संस्कृति और विरासत
बुंदेलखंड के वीर योद्धा आल्हा-ऊदल की कहानी ------
महोबा जिला उत्तर प्रदेश राज्य का एक हिस्सा है और महोबा शहर जिला मुख्यालय है। महोबा जिला चित्रकूट मंडल का एक हिस्सा है। महोबा जिला भी अल्हा-उदल नगरी के रूप में जाना जाता है
11 फरवरी 1 99 5 को पूर्व हमीरपुर जिले से इस जिले को पहले से महोबा तहसील को अलग करके अलग किया गया था। इसे महोत्सव नगर के रूप में भी जाना जाता है, जिसका मतलब त्योहार का शहर है। महोबा चंदेल राजाओं के साथ जुड़ा हुआ है जो 9 वीं से 12 वीं शताब्दी के बीच बुंदेलखंड में शासन करते थे। गांधीजी ने 21 नवंबर 1 9 22 को महोबा शहर का दौरा किया। उस समय महोबा शहर संयुक्त प्रांत के हमीरपुर जिले में था।
महोबा, बुंदेलखंड के जिले में एक शहर है। काजली मेला महोबा का मुख्य मेला है और स्थानों के पास है। काजली मेला महान योद्धाओं आल्हा
और ऊदल के पौराणिक कथाओं के साथ जुड़ा हुआ है। आल्हा और ऊदल बहादुर योद्धा दक्षराज के बेटे थे, जिनका जन्म महोबा से 5 किलोमीटर की दूरी पर है। कहानी के अनुरूप होने वाली घटनाओं के एक मोड़ में, वे अपने घर से विस्थापित हो गए, उनके पिता ने हत्या कर दी और महोबा राज वंश के राजा परमार की सुरक्षा में रखे गये। वे सैनिकों और योद्धाओं के रूप में लाए जाते हैं- यह उचित है कि जो लोग महोबा द्वारा स्वयं को संरक्षित करते हैं, महोबा की रक्षा करना चुनते हैं जैसा कि मैदान पर उनकी ताकत हासिल होती है, उनकी प्रसिद्धि भी बढ़ जाती है; यह जल्द ही इस तथ्य का विषय माना जाता है कि कोई भी महोबा पर हमला करने का सपना देख सकता है, जबकि आल्हा-उदल वहां रहते हैं। और ऐसा इसलिए है जब भाई कन्नौज में रहते हैं कि महोबा को लुप्तप्राय होता है। और पृथ्वीराज चौहान, दिल्ली के शक्तिशाली सम्राट के अलावा अन्य कोई भी नहीं, खुद को झुकाव दिया। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने महोबा के लिए विजय की कोई योजना बनाने की हिम्मत नहीं की थी, जब तक कि उन्हें यह पता नहीं चला कि पौराणिक आल्हा और ऊदलअपने द्वारों की रक्षा के लिए नहीं थे। महोबा को लाभ होता है जो कन्नौज हार जाती है और महान पृथ्वीराज से लड़ने के लिए आल्हा और ऊदल वापस आते है। यह सावन का महीना है, महोबा डूबे हुए है, काजली मेला की तैयारी के साथ घबराहट, और यह शहर और इसके निवासियों के लिए अच्छी तरह से बनता है, जो सभी पृथ्वीराज चौहान पर आल्हा -उदल की जीत को महान धूमधाम के साथ मनाते हैं।
भारत के इतिहास में अनेकों वीरों के शौर्य और साहस की गाथाओं के बारे में बताया गया है। जैसे कि महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई और ना जाने कितने ऐसे नाम हैं जिन्होंने इतिहास पर अपनी वीरता की अमिट छाप छोड़ दी है। आज एक ऐसे दो वीर योद्धाओं की अद्भुत कहानी आपको बताते है जिनको इतिहास के पन्नों में वो स्थान हासिल ना हो सका जो दूसरों को हुआ। बुंदेलखंड की मिट्टी को गौरव दिलाने वाले दो भाई आल्हा और ऊदल।
इतिहास में कुछ पात्र ऐसे होते हैं, जिनके बारे में ऐतिहासिक साक्ष्य से ज्यादा, सैकड़ों वर्षों से उनको लेकर चली आ रही कहानियों से ज्यादा जानकारी मिलती है। वीरगाथा काल के आल्हा और उदल ऐसे ही पात्र हैं, जिन्हें परंपरागत इतिहास में ज्यादा जगह नहीं मिली। लेकिन उनकी बहादुरी के किस्से लोगों के मन में पीढ़ियों से इस तरह रच-बस गए हैं कि वह 800 साल बाद भी सजीव लगते हैं। बुंदेलखंड के महोबा जिले में आज भी ऊदल चौक से ऊदल के सम्मान में लोग घोड़े पर सवार होकर नहीं गुजरते हैं। आल्हा-उदल 12 वीं शताब्दी के वह किरदार हैं, जिन्हें पृथ्वीराज चौहान का समकालीन माना जाता है। और उनके नाम पर 52 युद्धों की अमर कहानी है।
आल्हा और उदल उन 2 भाईयों की कहानी है, जो परमार वंश के सामंत थे। उनके बारे में सबसे अहम जानकारी कालिंजर के राजा परमार के दरबार में कवि जगनिक द्वारा लिखे गए आल्हा खंड से मिलती है। इस काव्य रचना में दोनों भाइयों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन है।
आल्हा मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुन्देलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था और वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था। जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।
ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए ऊदल वीरगति प्राप्त हुए आल्हा को अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो आया मारा गया 1 घण्टे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया और बुन्देलखण्ड के महा योद्धा आल्हा ने नाथ पन्थ स्वीकार कर लिया
आल्हा चन्देल राजा परमर्दिदेव (परमल के रूप में भी जाना जाता है) के एक महान सेनापति थे, जिन्होंने 1182 ई० में पृथ्वीराज चौहान से लड़ाई लड़ी, जो आल्हा-खण्ड में अमर हो गए।
कौन थे आल्हा-उदल
आल्हा खंड के अनुसार आखिरी लड़ाई उन्होंने पृथ्वीराज चौहान से लड़ी थी। जिसमें यह कहा जाता है कि उन्होंने पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया था। हालांकि बाद में अपने गुरू गोरखनाथ के कहने पर पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था। आल्हा खंड के अनुसार इस लड़ाई में आल्हा का भाई ऊदल वीरगति को प्राप्त हो गया था। और उसके बाद आल्हा को वैराग्य हो गया।
मां शारदा
के भक्त,
कई किवदंतियां भी
आल्हा को मध्यप्रदेश के मैहर स्थित मां शारदापीथ का परम भक्त माना जाता है। आज भी स्थानीय लोगों को मानना है कि आल्हा अमर हैं और वह हर रोज मां शारदा के मंदिर दर्शन करने आते हैं। ऐसी किवदंतियां है कि आज भी हर रोज सुबह आल्हा मंदिर में मां की आरती और पूजा करने आते हैं। लोग यह भी कहते हैं कि हर रोज आल्हा द्वारा मां शारदा के दर्शन करने के सबूत भी मिलते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, आज के दौर में भी महोबा में ज्यादातर सामाजिक संस्कार आल्हा ऊदल की कहानी के बिना पूरे नहीं होते हैं। स्थानीय लोग बच्चों के नाम भी आल्हा खंड से लेकर रखते हैं। आल्हा-ऊदल का बुंदेलखंड में ऐसा असर है कि सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव-गली में उनके शौर्य पर लिखे गए गाने गाए जाते है। जैसे बड़े लड़ैया महोबे वाले खनक-खनक बाजी तलवार आज भी स्थानीय लोगों के जुबान पर है।
बुंदेलखंड का जन-जन आज भी चटकारे लेकर गाता
है-
बुंदेलखंड की
सुनो कहानी बुंदेलों की
बानी में
पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में
बड़े लड़इया महोबा वाले, जिनसे हार गई तलवार
बड़े लड़ैया महोबा वाले,
इनकी मार सही ने जाए।
