी भी प्रकार का शारीरिक श्रम, व्यायाम, योगासन, खेल-कूद, शिल्प और कलाएं आंतरिक सहजता प्राप्त करने में सहायक हो सकती हैं। अक्सर हम देखते हैं कि किसान और मजदूर प्राय: अंदर से काफी सहज होते हैं, जबकि तथाकथित बुद्धिजीवी या प्रोफेशनल्सकभी-कभी ऊपर से सहज जरूर दिखते हैं, लेकिन वास्तव में वे अंदर से उतने ही असहज होते हैं। उनकी असहजताकी वजह मानसिक अशांति, तनाव, दबाव और द्वंद्व भी हो सकता है। ऐसी स्थिति मेयदि यह कहें कि जब तक भौतिक शरीर की जडता श्रम से समाप्त नहीं हो जाती है, तब तक आंतरिक सहजता संभव नहीं है, तो शायद गलत नही होगा। यह सच है कि शुरुआत में आपको सहज होने में कठिनाई हो सकती है। उदाहरण के लिए यदि आप कोई कार्य कर रहे हैं, तो उसमें बार-बार गलती हो सकती है। इसलिए उसे ठीक करने का सबसे आसान तरीका है कि उसे और अधिक सहज रूप से कीजिए। आप उसे अपनी स्वाभाविक गति से भी धीमी गति से कीजिए। इस सहजता से जो आंतरिक विकास और एकाग्रता हासिल होती है, वह कार्य को और बेहतर करने की क्षमता प्रदान करती है।
यदि आपको कोई विषय ज्यादा मुश्किल लगता है, तो उस विषय को बिल्कुल प्रारंभ से दोबारा शुरू कीजिए। जहां आप अटक रहे हैं, दो-तीन बार अभ्यास करें, लेकिन सभी कार्यो को पूरा करने में सहजता का गुण अनिवार्य है। सच तो यह है कि असहजताके कारण ही समस्याएं उत्पन्न होती हैं। दरअसल, सहजता में ही सौंदर्य का वास होता है। कली से फूल बनने में सहजता है, तभी फूल में असीम सौंदर्य व्याप्त होता है। यदि आप जोर-जबर्दस्ती कर सौंदर्य को निखारना चाहेंगे, तो यह संभव नहीं है। वास्तव में, कला या सौंदर्य के लिए अपेक्षित है सधे हुए हाथों से कार्य करना, अर्थात सहजता, जिसे हम तहजीब भी कह सकते हैं। जहां सहजता नहीं, वहां कैसी तहजीब और कैसा शिष्टाचार!
इसलिए यदि जीवन को सौंदर्य से लबालब करना है या उसे कलापूर्ण बनाना है, तो सहजता का दामन थामना ही होगा। वह भी बाहरी सहजता का नहीं, बल्कि आंतरिक सहजता का।
ईश्वर का घर
संसार में प्रत्येक वस्तु के बनने या बनाने के पीछे कुछ न कुछ उद्देश्य अवश्य होता है, जिसमें उस वस्तु की विशेषताएं और लाभ छिपे होते हैं। भारत में मंदिरों के बनने के पीछे भी अपने उद्देश्य एवं लाभ हैं, जिसे सिर्फ पूजा-अर्चना का साधन मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। सच तो यह है कि कुछ लोग मंदिरों को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हैं, तो कुछ के विचार में यह असीम शांति का स्त्रोत-स्थल है। ईश्वर की उपस्थिति
कहते हैं ईश्वर की उपस्थिति चारों दिशाओं यहां तक कि प्रकृति के कण-कण में है। मनोविज्ञान के अनुसार, जब तक उसे कोई वस्तु दिखती नहीं है, तब तक वह उस पर विश्वास नहीं कर पाता है। इसलिए मूर्तियां बनाई गई और उसे एक निश्चित स्थान पर स्थापित किया गया। वैसे, जिस तरह इनसान घरों में रहते हैं, ठीक उसी तरह उन्होंने ईश्वर को मूर्ति के रूप में मंदिरों में स्थापित किया। जहां श्रद्धालुगण ईश्वर से मिलने और पूजा-अर्चना के लिए जाते हैं। सच तो यह है कि हर मंदिर के बनने के पीछे अपनी एक अलग कहानी होती है। दरअसल, मंदिर का निर्माण उन्हीं स्थानों पर किया गया, जहां उस मंदिर से संबंधित देवी-देवता का कुछ नाता रहा है, जैसे, कोई स्थान किसी देवी-देवता की जन्मस्थली मानी गई, तो किसी स्थान पर ईश्वर के पद-चिह्नों की बात बताई गई। इसलिए लोगों का उस स्थान के प्रति अगाध प्रेम होता है। उसी प्रेम एवं आस्था को प्रदर्शित करने के लिए लोगों ने उस स्थान पर भजन-कीर्तन और पूजा-अर्चना शुरू कर दी। और धीरे-धीरे उस स्थान के ईट और पत्थरों ने मंदिर की शक्ल ले ली।
मूर्तियों की उपासना बिना मूर्ति के मंदिरों की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, क्योंकि इन्हीं मूर्तियों के सामने लोग अपनी मुरादें मांगते हैं, अपनी झोली फैलाते हैं, फल-फूल चढाते हैं और भक्ति भाव से पूजा-पाठ करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या मूर्तियां किसी का दुखडा सुनती हैं? क्या इन मूर्तियों के आगे नमन करने से मन को शांति मिलती है?
श्रद्धा की नजर से देखने वाले कहते हैं कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु सूरत देखी तन वैसी, या मानो तो शंकर, अन्यथा कंकर। इनके पीछे सच्चाई जो भी हो, लेकिन मंदिर में ईश्वर की मूर्तियां इनसान को झुकना सिखाती हैं और उनमें सेवा-भाव का संचरण भी करती हैं। बेहतर स्वास्थ्य
जहां मूर्तियां होती हैं, वहां पूजा-पाठ, आरती, भजन-कीर्तन, मंत्रोच्चारण, परिक्रमा आदि आवश्यक है। वैसे, जो लोग रोज मंदिर जाते हैं, उनके जीवन में एक तरह की नियमितता,संतुलन और समयनिष्ठताआती है, जिससे उनके व्यक्तित्व में निखार भी आता है।
सच तो यह है कि मंदिर जाने से मनुष्य का सबसे बडा शत्रु आलस्य दूर भाग जाता है। रोज मंदिर तक पैदल चलने से न केवल शरीर का व्यायाम हो जाता है, बल्कि ताली बजाते-बजाते मंदिरों की परिक्रमा करने, कीर्तनों में ढोलक, मंजीरा, घंटा आदि बजाने से शरीर का रक्त-संचार और रक्त-चाप भी संतुलित रहता है। डॉक्टरों का मानना है कि ऐसा करने से न सिर्फ शरीर निरोग रहता है, बल्कि यह एक्यूप्रेशर का काम भी करता है। एक्यूप्रेशर कुछ और नहीं, बल्कि हमारी हथेली और तलवों पर दबाव डालने से रोगों को ठीक करने की चिकित्सा पद्धति का ही एक नाम है। आपसी प्रेम और रीति-रिवाज
प्राचीन काल में हम सभी लोग मिलकर मंदिरों में त्योहार मनाते थे, जिससे प्रेम और आपसी सद्भावना भी बढती थी। हां, ये त्योहार एक-दूसरे से मिलने, जानने और करीब आने का मौका देते थे। मंदिरों में रीति-रिवाज के साथ उत्सव मनाने से लोगों को पूजा व त्योहारों का धार्मिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ भी समझ में आ जाता था।
दरअसल, आज के भौतिक जीवन में अत्यधिक व्यस्तता की वजह से लोग अब मंदिर कम ही जा पाते हैं। यही वजह है कि लोग अपनी परम्परा व संस्कृति को भूलते जा रहे हैं और कहते हैं इसलिए आपसी संबंध भी दम तोड रहे हैं। शांति और ज्ञान की तलाश
मन की शांति पाने के लिए बाहर के वातावरण का शांत होना बहुत जरूरी है और मंदिर इनसान को एक ऐसा ही वातावरण देता है। दरअसल, घर, दफ्तर-बाजार आदि के शोरगुल से दूर मंदिर हमें चिंतन-मनन करने के लिए पर्याप्त अवसर देता है। मंदिर की बनावट, वास्तु और वहां की शांति मनुष्य को बाहरी ही नहीं, बल्कि आंतरिक शांति भी देती है।
मंदिर सदा से ही ज्ञान के स्रोत रहे हैं। वैसे, आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत से संबंधित ज्ञान के लिए विद्वान और पुस्तक का सहारा लेना जरूरी होता है। हालांकि आज टीवी और रेडियो भी हैं, लेकिन पहले प्रवचन आदि सुनने के लिए मंदिर ही एक मात्र जरिया होता था। मंदिर के पंडित या साधु-संत ही शास्त्रों, वेदों, पुराणों आदि की गूढ बातों को समझा सकते थे। यही नहीं, प्रार्थना के लाभ, देवी-देवता की स्तुति, धार्मिक ग्रंथों आदि की जानकारी और ज्ञान मनुष्यों को मंदिरों में जाकर ही मिलता था। संस्कृति एवं सभ्यता
