Monday, January 26, 2009

वीरता व बलिदान के प्रतीक गुरु

धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इतिहास में ऐसी वीरता और बलिदान कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इतिहासकारों ने इस महान शख्सियत को वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। इतिहासकार लिखते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई। जिस बालक ने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो, क्या संभव है कि वह स्वयं लडने के लिए प्रेरित होगा?

गुरु गोविन्द सिंह को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाडी राजाओं की ईष्र्या पहाड जैसी ऊंची थी, तो दूसरी ओर औरंगजेबकी धार्मिक कट्टरता की आंधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया-आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण करना। जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह लिखते हैं- जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोविन्द सिंह ने 1699ई.में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानिखालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। उन्होंने सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त कर न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उन्होंने स्पष्ट मत व्यक्त किया-मानस की जात सभैएक है।

गुरु नानक देव जी ने जहां विनम्रता और समर्पण पर जोर दिया था, वहीं गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया। समानता के आधार पर स्थापित खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में यदि कुछ था तो समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा।

गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरोरूप है खास, खालसा में हो करो निवास। सेनानायक के रूप में पहाडी राजाओं एवं मुगलों से कई बार संघर्ष किया। युद्ध के मैदान में उनकी उपस्थिति मात्र से सैनिकों में उत्साह एवं स्फूर्ति पैदा हो जाती थी। चण्डी चरित में लिखा सवैया शूरवीरों का मंत्र बन गया था-देह शिवा वर मोहिएहैभुभकरमनतेकबहूंन टरौ,न डरो अरि सो जब जाइलरोनिसचैकर अपनी जीत करो।

जहां शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। उनका विषय तो शान्ति एवं समाज कल्याण था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेबको फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। कुरान की कसम खाकर तूने कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लडाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। गुरु गोविंद सिंह एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने पाउन्टासाहिब के अपने दरबार में 52कवियों को नियुक्त किया था। जफरनामा एवं विचित्र नाटक गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियां हैं। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। इसी भावनाओं का पोषण उन्होंने अपने सिखों में भी किया। सिखों के बीच गुरु गद्दी को लेकर कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खनको हुकम है गुरू मानियहुग्रंथ।

गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।

No comments: