Friday, December 31, 2010

46 साल से गूंज रही रामधुन

जामनगर। यहां पर एक ऐसा मंदिर है जहां पिछले 46 साल से रामधुन लगातार गूंज रही है। इस कारण मंदिर का नाम गिनीज बुक में भी दर्ज हो चुका है।

इस बाल हनुमान मंदिर में प्रतिदिन अलग-अलग पालियों में भगवान राम की प्रार्थना की जाती है। इसके लिए एक दिन पहले लोगों के नाम तय किए जाते हैं और इसे मंदिर के नोटिस बोर्ड पर लगाया जाता है। इसे देखकर लोग प्रार्थना केलिए अपने समय का ध्यान रखते हैं।

मंदिर के ट्रस्टी जैसुखभाई गुसानी के अनुसार मंदिर का निर्माण 1961 में प्रेम भीकुजी महाराज द्वारा कराया गया था। तीन वर्ष बाद उन्होंने यहां अपने अनुयायियों के साथ रामधुन की शुरुआत की थी। उसके बाद से लगातार यहां श्रीराम जय राम जय जय राम की धुन जारी है।

राम धुन गाने वाले सभी श्रद्धालु होते हैं। इसमें महिलाएं और बच्चे भी भाग लेते हैं। गिनीज बुक की ओर से मंदिर को 1984 और 1988 में प्रमाणपत्र दिया जा चुका है। गुसानी के अनुसार मंदिर में प्रार्थना में कोई रुकावट न आए, इसके लिए ट्रस्ट ने दिन और रात के लिए रामधुन गाने वाले चार गायकों की व्यवस्था की है। यहां 2001 में आए विनाशकारी भूकंप के दौरान भी प्रार्थना बंद नहीं हुई थी।

Saturday, December 18, 2010

रूप, जय, तेज व यश देती है एकादशी

राजधानी में देवोत्थान एकादशी का पर्व धूमधाम से मनाया गया। इस मौके पर लक्ष्मी-नारायण के साथ भगवान शालिग्राम व तुलसी मैया की पूजा-अर्चना हुई। श्रद्धालुओं ने शालिग्राम व तुलसी को पवित्र गंगाजल से स्नान कराकर मनोकामना सिद्धि की प्रार्थना की।
समस्त एकादशियों में निर्जला एकादशी व देवोत्थान एकादशी का विशेष महत्व है। मनुष्य यदि निर्मल एवं पवित्र भाव से इन एकादशियों में पूजा-अर्चना करे तो संसार में रूप, जय, तेज व यश की प्राप्ति होती है। उसके समस्त विकार तत्काल दूर हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि शालिग्राम प्रभु व तुलसी मईया का बहुत ही भावनात्मक एवं निर्मल रिश्ता है। पर्यावरण की दृष्टि से भी तुलसी के पौधे के हमारे जीवन में विशेष महत्व है। जिस घर में तुलसी का पौधा होता है, वह वातावरण हमेशा स्वच्छ रहता है। तुलसी के पौधे में समस्त देवी-देवताओं का निवास भी है।

Saturday, November 6, 2010

जीवन सरल बनाएं

आधुनिक जीवन अत्यधिक असंतोषजनक बनता जा रहा है। यह हमें प्रसन्नता नहीं प्रदान करता। इसमें बहुत सी जटिलताएं हैं, बहुत सी इच्छाएं हैं। हम अत्यधिक आवश्यकताओं से स्वयं को मुक्त करें और ईश्वर के साथ अधिक समय व्यतीत करें। अपने जीवन को सरल बनाएं। अपने अंतर में, अपनी आत्मा से प्रसन्न रहें। हम अपने बचे हुए समय को ध्यान में लगाएं, जो ईश-संपर्क प्रदान करता है तथा शांति एवं प्रसन्नता रूपी जीवन की वास्तविकताओंकी प्राप्ति में सच्ची प्रगति प्रदान करता है।

अपना जीवन सरल बनाएं और उतने में ही आनन्द लें जो हमें ईश्वर ने दिया है। अपना खाली समय स्वाध्याय में लगाएं। ईश्वर की मौन वाणी समस्त प्राणी-जगत का आधार है,धर्म-ग्रन्थों के माध्यम से और हमारे अंत:करण के माध्यम से सदा हमें पुकारती रहती है। चिरस्थायी आनंद प्राप्ति के लिए भौतिक धन-संपदा पर विश्वास करना उचित नहीं है। सरल जीवन के द्वारा हमें सर्वसंतुष्टिदायकप्रसन्नता प्राप्त होती है। सादगी का अर्थ है इच्छाओं और आसक्तियोंसे मुक्त रहना और आंतरिक रूप से परमानन्द में मग्न रहना। सरलता से जीवनयापन करने के लिए हमें प्रबल मन और अदम्य इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम अभाव में रहें, बल्कि हम उसी के लिए प्रयास करें और उसी में संतोष करें जिस चीज की हमें वास्तव में आवश्यकता है। जब हमारी अंतरात्मा मानसिक रूप से सांसारिक वस्तुओं का परित्याग कर देती है, तो हमें स्थायी रूप से संतुष्टि करने वाले आनंद की प्राप्ति होने लगती है। जब हम ईश्वर की इच्छा के अनुसार अपने कर्मो का चयन करते हैं, तो जीवन सरल हो जाता है। यदि हम अपना मन निर्मल रखें, तो हम सदा ईश्वर को अपने साथ पाएंगे। हम अपने प्रत्येक विचार में उनकी झलक देखेंगे। एक निर्मल हृदय निर्मल विचारों का परिणाम होता है। हम स्वयं एक छोटे बच्चे के समान सरल बनकर,आसक्ति रहित,सच्चा एवं भोला बनकर ब्रह्म चैतन्य प्राप्त करने की चेष्टा करके उस दिव्य अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। भक्त अंत: प्रज्ञा से परिपूर्ण हो जाता है जो शिशु समान निष्कपट होता है, संशय रहित होता है, सत्यनिष्ठा से पूर्ण होता है तथा विनम्र एवं ग्रहणशील होता है। ऐसा भक्त ईश्वर को प्राप्त करता है।

Friday, October 22, 2010

दस श्रेष्ठ मुहूर्तो में मिलेगा खरीददारी का मौका

दीपावली के अवसर पर आगामी पंद्रह दिनों में दस मुहूर्तो में लोगों को खरीददारी का विशेष मौका मिलेगा। इसमें 30अक्टूबर को पुष्यनक्षत्र और 3नवंबर को धनतेरस के दो योग तो खरीददारी के लिहाज से महायोगहोंगे। धनतेरस पर बन रहा महायोगअगली बार 14साल बाद बनेगा।

खरीददारी के इन श्रेष्ठ मुहूर्तो की शुरुआत 22अक्टूबर शुक्रवार से होगी। जब लोग शरद पूर्णिमा में खरीददारी करेंगे। यह मुहूर्त शाम चार बजे के बाद शुरू होगा। इसके अलावा 24,25,28,29,30अक्टूबर, 2,3,4और 5नवंबर को भी कई ऐसे योग है, जो शास्त्रों में नया आइटम घर लाने के लिए श्रेष्ठ माने गए है। एक साथ आ रहे इन मुहूर्तो को लेकर उत्साही व्यापारी कहते हैं कि नवरात्रि से प्रारंभ हुआ खरीददारी का दौर इन मुहूर्तो में चरम पर रहेगा। अनुमान है कि वाहन, ज्वैलरी,प्रापर्टी, इलेक्ट्रानिक आइटम, गारमेंट्स, फर्नीचर, मोबाइल, सजावटी आइटम आदि की जमकर बिक्री होगी।

धनतेरस का दिन खरीददारी का महायोगमाना जाता है। बुधवार गणेश जी का वार है। इस दिन लोग खरीददारी को विशेष महत्व देते है। इस बार यह दोनों ही दिन एक साथ आ रहे हैं। जो खरीददारी में चार चांद लगा देंगे। ऐसा अवसर इसके बाद 30अक्टूबर 2024को बनेगा। यानी लोगों को फिर ऐसे शुभ दिन के लिए 14साल का लंबा इंतजार करना पडेगा। श्री शर्मा ने बताया कि शरद पूर्णिमा 22अक्टूबर से खरीददारी के मुहूर्तो की शुरुआत हो जाएगी। इसके बाद धनतेरस तक कई मुहूर्त ऐसे हैं, जिनमें लोग खरीददारी कर सकते हैं।