मंदिर किसी देश के धर्म, देवी-देवता आदि को ही नहीं, बल्कि उस देश के संस्कार, कला, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता को भी दर्शाते हैं, ताकि उस मंदिर से जुडने वाले देशी-विदेशी श्रद्धालु, उस देश के महत्व और सौंदर्य को भी समझ सकें। मंदिर की दीवार पर चित्रित तस्वीरें या स्थापित मूर्तियां उस काल की सभ्यता और कला को दर्शाते हैं। वैसे, किसी देश या प्रदेश की संस्कृति को जन्म देने में मंदिरों का भी काफी सहयोग होता है।
वास्तव में, मंदिरों के कारण भी भारत विविधताओं का देश कहा जाता है। विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जो अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के कारण अतुलनीय है। यहां के तीज-त्योहार, कला, ज्ञान, नीति, वास्तु-ज्योतिष आदि अपने आप में अद्भुत और अनूठे हैं। प्राचीन काल में बने मंदिर भारत की संस्कृति और सभ्यता को प्रदर्शित करते हैं, जिसे देखने, जानने और शोध करने के लिए विदेशियों का आवागमन लगा ही रहता है।
श्रद्धा और विश्वास के प्रतीक मंदिर पर्यटकों के लिए आकर्षणकाकेंद्र भी होते हैं, जिससे न केवल भारत की कला का पूरे विश्व में प्रचार-प्रसार होता है, बल्कि इनके दर्शन से जुडे सभी माध्यमों से सरकार भी लाभान्वित होते हैं।
कहते हैं ईश्वर की उपस्थिति चारों दिशाओं यहां तक कि प्रकृति के कण-कण में है। मनोविज्ञान के अनुसार, जब तक उसे कोई वस्तु दिखती नहीं है, तब तक वह उस पर विश्वास नहीं कर पाता है। इसलिए मूर्तियां बनाई गई और उसे एक निश्चित स्थान पर स्थापित किया गया। वैसे, जिस तरह इनसान घरों में रहते हैं, ठीक उसी तरह उन्होंने ईश्वर को मूर्ति के रूप में मंदिरों में स्थापित किया। जहां श्रद्धालुगण ईश्वर से मिलने और पूजा-अर्चना के लिए जाते हैं। सच तो यह है कि हर मंदिर के बनने के पीछे अपनी एक अलग कहानी होती है। दरअसल, मंदिर का निर्माण उन्हीं स्थानों पर किया गया, जहां उस मंदिर से संबंधित देवी-देवता का कुछ नाता रहा है, जैसे, कोई स्थान किसी देवी-देवता की जन्मस्थली मानी गई, तो किसी स्थान पर ईश्वर के पद-चिह्नों की बात बताई गई। इसलिए लोगों का उस स्थान के प्रति अगाध प्रेम होता है। उसी प्रेम एवं आस्था को प्रदर्शित करने के लिए लोगों ने उस स्थान पर भजन-कीर्तन और पूजा-अर्चना शुरू कर दी। और धीरे-धीरे उस स्थान के ईट और पत्थरों ने मंदिर की शक्ल ले ली।
मूर्तियों की उपासना बिना मूर्ति के मंदिरों की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, क्योंकि इन्हीं मूर्तियों के सामने लोग अपनी मुरादें मांगते हैं, अपनी झोली फैलाते हैं, फल-फूल चढाते हैं और भक्ति भाव से पूजा-पाठ करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या मूर्तियां किसी का दुखडा सुनती हैं? क्या इन मूर्तियों के आगे नमन करने से मन को शांति मिलती है?
