Saturday, March 6, 2010
दून की आत्मा
मैं समय हूं। मैंने वह सबकुछ देखा व महसूस किया है, जो आज अतीत का हिस्सा है। मैंने उस कालखंड को भी देखा है कि जब सिखों के सातवें गुरु श्री गुरु हर राय ने अपने पुत्र बाबा रामराय को त्याग दिया था। खैर..यह सब होनी थी, जो अच्छे के लिए हो रही थी। मुझे याद है वह दिन जब वर्ष 1676 में श्री गुरु राम राय जी के कदम दून घाटी में पडे। मुगल बादशाह औरंगजेब श्री गुरु राम राय से बेहद प्रभावित था। जब उसे पता चला कि गुरु रामराय दूनघाटी में आ गए हैं, उसने गढवाल के तत्कालीन राजा फतेहशाह को उनकी हर संभव सहायता करने को कहा। फतेहशाह ने गुरु जी के दर्शन किए और उनसे यहीं रहने की प्रार्थना की। उसी समय राजा ने उन्हें तीन गांव खुडबुडा, राजपुर व चामासारी दान में दिए। बाद में राजा फतेहशाह के पोते प्रदीप शाह ने चार और गांव धामावाला, मियांवाला, पंडितवाडी व छरतावाला गुरु महाराज को दिए। श्री गुरु रामराय जी के डेरा स्थापित करने पर इसे डेरा दून कहा जाने लगा, जो कालांतर में देहरादून हो गया। आपको बता दूं, श्री गुरु राम राय महाराज की कर्मस्थली इसी देहरादून में वर्ष 1676 में चैत्र पंचमी को झंडा साहिब की गौरवशाली परंपरा का श्रीगणेश हुआ। संयोग से इसी दिन गुरु राम राय का जन्म दिन और इस दिन उन्होंने झंडास्थल पर डेरा डाला था। यह परंपरा आज विशाल वट वृक्ष का आकार ले चुकी है, जिसकी छांव में मानवता स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। झंडे जी का वैभव कायम रहे और उनकी छांव तले इंसानियत फूले-फले इसी पावन उद्देश्य की प्राप्ति के लिए 334 सालों से श्री गुरु राम राय महाराज के दरबार में हर वर्ष झंडा मेला आयोजित होता आ रहा है। भले ही तमाम मेलों में बदलाव आया हो, मगर यह मेला आज भी पुराने स्वरूप में बरकरार है। हजारों संगतें इसमें जुटती हैं, लेकिन वहां कोई भेदभाव नजर नहीं आता। कोई दिखावा नहीं। न कोई बडा न कोई छोटा और न कोई गरीब न कोई अमीर। दरबार साहिब में प्रतिष्ठित झंडे जी सिर्फ आस्था के प्रतीक ही नहीं, बल्कि उदासीन परंपरा के विजय स्तंभ भी है। यह साधारण ध्वजदंड न होकर ऐसा शक्तिपुंज है, जिससे नेमतें बरसती हैं। सैकडों वर्षाें का इतिहास समेटे करीब सौ फुट ऊंचे झंडे जी को उतारने और चढाने की प्रक्रिया स्वयं में अद्भुत है। जमीन पर रखे बगैर झंडे जी कब उतरे और कब चढ गए, किसी को ठीक से आभास भी नहीं हो पाता। यही इस मेले का अद्भुत क्षण है। उत्सव परंपरा का यह ऐसा विलक्षण अनुभव है, जिसकी मिसाल अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। देश के विभिन्न भागों से बडी संख्या में श्रद्धालु इसमें जुटते हैं और मन्नतें मांगते हैं। श्रद्धा और विश्वास का भाव ही है, जो झंडा मेले को नई ऊंचाइयां प्रदान करता है, उतनी की वह भावनाओं में उतरता चला जाता है। चढते हैं तीन किस्म के गिलाफ झंडा साहिब में देहरादून की आत्मा बसती है। वजह यह कि दून का जन्म और विकास बहुत कुछ झंडा साहिब की परंपरा से जुडा है। झंडा मेले में झंडे जी पर गिलाफ चढाने की अनूठी परंपरा है। झंडे जी पर पहले सादे गिलाफ फिर शनील के गिलाफ और बाहर से दर्शनी गिलाफ चढता है। दर्शनी गिलाफ के ही दर्शन होते हैं। इस बार पांच मार्च से यह मेला शुरू होगा।
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