खरीददारी के शुभ मुहूर्त

22अक्टूबर शरद पूर्णिमा

24अक्टूबर रविवार, भडनीनक्षत्र

25अक्टूबर सर्वार्थसिद्धि योग

28 अक्टूबर सर्वार्थसिद्ध योग, रवि योग

29अक्टूबर सर्वार्थसिद्धि योग

30अक्टूबर पुष्यनक्षत्र

2नवंबर सर्वार्थसिद्ध योग

3नवंबर धनतेरस, सर्वार्थसिद्धि योग, बुधवार

4नवंबर नरक चतुदर्शी,हनुमान जयंती

5नवंबर दीपावली

6नवंबर गोवर्धनपूजा, सर्वार्थसिद्धि योग


दीपावली से पहले पुष्यनक्षत्र

दीपावली से पहले आने वाले पुष्यनक्षत्रों को शास्त्रों में विशेष महत्व दिया गया है। इस बार 5नवंबर को दीपावली से पहले 30अक्टूबर को पुष्यनक्षत्र का शुभ योग है। पुष्यनक्षत्र सभी नक्षत्रों का राजा होता है। यह दिन खरीददारी के लिए उत्तम है। व्यापारी भी इस दिन ही अपने बहीखातों और कलम की खरीददारी को शुभ मानते है।


पांच को ही मनेगी दीपावली

दीपावली की तिथि में उलटफेर को लेकर पंडितों ने एकमत से कहा है कि पांच नवंबर को दीपावली मनाई जाएगी। उद्यातिथि को लेकर कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए। उनका कहना है कि तीन नवंबर को द्वादशी तिथि दोपहर 3.59बजे समाप्त होगी। इसके बाद धनत्रयोदशीव प्रदोषकालउसी दिन माना जाएगा। अगले दिन चार नवंबर को शाम 4.11बजे के बाद रूप चौदस की तिथि शुरू हो जाएगी। पांच नवंबर को दोपहर 1.04बजे तक चतुदर्शीकी तिथि के बाद दीपोत्सव का पर्व शुरू होगा। छह नवंबर को अन्नकूटमहोत्सव मनाया जाएगा।

Sunday, October 10, 2010

जीवन में पूर्णता ला रहा 10-10-10

10-10-10,यानिशक्ति, धर्म, ऊर्जा, ज्ञान, सत्ता बल और यशस्वी गुरुपदसे युक्त गुणों को पुष्ट करने का योग। शनि ग्रह से युक्त सदी के अंतराल में बनने वाले इस योग का पूर्णाक 5है। 10का स्वामी शनि है तो 5का सूर्य। इसीलिए दोनों के गुण व लक्ष्य भी बिल्कुल भिन्न हैं। पिता-पुत्र होने के बावजूद दोनों व्यावहारिक व वैचारिक रूप में एक नहीं हो सकते। लेकिन, 10अक्टूबर को रविवार पडने से यह योग सूर्य को पूर्णरूप से प्रभावी बना रहा है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार प्रत्येक ग्रह के प्रभावी होने से पूर्व उसके लक्षण दिखने लगते हैं और ऐसा ही प्रत्यक्ष भी है।

अंकशास्त्र के अनुसार 10का अंक पूर्णता का प्रतीक एवं जीवन का आधार रूप है। यह संयम और इंद्रियों का निग्रह कर चेतना जाग्रत करने का अवसर प्रदान करता है। 10-10-10का मूलांक5और स्वामी बृहस्पति है, जो मनुष्य को आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करने की शक्ति देता है। 5के अंक को परमात्मा का उदर कहा गया है, जिसमें पृथ्वी गर्भस्थ है। कहते हैं कि विद्या, वित्त, आयु, विनय व निधन, ये पांच चीजें गर्भ में ही निहित हो जाती हैं। इसलिए पंचतत्वों से विद्यमान परमात्मा का स्वरूप हिरण्यगर्भ है और हम सभी पृथ्वी, जल, तेज, वायु व आकाश के रूप में हिरण्यगर्भ रूप परमात्मा के अंदर समाहित हैं।

