Tuesday, May 11, 2010

मंगलमय विधान

जो चाहते हैं सो होता नहीं, जो होता है सो भाता नहीं और जो भाता है सो रहता नहीं-यही व्यक्ति की विवशता है। वास्तव में जो व्यक्ति का किया हुआ नहीं है, विधान से स्वत:हो रहा है, वह किसी के लिए अहितकर नहीं है। विधान से स्वत:क्या हो रहा है?-प्रत्येक उत्पत्तिका विनाश हो रहा है, प्रत्येक संयोग वियोग में बदल रहा है, और प्रत्येक जन्म मृत्यु में बदल रहा है। सृष्टि में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। इस परिवर्तन का कर्ता कोई व्यक्ति नहीं है,अपितु सब कुछ किसी विधान से स्वत:हो रहा है। सृष्टि में अनवरत गति है, स्थायित्व नहीं है। इस वैधानिक तथ्य के प्रति सजग होते ही सृष्टि [प्रतीति] से अतीत के जीवन की खोज तथा सतत् परिवर्तनशील दृश्यों की लुभावनी कलाकृति के कुशल कलाकार में आस्था आरंभ हो जाती है। अव्यक्तिजब व्यक्त हुआ है तो इस व्यक्त का नयापन बना रहे, इसकी अविच्छन्नताबनी रहे, इसके लिए परिवर्तन अनिवार्य है। इस दृष्टि से जो भी हो रहा है, वह स्वाभाविक लगने लगता है। किंतु प्रमादवश जब व्यक्ति जगत के सीमित सौंदर्य में फंसकर उसका सुख भोगने लगता है,जब उसे विवश होकर दु:ख भोगना पडता है, तब वह जीवन के मंगलकारी विधान को अमंगलकारीकहने लगता है। इसी भूल के कारण वह दु:खी होता है। जिस विधान से मानव को विवेक का प्रकाश मिला है, उसी विधान से मानव को प्राप्त विवेक का आदर या अनादर करने की स्वाधीनता भी मिली है। जब व्यक्ति मिली स्वाधीनता का दुरुपयोग करना बंद कर देता है, त्यों ही उसका विकास आरंभ हो जाता है, यही विधान है। मानव को यदि विधान से स्वाधीनता न मिली होती, तो उसे भासही नहीं होता और उसकी अपनी रचना का उद्देश्य अपूर्ण रह जाता। रचयिता ने मानव को क्रियाशक्ति,विचारशक्ति और भावशक्तिइसीलिए दी है कि वह जगत की सेवा, सत्य की खोज कर सके। सृष्टि के सौंदर्य की अनुभूति और सृष्टिकर्ता के माधुर्य के सौंदर्य के रस की अनभूतिकरने में मानव ही समर्थ है। मानव के जीवन में साम‌र्थ्य के सदुपयोग से जो विकास होता है वही विकास असमर्थता की पीडा से भी होता है। विधान में समर्थ और असमर्थ दोनों का हित समान रूप से निहित है।