एक को मारे दुई मर जावे,
तीसरा ख़ौफ़ खाए मर जाए॥
आल्हा और ऊदल का इतिहास
12वीं सदी में बुदेलखंड के महोबा के दशरथपुरवा गांव में जन्मे ये दोनों भाई बचपन से ही शास्त्रों के ज्ञान और युद्ध कौशल में निपुण होने लगे थे। आल्हा और ऊदल भाइयों की वीरगाथा आज भी बुंदेलखंड में गाई जाती है। आल्हा ऊदल दसराज तथा माता देवल दे के पुत्र थे। आल्हा मां देवी के उपासक थे। आल्हा ने अपना पूरा जीवन राजा परमाल के लिए समर्पित कर दिया था।
52 युद्धों का इतिहास
आल्हा और ऊदल दोनों भाई एक दूसरे के साथ मुसीबत के समय खड़े रहते थे। आल्हा चंदेल सेना के सेनापति थे और कवि जगनिक की कविता आल्हा खंड में इन दोनों भाइयों की लड़ी गई 52 लड़ाइयों का वर्णन किया गया है। जब आल्हा के कन्नौज जाते ही पृथ्वीराज ने महोबा पर आक्रमण कर दिया। इस संकट की घड़ी में राजा परमाल ने उनको वापस बुलाया। आल्हा वापस महोबा आ गए उनके साथ उनके भाई उदल भी था। उदल की वीरता से पृथ्वीराज भलीभांति परिचित थे। युद्ध करता हुआ उदल पृथ्वीराज के पास जा पहुंचा। लेकिन पीछे से पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने पीछे से वार कर दिया और उदल वीरगति को प्राप्त हुए। यह सुनकर उनका भाई आल्हा, बिजली की तरह पृथ्वीराज की सेना पर टूट पड़ा।
आल्हा-ऊदल थे मां दुर्गा
के भक्त
आल्हा मां दुर्गा के परम भक्त थे और कहा जाता है कि उन्हें मां की तरफ से पराक्रम और अमरता का वर मिला था। आज भी मैहर में माता शारदा के मंदिर में रात 8 बजे की आरती के बाद साफ-सफाई होती है और फिर मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। इसके बावजूद जब सुबह मंदिर को खोला जाता है तो मंदिर में मां की आरती और पूजा किए जाने के सबूत मिलते हैं। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और ऊदल ही करते हैं क्योंकि उन्हें अमर होने का वरदान था इसलिए बुंदेलखंड के कुछ लोग आज भी मानते हैं की आल्हा जिंदा हैं।
बुंदेलखंड के युवा
सुना रहे आल्हा खंड
आल्हाखण्ड लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जो परमाल रासो का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। जिससे अब बुंदेलखंड महोबा के युवा देश के विभिन हिस्सों में अपने नवरस म्यूजिकल बैंड के साथ सुना रहे है। आल्हा और उससे जुड़े तथ्यों के बारे में पूरे देश को अपने गायन के माध्यम से सुना रहे है। कई राष्ट्रीय मंचों से भी आल्हा की शौर्य गाथा का वर्णन गीत के द्वारा किया है।
आल्हा अपने छोटे भाई ऊदल की वीरगति की खबर सुनकर आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े. बताया जाता है कि उस वक्त आल्हा के सामने जो आया मारा गया.
इतिहास के झरोखे से झांक कर देखे तो बुंदेलखंड की माटी में ऐसे कई राजाओं और रानियों का जिक्र है जिनकी वीरता के चर्चे आज भी जुबां पर है. प्राचीन काल के सम्राट अशोक से लेकर मध्य में पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप और आधुनिक इतिहास में रानी लक्ष्मी बाई जैसे वीर पराक्रमी नायकों का इतिहास में सुनहरे अक्षरों में नाम दर्ज है. बुंदेलखंड की जमीं ऐसे ही दो वीरों की गवाही देती है. ये वीर थे आल्हा और ऊदल. दोनों भाइयों आल्हा और ऊदल का जन्म 12 विक्रमी शताब्दी में बुंदेलखंड के महोबा के दशरजपूरवा गांव हुआ था.