आचार्य डा.संतोष खंडूडीकहते हैं कि पंचतनमात्राएं तत्व, स्पर्श, रूप, रस व गंध के रूप में प्रत्येक में विद्यमान हैं, जो ईश्वर को अपने भीतर धारण करने का मौका देती हैं। तभी मनुष्य ईश्वर की शक्तियों को प्राप्त कर सकता है, जो कि जाति, धर्म व परंपरा से अलग है। डा.खंडूडी के अनुसार 5का अंक इतना प्रभावशाली है कि प्राकृतिक प्रकोप, आतंरिककलह, किसी राज्य में सत्ता परिवर्तन, दुर्घटनाएं व जनसाधारण में भय का वातावरण कायम कर सकता है। इसलिए हमें संयम व इंद्रियों को निग्रह में रखकर इन सब स्थितियों से बचना होगा। जीवन में पूर्णता लाने का यही एकमात्र विकल्प है।

पांच देव और पांच ही प्राण सृष्टि पंचभूत है और जीवन भी। पृथ्वी, जल, वायु, तेज व आकाश से इसकी उत्पत्ति होती है। देव भी पांच हैं, इसलिए उन्हें पंचदेव कहा गया है। पंचांग की रचना भी पांच तत्वों तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण से हुई है। प्राण भी पांच हैं और ज्ञानेंद्रियांभी। पंचांगुलीसाधना, पंच प्रयाग, पंच बदरी,पंच केदार, पंचगव्य, पंचामृत, पंचमेवा,पंच फल, पंच परमेश्वर, पंचक, पंचवर्णीबल सभी पांच के अंक से प्रभावित हैं। &द्यह्ल;क्चक्त्र&द्दह्ल;

यह हैं प्रभावी कारक

सिंह राशि, बृहस्पति ग्रह, मृगशिरानक्षत्र, अग्नि तत्व, शोभन योग और मां दुर्गा का पांचवां अवतार रोहिणी जीवन को विशेष रूप से प्रभावित करेंगे

गागर में सागर है नवरात्र

हमारा देश में आध्यात्मिक ऊर्जा कण-कण में समाविष्ट है। यही कारण है कि जहां रोम, ग्रीक, मिस्नऔर वेवीलोनआदि जैसी प्राचीन सभ्यताएं और संस्कृतियां काल के प्रवाह में विलुप्त होती चली गई, वहीं भारत की संस्कृति अक्षुण्ण रही।

जगजननीमाता पार्वती तो तपोव्रत और एकनिष्ठव्रतकी मूर्तिमान विग्रह ही है। उनके तपोव्रत का मानस में बडा ही सुंदर वर्णन है-रिषिन्ह गौरी देखी तह कैसी। मूरतिमंततपस्या जैसी।। बोले मुनि सुनुसैल कुमारी। करहु कवन कारण तपुभारी।। मां जगजननीके नवरात्रवर्ष में दो बार आते हैं। यह नवरात्रऋद्धि-सिद्धि लाते हैं। मन शुद्ध हो, विधिवत पूजन हो तो मां भगवती की कृपा अवश्य होती है और मां हर मनोकामना पूर्ण करती है। वेद-पुराण उपनिषद, रामायण, महाभारत, भागवत गीता की तुलना में अगर नवरात्रको सामने रखा जाए तो नवरात्रमें दुर्गा पूजन के समक्ष कोई ग्रंथ शक्ति नहीं जो आपकी मनोकामना पूर्ण करती हो। भारतीय संस्कृति में शक्ति का स्वरूप दिव्य एवं व्यापक है। शैलपुत्री,ब्रंाचारिणी,चंद्रघंटा,कूष्मांडा,स्कंदमाता,कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरीएवं सिद्धदात्रीनामों से प्रसिद्ध नौ देवियों का केंद्र बिंदु मां जगजननीही है। दुर्गा की मूर्ति में हर काल में कुछ बदलाव आया है। कुषाणकाल में न तो दुर्गा की रूप ऐसा था, न ही उस समय उन्हें देवी के रूप में माना जाता था। उस समय इस पत्थर की मूर्ति के दो या चार हाथ होते थे और वाहन शेर भी न था। पांचवीं शताब्दी में दुर्गा की मूर्ति के चार हाथ थे और उसे भैंस से लडते दिखाया गया है। उसके हाथ में तलवार, भाला और ढाल थे। छठी से 12वींशताब्दी तक देवी के रूप का पूरा विकास हुआ। इस समय देवी के वाहन के रूप में सिंह प्रकट हुआ। भाले का स्थान त्रिशूल ने ले लिया। हाथों की संख्या भी 8-10-12से लेकर कुछ जगह 16तक पहुंची। जैसे-जैसे देवी की मूर्ति विकसित होती गई उनका प्रभाव भी बढता गया। मध्ययुग में देवी पूजा की लहर तेजी से फैली। इस लहर का इतना हल्ला हो गया। मां दुर्गा का मायके आना हो गया। इस नवरात्रमें मां अपने ससुराल शिव लोक से धरती लोक में मायके आती है। साधकों को मनचाहा फल देती हैं। प्रतिपदा से नवरात्रप्रारंभ होता है। अमावस्या युक्त प्रतिपदा ठीक नहीं मानी जाती। नौ रात्रि तक व्रत करने से यह नवरात्रपूर्ण होता है। तिथि ह्रास-वृद्धि से इसमें न्यूनाधिकतानहीं होती। प्रारंभ करते समय यदि चित्राऔर वैधृतियोग हो तो उनकी संपतिके बाद व्रत प्रारंभ करना चाहिए। परंतु देवी का आवाह्न,स्थापना और विसर्जन ये तीनों प्रात:काल में होने चाहिए। अतचित्रा,वैधृतिअधिक समय तक हो तो उसी दिन अभिजित्तमुहूर्त में आरंभ करना चाहिए। नवरात्रगागर में सागर की भांति बहुत व्यापक भावों को अपने में संजोये हुए है। नवरात्रपुण्यार्जक,पापनाशक दैहिक और आमुन्मिकउन्नति में सहायक, स्वास्थ्यवर्धकविभिन्न प्रकार के सकाम-निष्काम भावों का फल प्रदान करती है। अंत में देवनको धन-धाम सम, दैत्यनलियोछिनाय।दे काढिसुरधाम ते,वसेशिवपुरी जाय।