श्रद्धा की नजर से देखने वाले कहते हैं कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु सूरत देखी तन वैसी, या मानो तो शंकर, अन्यथा कंकर। इनके पीछे सच्चाई जो भी हो, लेकिन मंदिर में ईश्वर की मूर्तियां इनसान को झुकना सिखाती हैं और उनमें सेवा-भाव का संचरण भी करती हैं। बेहतर स्वास्थ्य
जहां मूर्तियां होती हैं, वहां पूजा-पाठ, आरती, भजन-कीर्तन, मंत्रोच्चारण, परिक्रमा आदि आवश्यक है। वैसे, जो लोग रोज मंदिर जाते हैं, उनके जीवन में एक तरह की नियमितता,संतुलन और समयनिष्ठताआती है, जिससे उनके व्यक्तित्व में निखार भी आता है।
सच तो यह है कि मंदिर जाने से मनुष्य का सबसे बडा शत्रु आलस्य दूर भाग जाता है। रोज मंदिर तक पैदल चलने से न केवल शरीर का व्यायाम हो जाता है, बल्कि ताली बजाते-बजाते मंदिरों की परिक्रमा करने, कीर्तनों में ढोलक, मंजीरा, घंटा आदि बजाने से शरीर का रक्त-संचार और रक्त-चाप भी संतुलित रहता है। डॉक्टरों का मानना है कि ऐसा करने से न सिर्फ शरीर निरोग रहता है, बल्कि यह एक्यूप्रेशर का काम भी करता है। एक्यूप्रेशर कुछ और नहीं, बल्कि हमारी हथेली और तलवों पर दबाव डालने से रोगों को ठीक करने की चिकित्सा पद्धति का ही एक नाम है। आपसी प्रेम और रीति-रिवाज
प्राचीन काल में हम सभी लोग मिलकर मंदिरों में त्योहार मनाते थे, जिससे प्रेम और आपसी सद्भावना भी बढती थी। हां, ये त्योहार एक-दूसरे से मिलने, जानने और करीब आने का मौका देते थे। मंदिरों में रीति-रिवाज के साथ उत्सव मनाने से लोगों को पूजा व त्योहारों का धार्मिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ भी समझ में आ जाता था।
दरअसल, आज के भौतिक जीवन में अत्यधिक व्यस्तता की वजह से लोग अब मंदिर कम ही जा पाते हैं। यही वजह है कि लोग अपनी परम्परा व संस्कृति को भूलते जा रहे हैं और कहते हैं इसलिए आपसी संबंध भी दम तोड रहे हैं। शांति और ज्ञान की तलाश
मन की शांति पाने के लिए बाहर के वातावरण का शांत होना बहुत जरूरी है और मंदिर इनसान को एक ऐसा ही वातावरण देता है। दरअसल, घर, दफ्तर-बाजार आदि के शोरगुल से दूर मंदिर हमें चिंतन-मनन करने के लिए पर्याप्त अवसर देता है। मंदिर की बनावट, वास्तु और वहां की शांति मनुष्य को बाहरी ही नहीं, बल्कि आंतरिक शांति भी देती है।
मंदिर सदा से ही ज्ञान के स्रोत रहे हैं। वैसे, आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत से संबंधित ज्ञान के लिए विद्वान और पुस्तक का सहारा लेना जरूरी होता है। हालांकि आज टीवी और रेडियो भी हैं, लेकिन पहले प्रवचन आदि सुनने के लिए मंदिर ही एक मात्र जरिया होता था। मंदिर के पंडित या साधु-संत ही शास्त्रों, वेदों, पुराणों आदि की गूढ बातों को समझा सकते थे। यही नहीं, प्रार्थना के लाभ, देवी-देवता की स्तुति, धार्मिक ग्रंथों आदि की जानकारी और ज्ञान मनुष्यों को मंदिरों में जाकर ही मिलता था। संस्कृति एवं सभ्यता
मंदिर किसी देश के धर्म, देवी-देवता आदि को ही नहीं, बल्कि उस देश के संस्कार, कला, संस्कृति, परंपरा और सभ्यता को भी दर्शाते हैं, ताकि उस मंदिर से जुडने वाले देशी-विदेशी श्रद्धालु, उस देश के महत्व और सौंदर्य को भी समझ सकें। मंदिर की दीवार पर चित्रित तस्वीरें या स्थापित मूर्तियां उस काल की सभ्यता और कला को दर्शाते हैं। वैसे, किसी देश या प्रदेश की संस्कृति को जन्म देने में मंदिरों का भी काफी सहयोग होता है।