बचपन से ही शास्त्र ज्ञान और युद्ध कौशल की प्रतिभा दोनो भाइयों में नजर आने लगी थी. इनके ज्ञान और बल को देखते हुए इन्हें युधिष्ठिर और भीम के अवतार के रुप में भी मान्यता दी जाती है. इन दोनों का सम्बंध चंद्रवंशी क्षत्रिय बनाफर वंश से जोड़ा जाता है. आल्हा-ऊदल की गाथा में दोनों को दसराज और दिवला का पुत्र बताया गया हैं. दसराज चंदेल वंश के राजा परमल के सेनापति थे. ऊदल आल्हा से बारह साल छोटे थे. बताया जाता है कि आल्हा के पिता की हत्या के बाद ऊदल का जन्म हुआ था.
मां शारदा के भक्त थे आल्हा और ऊदल
आल्हा बचपन से ही देवी माँ के परम भक्त थे. एक बार उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर माँ ने उन्हें पराक्रम और अमर होने का वरदान दिया. आल्हा और ऊदल की गाथा में इन दोनों भाइयों के स्नेह और एकता के का जिक्र किया गया है. दोनों के बीच इतना प्यार और स्नेह था कि जब भी एक भाई मुसीबत में पड़ता था तो दूसरा भाई उसकी ढाल बनकर खड़ा हो जाता था. बाद में आल्हा भी चंदेल वंश के शासनकाल में सेनापति बने. आल्हा का छोटा भाई ऊदल वीरता के मामले में अपने भाई से एक कदम आगे था । उस दौर के एक कवी जागनिक की एक कविता आल्हा खण्ड में इनकी वीरता की सारे किस्से और उनकी उनकी लड़ी 52 लड़ाइयों का जिक्र किया गया है.
पृथ्वीराज चौहान से हुई थी दोनों की आखिरी लड़ाई
आल्हा और ऊदल की आखिरी लड़ाई दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान से हुई थी. पृथ्वीराज चौहान भी बहादुर और निडर योद्धा थे. पृथ्वीराज ने बुंदेलखंड को जीतने के उद्देश्य से ग्यारहवीं सदी के बुंदेलखंड के तत्कालीन चंदेल राजा परमर्दिदेव पर चढ़ाई की थी. उस समय चन्देलों की राजधानी महोबा थी. आल्हा-उदल राजा परमाल के मंत्री थे. इतिहास में पता चलता है कि पृथ्वीराज और दोनों भाई आल्हा ऊदल के बीच में बैरागढ़ मे बहुत भयानक युद्ध हुआ. इस युद्ध मे आल्हा का भाई ऊदल मारा गया.
आल्हा अपने छोटे भाई ऊदल की वीरगति की खबर सुनकर आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े. बताया जाता है कि उस वक्त आल्हा के सामने जो आया मारा गया. लगभग 1 घंटे के भीषण युद्ध के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने सामने आ गए. दोनों में युद्ध हुआ और पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हो गए. आल्हा ने अपने भाई ऊदल की मौत का बदला पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके लिया. हालांकि माना जाता है कि आल्हा ने अपने गुरु गोरखनाथ के कहने पर पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दे दिया था. यह युद्ध आल्हा के जीवन का आखरी युद्ध था. इसके बाद आल्हा ने संन्यास ले लिया और शारदा मां की भक्ति में लीन हो गए.
युद्ध के बाद लिया संन्यास
राजा परमाल के ऊपर पृथ्वीराज चौहान की सेना ने जब हमला किया तो आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान से युद्ध के लिए बैरागढ़ में ही डेरा डाल लिया था और यहीं माँ शारदा के मंदिर में जाकर उन्होंने पूजा की. माना जाता है कि आल्हा को मां ने साक्षात दर्शन देकर उन्हें युद्ध के लिए सांग दी थी. पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद आल्हा ने मंदिर पर सांग चढ़ाकर उसकी नोक टेढ़ी कर वैराग्य धारण कर लिया था. इस सांग को आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है.