Saturday, June 5, 2010

भोजन से आध्यात्मक

मनुष्य अपनी इंद्रियों के माध्यम से संसार के नाना प्रकार के आकर्षणों से युक्त रूप, रस, शब्द, गंध व स्पर्श द्वारा विषयों का आस्वादन लेते हुए स्वास्थ्य, सुख और शांति की मृगमरीचिका में आजीवन विचरण करता रहता है। उसे स्वास्थ्य, सुख और शांति के बदले बार-बार शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक बेचैनी, चिंता व तनाव से जूझते रहना पडता है। चंचल मन, जिसे नियंत्रित करना वायु को नियंत्रित करने के समान दुष्कर है, वह इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता। बुद्धि, इंद्रियों के विषयोन्मुखहोने के दुष्परिणाम जानते हुए भी न तो मन को रोक पाती है न इंद्रियों को।

सामान्य मनुष्य न तो सक्षम गुरुओं के संपर्क में होता है, न शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा ही ज्ञानयोग, भक्तियोग,कर्मयोग, राजयोग, हठयोग को जीवन में अपना पाता है। ऐसी स्थिति में वह क्या करे? ऐसी स्थिति में सबसे पहले अपने भोजन पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि भोजन का सीधा प्रभाव मन और विचारों पर पडता है। कहते हैं जैसा खाओ अन्न, वैसा बनेगा मन। गीता में तीन प्रकार का भोजन बतलाया गया है- सात्विक, राजसी और तामसी। इनके अनुसार ही मन की प्रवृत्तियां और विचार बनते हैं। इन्हीं के अनुरूप हम वाणी से बोलते हैं और उन्हीं से प्रेरित होकर आचरण करते हैं। हम जैसा आचरण करते हैं उसका तद्नुरूपपरिणाम भी सुख, दु:ख, स्वास्थ्य अथवा बीमारी और कष्ट के रूप में प्राप्त करते हैं। तामसी भोजन करने वाला निश्चित रूप से आलसी, प्रमादी और अकर्मण्य होगा। राजसी भोजन करने वाले व्यक्ति में विलासी, क्रोधी, झगडालू प्रवृत्ति वाला होने, स्वादिष्ट होने की वजह से अधिक भोजन खाने की आदत वाला होने के कारण बार-बार अस्वस्थ होने की संभावना होती है। इसी प्रकार सात्विक भोजन के प्रभाव से मनुष्य श्रेष्ठ विचारों, सद्ग्रंथोंऔर सत्पुरुषों की ओर प्रेरित होता है। सदाचार, शांत, स्वभाव, स्वस्थ शरीर, रोगों से मुक्ति सात्विक भोजन के परिणाम होते हैं। उस व्यक्ति की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। उसके पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश में शांति और सामंजस्य होता है। मनुष्य का जीवन धृति, क्षमा, दमो, अस्तेयम्धर्म के दस लक्षणों को धारण करने योग्य बनकर शांति और आनंद प्राप्त करने की क्षमता से संपन्न हो सकेगा।