वास्तव में, मंदिरों के कारण भी भारत विविधताओं का देश कहा जाता है। विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जो अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के कारण अतुलनीय है। यहां के तीज-त्योहार, कला, ज्ञान, नीति, वास्तु-ज्योतिष आदि अपने आप में अद्भुत और अनूठे हैं। प्राचीन काल में बने मंदिर भारत की संस्कृति और सभ्यता को प्रदर्शित करते हैं, जिसे देखने, जानने और शोध करने के लिए विदेशियों का आवागमन लगा ही रहता है।
श्रद्धा और विश्वास के प्रतीक मंदिर पर्यटकों के लिए आकर्षणकाकेंद्र भी होते हैं, जिससे न केवल भारत की कला का पूरे विश्व में प्रचार-प्रसार होता है, बल्कि इनके दर्शन से जुडे सभी माध्यमों से सरकार भी लाभान्वित होते हैं।
Saturday, December 20, 2008
भारतीय शिक्षा
बहुत से भारतीय छात्र अपनी शान बघारने के लिए अध्ययन के लिए विदेशों में जाने के इच्छुक हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत दुनियाभर के छात्र किफायती, पेशेवर व अंतरराष्ट्रीय दर्जे की भारतीय शिक्षा के लिए यहां के विश्वविद्यालयों में आ रहे है।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद [आईसीसीआर] के सौजन्य से प्रति वर्ष लगभग 70 देशों के 3,500 छात्र अध्ययन के लिए यहां आते है। आईसीसीआर के एक अधिकारी ने बताया कि परिषद की ओर से प्रतिवर्ष ऐसे 2,000 छात्रों को छात्रवृत्तिप्रदान की जाती है।
तंजानिया की एक विशेष शिक्षा स्वयंसेविका जेसिका दयाल ने बताया कि हमारे देश के छात्र यहां इसलिए आते है, क्योंकि यहां की शिक्षा किफायती है। इसके साथ ही भारत बहुत कम समय मे उच्च गुणवत्ता वाली अच्छी शिक्षा प्रदान करता है।
दयाल यहां एक वर्ष के लिए निशक्त बच्चों की मदद करने संबंधी गुर सीखने आई है। तंजानिया के एक और छात्र साम कास्त, जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय में फार्मेसी की पढ़ाई कर रहे है। उनका कहना है कि भारत तकनीक के मामले में लगातार विकास कर रहा है। इस कारण भी हम यहां आना चाहते है।
इंडोनेशिया के डोडी सिरगार दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे है। वह कहते हैं कि भारत में पढ़ाई, इंडोनेशिया के शिक्षा संस्थानो की तुलना में बहुत सस्ती है।
उज्बेकिस्तान के संगीत के छात्र हसन मीर अली, श्रीराम भारतीय कला केंद्र के संगीत व नृत्य महाविद्यालय से भारतीय शास्त्रीय संगीत की पढ़ाई कर रहे है। अली भी भारतीय शिक्षा को किफायती बताते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद [आईसीसीआर] के सौजन्य से प्रति वर्ष लगभग 70 देशों के 3,500 छात्र अध्ययन के लिए यहां आते है। आईसीसीआर के एक अधिकारी ने बताया कि परिषद की ओर से प्रतिवर्ष ऐसे 2,000 छात्रों को छात्रवृत्तिप्रदान की जाती है।
तंजानिया की एक विशेष शिक्षा स्वयंसेविका जेसिका दयाल ने बताया कि हमारे देश के छात्र यहां इसलिए आते है, क्योंकि यहां की शिक्षा किफायती है। इसके साथ ही भारत बहुत कम समय मे उच्च गुणवत्ता वाली अच्छी शिक्षा प्रदान करता है।
दयाल यहां एक वर्ष के लिए निशक्त बच्चों की मदद करने संबंधी गुर सीखने आई है। तंजानिया के एक और छात्र साम कास्त, जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय में फार्मेसी की पढ़ाई कर रहे है। उनका कहना है कि भारत तकनीक के मामले में लगातार विकास कर रहा है। इस कारण भी हम यहां आना चाहते है।
इंडोनेशिया के डोडी सिरगार दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे है। वह कहते हैं कि भारत में पढ़ाई, इंडोनेशिया के शिक्षा संस्थानो की तुलना में बहुत सस्ती है।
उज्बेकिस्तान के संगीत के छात्र हसन मीर अली, श्रीराम भारतीय कला केंद्र के संगीत व नृत्य महाविद्यालय से भारतीय शास्त्रीय संगीत की पढ़ाई कर रहे है। अली भी भारतीय शिक्षा को किफायती बताते हैं।
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