यहां के लोग बताते है कि आज भी रात 8 बजे मंदिर की आरती के बाद साफ-सफाई होती है और फिर मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं. इसके बावजूद जब सुबह मंदिर को खोला जाता है तो मंदिर में मां की आरती और पूजा किए जाने के सबूत मिलते हैं. आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और ऊदल ही करते हैं. क्योंकि उन्हें अमर होने का वरदान था इसलिए बुंदेलखंड के कुछ लोग आज भी मानते हैं की आल्हा जिंदा हैं.
बड़े लड़ैया महोबा वाले,
इनकी मार सही ने जाए।
एक को मारे दुई मर जावे, तीसरा ख़ौफ़ खाए मर जाए॥
ये पंक्ति सुनते ही आपको समझ आ गया होगा की आज हम बात करेंगे महोबा के दो महान शूर वीर योद्धा आल्हा उदल की। ये कहानी शुरू होती है कलिंजर के चंदेल राज परमाल से। जब उन्होंने महोबा को अपने राज्य की राजधानी घोषित किया था, और उसी दौरान लगभग एक ही समय मे उस राज्य मे 5 पुत्रों का जन्म हुआ था। जो आगे चल कर महोबा के पंच वीर कहलाये। महारानी ने राजकुमार ब्रहमकुमार को जन्म दिया। वहीं राजपुरोहित के घर पर ढेबा नाम के बालक का जन्म हुआ। ये बालक वीर होने के अतिरिक्त ज्योतिष विद्या का भी ज्ञानी था। ढेबा को परिभाषित करते हुए कहा गया है की
“मीत विपतिया के ढेबा है | ऐसो मीत मिलन को नाही ||”
अर्थात विपत्ति के मित्र ढेबा है और ढेबा जैसे मित्र आसानी से नही मिलते, वहीं तिलका मलखान नाम के पुत्र को जन्म देती हैं। कहा जाता है की मलखान का शरीर वज्र की तरह कठोर था, और युद्ध के समय वो पैर जमा कर लड़ते थे।
मलखान को परिभाषित करते हुए कहा गया है की
“पाऊं पिछाडी दैन न जाने, जंघा टैक लड़े मलखान।।”
फिर देवलदे ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम था आल्हा। आल्हा के जन्म के बाद देवलदे पुनः गर्भवती हुई परंतु उसी समय मांडोंगढ़ के बघेल राजा ने महोबा पर आक्रमण कर दिया। यह वो आक्रमण था जिसने महोबा का इतिहास बदल दिया। इस युद्ध मे मांडोंगढ़ के राजा बघेल दक्षराज और वत्सराज को कैद कर लिया था। बघेल ने उन दोनों को मार कर उनका सर बरगद के वृक्ष पर टांग दिया था। फिर कुछ महीनों बाद उदल का जन्म होता है। कहते हैं की
“जा दिन जनम भवा उदल कै, धरती धंसी अढ़ाई हाथ”
अर्थात जिस दिन उदल का जन्म हुआ उस दिन धरती ढाई हाथ धस गई थी।
उदल के जन्म से देवलदे खुश नहीं थी, ना ही उन्होंने उदल को पुत्र रूप मे स्वीकार किया, इसीलिए उदल का पालन पोषण मलहना (परमाल की पत्नी) ने किया था।
" धर्म की माता है मलहने, जो उदल को लियो बचाये "
राजा परमाल ने इन पांचों वीरों को एक साथ पढ़ाया, लिखाया, और अस्त्र-शस्त्र शिक्षा प्रदान की। इनके बड़े होते-होते इनके वीरता के चर्चे होने लगे थे। एक दिन जब परमाल सभी वीरों की प्रशंसा कर रहे थे तब उदल का नाम आते ही उनका मामा माहिल उदल की निंदा करता है। और उसकी वीरता पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। क्यो की ----
बाप का बैरी जो ना मारे,
ओकर मांस गिद्ध ना खाएं ।
अर्थात जो पिता के शत्रु का वध नहीं करता, उसका मांस गिद्ध भी नहीं खाता।
अगर उदल सच मे एक शूरवीर है तो मांडोंगढ़ जाकर उनके टंगे हुए सर यहाँ लाए और उनका अंतिम संस्कार करे। उसी समय वहाँ उदल आजाते हैं और महाराज से पूछते हैं की, “महाराज किसके सर, और कहाँ टंगे है?”