Tuesday, May 11, 2010

मंगलमय विधान

जो चाहते हैं सो होता नहीं, जो होता है सो भाता नहीं और जो भाता है सो रहता नहीं-यही व्यक्ति की विवशता है। वास्तव में जो व्यक्ति का किया हुआ नहीं है, विधान से स्वत:हो रहा है, वह किसी के लिए अहितकर नहीं है। विधान से स्वत:क्या हो रहा है?-प्रत्येक उत्पत्तिका विनाश हो रहा है, प्रत्येक संयोग वियोग में बदल रहा है, और प्रत्येक जन्म मृत्यु में बदल रहा है। सृष्टि में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। इस परिवर्तन का कर्ता कोई व्यक्ति नहीं है,अपितु सब कुछ किसी विधान से स्वत:हो रहा है। सृष्टि में अनवरत गति है, स्थायित्व नहीं है। इस वैधानिक तथ्य के प्रति सजग होते ही सृष्टि [प्रतीति] से अतीत के जीवन की खोज तथा सतत् परिवर्तनशील दृश्यों की लुभावनी कलाकृति के कुशल कलाकार में आस्था आरंभ हो जाती है। अव्यक्तिजब व्यक्त हुआ है तो इस व्यक्त का नयापन बना रहे, इसकी अविच्छन्नताबनी रहे, इसके लिए परिवर्तन अनिवार्य है। इस दृष्टि से जो भी हो रहा है, वह स्वाभाविक लगने लगता है। किंतु प्रमादवश जब व्यक्ति जगत के सीमित सौंदर्य में फंसकर उसका सुख भोगने लगता है,जब उसे विवश होकर दु:ख भोगना पडता है, तब वह जीवन के मंगलकारी विधान को अमंगलकारीकहने लगता है। इसी भूल के कारण वह दु:खी होता है। जिस विधान से मानव को विवेक का प्रकाश मिला है, उसी विधान से मानव को प्राप्त विवेक का आदर या अनादर करने की स्वाधीनता भी मिली है। जब व्यक्ति मिली स्वाधीनता का दुरुपयोग करना बंद कर देता है, त्यों ही उसका विकास आरंभ हो जाता है, यही विधान है। मानव को यदि विधान से स्वाधीनता न मिली होती, तो उसे भासही नहीं होता और उसकी अपनी रचना का उद्देश्य अपूर्ण रह जाता। रचयिता ने मानव को क्रियाशक्ति,विचारशक्ति और भावशक्तिइसीलिए दी है कि वह जगत की सेवा, सत्य की खोज कर सके। सृष्टि के सौंदर्य की अनुभूति और सृष्टिकर्ता के माधुर्य के सौंदर्य के रस की अनभूतिकरने में मानव ही समर्थ है। मानव के जीवन में साम‌र्थ्य के सदुपयोग से जो विकास होता है वही विकास असमर्थता की पीडा से भी होता है। विधान में समर्थ और असमर्थ दोनों का हित समान रूप से निहित है।

Saturday, April 17, 2010

अभिमान का त्याग करने से ही मिलता है सच्चा सुख

सुख-दुख जीवन के दो पहलू है। सुख के अंदर दुख भी निहित होता है। मगर इंसान केवल सुख चाहता है और दुख से दूर भागता है, जबकि जीवन की सचाई यह है कि हर सुख के पीछे दुख और दुख के पीछे सुख छिपा होता है। परमात्मा की प्राप्ति जीवन का लक्ष्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य को पुरुषार्थ के मार्ग पर चलना होगा। पुरुषार्थ करते हुए सत्य को जीवन में धारण करना होगा। अंतरमुखीहोने से ही मनुष्य उस परम शांति को प्राप्त कर सकता है, जब तक राग द्वेष आदि बुराइयां मनुष्य के साथ लगी हुई है। तब तक घर में रहकर भी कारागार जैसा अनुभव होता है। श्रद्धा समस्त ज्ञान का मूल सूत्र है। श्रद्धा होने पर दुर्गम ज्ञान भी सुगम हो जाता है। हमें यह जन्म आत्मा के कल्याण के लिए मिला है और आत्म कल्याण की चाह ही श्रद्धा उत्पन्न करती है।

मनुष्य शरीर पाकर भी यदि परमात्मा की प्राप्ति नही हुई तो मानो यह जन्म व्यर्थ ही गया, जो मनुष्य आत्म कल्याण कार्यो को छोडकर संसार के फंदे में फंस रहा है उससे बडा अज्ञानी कौन हो सकता है। लिहाजा जिस काम के लिए आए है उसे अवश्य पूरा कर लेना चाहिए। गीता में भगवान ने कहा है कि अज्ञानी लोग मेरे परम भाव को नही जानते, जिस कारण जन्म मरण को प्राप्त हो जाते है तथा मै अव्यक्त होते हुए भी अपने भक्तों को अनुग्रह करने के लिए व्यक्त हो जाता हूं।

सदाचारी स्वयं अपने आप में खो जाता है। मन की ऊर्जा को काम में नही राम में लगाना, भोग में नही योग में लगाना, वासना को समाधि में लगाना तो मन भी स्वस्थ रहेगा व शरीर में स्वस्थ मन बना रहेगा। इसलिए गुरु भक्तों का फरमान है कि सदाचारी हमेशा ऊपर बैठता है। इसलिए मानव को हमेशा सदाचार का पालन करना चाहिए।

भक्त भगवान का प्रिय होता है और भक्त का बैरी भगवान का बैरी होता है। इसलिए भक्त को भगवान में अपनी प्रीति रखनी चाहिए। प्रभु को उनका सेवक परमप्रिय है। जो मनुष्य उनके सेवक का अहित करने का विचार अपने मन में भी लाता है ,उसका लोक व परलोक दोनो में ही अहित हो जाता है।

Saturday, March 6, 2010

दून की आत्मा

मैं समय हूं। मैंने वह सबकुछ देखा व महसूस किया है, जो आज अतीत का हिस्सा है। मैंने उस कालखंड को भी देखा है कि जब सिखों के सातवें गुरु श्री गुरु हर राय ने अपने पुत्र बाबा रामराय को त्याग दिया था। खैर..यह सब होनी थी, जो अच्छे के लिए हो रही थी। मुझे याद है वह दिन जब वर्ष 1676 में श्री गुरु राम राय जी के कदम दून घाटी में पडे। मुगल बादशाह औरंगजेब श्री गुरु राम राय से बेहद प्रभावित था। जब उसे पता चला कि गुरु रामराय दूनघाटी में आ गए हैं, उसने गढवाल के तत्कालीन राजा फतेहशाह को उनकी हर संभव सहायता करने को कहा। फतेहशाह ने गुरु जी के दर्शन किए और उनसे यहीं रहने की प्रार्थना की। उसी समय राजा ने उन्हें तीन गांव खुडबुडा, राजपुर व चामासारी दान में दिए। बाद में राजा फतेहशाह के पोते प्रदीप शाह ने चार और गांव धामावाला, मियांवाला, पंडितवाडी व छरतावाला गुरु महाराज को दिए। श्री गुरु रामराय जी के डेरा स्थापित करने पर इसे डेरा दून कहा जाने लगा, जो कालांतर में देहरादून हो गया। आपको बता दूं, श्री गुरु राम राय महाराज की कर्मस्थली इसी देहरादून में वर्ष 1676 में चैत्र पंचमी को झंडा साहिब की गौरवशाली परंपरा का श्रीगणेश हुआ। संयोग से इसी दिन गुरु राम राय का जन्म दिन और इस दिन उन्होंने झंडास्थल पर डेरा डाला था। यह परंपरा आज विशाल वट वृक्ष का आकार ले चुकी है, जिसकी छांव में मानवता स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। झंडे जी का वैभव कायम रहे और उनकी छांव तले इंसानियत फूले-फले इसी पावन उद्देश्य की प्राप्ति के लिए 334 सालों से श्री गुरु राम राय महाराज के दरबार में हर वर्ष झंडा मेला आयोजित होता आ रहा है। भले ही तमाम मेलों में बदलाव आया हो, मगर यह मेला आज भी पुराने स्वरूप में बरकरार है। हजारों संगतें इसमें जुटती हैं, लेकिन वहां कोई भेदभाव नजर नहीं आता। कोई दिखावा नहीं। न कोई बडा न कोई छोटा और न कोई गरीब न कोई अमीर। दरबार साहिब में प्रतिष्ठित झंडे जी सिर्फ आस्था के प्रतीक ही नहीं, बल्कि उदासीन परंपरा के विजय स्तंभ भी है। यह साधारण ध्वजदंड न होकर ऐसा शक्तिपुंज है, जिससे नेमतें बरसती हैं। सैकडों वर्षाें का इतिहास समेटे करीब सौ फुट ऊंचे झंडे जी को उतारने और चढाने की प्रक्रिया स्वयं में अद्भुत है। जमीन पर रखे बगैर झंडे जी कब उतरे और कब चढ गए, किसी को ठीक से आभास भी नहीं हो पाता। यही इस मेले का अद्भुत क्षण है। उत्सव परंपरा का यह ऐसा विलक्षण अनुभव है, जिसकी मिसाल अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। देश के विभिन्न भागों से बडी संख्या में श्रद्धालु इसमें जुटते हैं और मन्नतें मांगते हैं। श्रद्धा और विश्वास का भाव ही है, जो झंडा मेले को नई ऊंचाइयां प्रदान करता है, उतनी की वह भावनाओं में उतरता चला जाता है। चढते हैं तीन किस्म के गिलाफ झंडा साहिब में देहरादून की आत्मा बसती है। वजह यह कि दून का जन्म और विकास बहुत कुछ झंडा साहिब की परंपरा से जुडा है। झंडा मेले में झंडे जी पर गिलाफ चढाने की अनूठी परंपरा है। झंडे जी पर पहले सादे गिलाफ फिर शनील के गिलाफ और बाहर से दर्शनी गिलाफ चढता है। दर्शनी गिलाफ के ही दर्शन होते हैं। इस बार पांच मार्च से यह मेला शुरू होगा।