परमाल इस बात को काटने का प्रयत्न करते हैं परंतु माहिल उदल से कहते हैं की उदल के किसी पूर्वज का सर मांडोंगढ़ मे टंगा हुआ है। फिर माहिल कहते हैं की “पूरा सत्य उदल को अपनी मा से पता चलेगा।“ उदल एक क्षण व्यर्थ किये बिना ही अपनी माँ के पास जाते हैं। उदल के बहुत पूछने के बाद देवलदे उन्हे बताती है की
टँगी खुपड़िया बाप चचा की,
मांडोगढ़ बरगद की डार
आधी रतिया की बेला में,
खोपड़ी कहे पुकार- पुकार
कहवा आल्हा, कहवा उदल,
कहवा मलखे लडते लाल
बचके आना मांडोगढ़ में,
राज बघेल जीवता काल
अरे बेटा अभी उम्र है बारी भोरी,
खेलो खाओ दूध और भात
चढ़े जवानी, तब वाहन पर,
तब जाके बघेल को मार
ऐसा गरजा है दिवला का,
जैसे बिजली कौंधा खाय
भुजा उठाकर अब उदल ने,
ओर माता से कहा सुनाये
मत घबरावे तू माता,
मांडोराज को मैं देखूं जाय
वंश सहित बघेल को मारूं,
नाम मेरा उदलचन्द राय
मार के मांडो नरघा कर दूं,
पक्का ताल देउँ बनवाए
खाल खींचकर भूंस भरवा दूँ,
ऊपर दायं देउँ चलवाये
आग लगा दूँ में मांडो को,
सबका देयु तेल कढ़वाय
बाप के बदले शीश मांडो का, महोबे में देयु लटकाए
उदल को सत्य का पता चल जाता है की उनके पिता और चाचा का सर मांडोंगढ़ मे टंगा है। वो अपनी माँ देवलदे और अपनी धर्म माँ मल्हाना का अशीर्वाद लेकर राजा परमाल के पास जाते हैं,
महाराज उनसे कहते हैं की मांडोंगढ़ को भेदना आसान नहीं है, और अभी तुम्हारी आयु ही क्या है? उदल परमाल से कहते हैं की क्षत्रिय की आयु अधिक होनी भी नहीं चाहिए, उदल कहते हैं की,
“"बारह बरस लौ कूकर जीवै,
सोरह लौ जियै सियार।
बरस अठारह क्षत्री जीवै,
आगे जीवै को धिक्कार॥"”
ये सुनकर परमाल उन्हे आशीर्वाद देते हुए कहते हैं की ‘यदि युद्ध मे पराक्रम के साथ बुद्धि का उपयोग करोगे तो तुम्हारी विजय निश्चित है’ उसी दिन परमाल आल्हा को महोबा का सेनापति घोषित कर देते हैं। और फिर उन 5 वीरों को 5 घोड़े देते हैं। इसके साथ ही महोबा की सेना मांडोंगढ़ की ओर चल पड़ती है। सेना का नेतृत्व ब्रहमकुमार कर रहे थे और वो अपनी सेना के साथ मांडोंगढ़ से पास बबूल के जंगल मे पड़ाव डालते हैं , वहीं बाकी चारों वीर योगी के भेस मे मांडोंगढ़ के किले मे जाते हैं और वहाँ उनका काफ़ी सत्कार भी होता है। वे चारों रानी से दुर्ग की परिक्रमा करने का आग्रह करते हैं, तो रानी राजकुमारी को आदेश देती हैं की योगियों को सम्पूर्ण दुर्ग दिखाया जाए। इसी बीच राजकुमारी से उन चारों को पता चलता है की वहाँ एक सुरंग है तो सीधे उसी बबूल के जंगल मे जाकर निकलती है जहाँ महोबा के सैनिक थे। अगली सुबह ही महोबा की सेना मांडोंगढ़ पर आक्रमण कर देती है। यह देखते ही बघेल राजा युद्ध की बागडोर अपने पुत्रों को दे देता है। आल्हा इस युद्ध को पंचव्यूह की रचना के साथ लड़ने का निर्णय लेते हैं। और फिर युद्ध आरंभ होता है। बघेल का पुत्र कलिंगर आल्हा की आँखों मे धूल झोंक कर सीधे उदल पर वार करता है परंतु उसी समय उदल का घोड़ा अपनी चाल बदल देता है और उदल के प्राण बचा लेता है, और कलिंगर का भाला धरती मे धस जाता है।
गज भर धरती चीरत - फारत ,
भाला धरती गया समाय ।
धन्य - धन्य है घोड़ बैदुला ,
जो स्वामी को लियो बचाए।।
इसके बाद उदल कलिंगर पर ये कहते हुए टूट पड़ा की
“पहली वाणी में बोलत नहीं,
दूजी मे करते नहीं रार |
और तीजी वाणी में छोड़त नहीं,
मुंह में ठूंस देइ तलवार ||”
उदल के पहले वार मे ही कलिंगर घायल हो जाता है और युद्ध भूमि छोड़ कर चला जाता है। यह देखकर उसी सेना का मनोबल टूटने लगता है परंतु उसी क्षण सूरज आल्हा को ललकारता है की सेना का रक्त बहाना व्यर्थ है हम दोनों द्वंद् युद्ध करते हैं और उसी से विजय पराजय का निर्णय हो जाएगा। आल्हा कहते हैं की अगर मैं तुमसे लड़ा तो दुनिया मुझपर हसेगी की आल्हा ने एक बच्चे को हरा दिया। तुम्हारे लिए तो मेरा भाई उदल ही काफ़ी है। इसके बाद उदल और सूरज मे द्वंद्व युद्ध आरंभ होता है।
वो ऐसा युद्ध था की रक्त से भूमि लाल हो गई थी।
“भुजा बहादुर फड़कन लागे, नाचन लगे मुच्छ के बाल। कट कट मुंड गिरे खेतन में,उठ उठ रुंड करे तकरार।”
अगले दिन युद्ध मे आल्हा उदल से कलिंगर की ओर अग्रसर होने के लिए कहते हैं। युद्ध चलता रहता है कलिंगर उदल पर वार करते-करते थक जाता है और मौका देखते ही उदल अपनी तलवार से कलिंगर सर धर से अलग कर देते हैं। युद्ध का निर्णय उसी क्षण हो जाता है, परंतु सूरज ढलने के कारण दोनों सेनाएं अपने शिविर मे चली जाती हैं। और अगले दिन की सुबह राजा जमबे सुरंग से भागने का प्रयत्न करता है लेकिन उदल सुरंग खुलने के मार्ग पर जमबे की प्रतीक्षा कर रहे थे, जमबे को बिना कोई मौका दिए वो उसका सर काट देते हैं। युद्ध समाप्त हो जाता है और चारों ओर महोबा की सेना की जयधुनी बजने लगती है। पांचों वीर वापस आकर सबका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। आल्हा सम्मान सहित अपने पिता और चाचा का अंतिम संस्कार करते है, और उदल की प्रतिज्ञा पूरी होती है। हर तरफ आल्हा उदल की जय जयकार हो रही थी लेकिन ये कहानी यही समाप्त नहीं हुई।
क्यू की जब चुनौती वीरों के पास नहीं जाती, तो वीर स्वयं चलकर चुनौती के पास जाते हैं।