Saturday, February 20, 2010

जगत मंदिर है द्वारकाधीश

72खंभों पर टिका द्वारकाधीशमंदिर वास्तुकला का एक बेजोड नमूना है। क्या आप भी इस अद्भुत मंदिर का दर्शन करना चाहेंगे?

यदि द्वारकाभ्रमण करते हुए लगभग अस्सी फीट ऊंचा भवन और उसके गुंबद पर लहराती बेहद लंबी पताका आपको दूर से ही दिख जाए, तो समझ लीजिए कि आप द्वारकाधीशमंदिर के करीब पहुंच चुके हैं। यह मंदिर गुजरात के सौराष्ट्र जिले में स्थित है। यह वही द्वारकाहै, जहां श्रीकृष्ण महाभारत काल के दौरान वास करते थे। इसे हिंदुओं के चार पवित्र धामों में से एक माना जाता है। प्रचलित है कि श्रीकृष्ण ने द्वारकाको ही अपनी राजधानी बनाई थी।

[संगम स्थल] जब आप मंदिर के पास पहुंचते हैं, तो आपको नदी और समुद्र का संगम दिखाई देता है। दरअसल, द्वारकाधीशमंदिर गोमती नदी और अरब सागर के संगम स्थल पर स्थित है। यह जगत मंदिर भी कहलाता है, क्योंकि श्रीकृष्ण को संपूर्ण जगत का स्वामी माना गया है। इसका भवन पांच मंजिला है और यह 72खंभों पर टिका है। गुंबद पर लहराती हुई पताका पर सूर्य और चंद्रमा के चित्र अंकित हैं।

[मोक्ष और स्वर्ग द्वार] अमूमन मंदिरों में दुर्ग नहीं होते, मगर यहां यह देखकर आश्चर्य होता है कि इस मंदिर में एक बहुत ऊंचा दुर्ग और दर्शनार्थियोंके लिए एक विशाल भवन भी बना हुआ है। मंदिर में दो प्रवेश द्वार बने हैं। मुख्य द्वार मोक्ष द्वार और दक्षिणी द्वार स्वर्ग द्वार कहलाता है। इस द्वार से कुछ कदम आगे निकलने पर गोमती नदी के तट पर पहुंचा जा सकता है।