ब्रज का इतिहास बहुत पुराना है। त्रेतायुग में कौशलेन्द्र श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न ने मधुवनमें मधु के पुत्र लवण दैत्य का संहार कर मथुरा को बसाया था। द्वापर युग में मथुरा मण्डल के बृहद्वनमें, विद्रुमवन के नाम से विख्यात पूर्वी छोर पर वसुदेव-पत्नी रोहिणी जी निवास करती थीं। ब्रज का वास्तविक परिचय देने वाले गोपालतापिनी उपनिषद ने इसका उल्लेख बलभद्र वन से किया है तथा इसको ब्रज के समस्त वनों से श्रेष्ठ माना है। बाबा नन्द की गौओंके बडे-बडे खिरकइसी स्थल पर थे। महाराज वसुदेव के कंस के कारागार में बन्दी हो जाने के बाद नन्दरायजी ने रोहिणी को यहीं निवास दिया था। इसी स्थान पर संकर्षण भगवान श्री दाऊजीश्रीबलदेवमहाराज का अवतरण भाद्र शुक्ल षष्ठी को हुआ था। बलदेव जी श्रीकृष्ण से कुछ माह बडे थे। मां देवकी के गर्भ से वसुदेव की द्वितीय पत्नी रोहिणी के उदर में स्थानान्तरित ही प्रकट हुए। नन्दबाबाके कहने पर उनके कुलगुरु गर्गाचार्यने नामकरण किया था। दोनों भाइयों ने छठे वर्ष में प्रवेश होने से ही समाज-सेवा एवं दैत्य-संहार का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। दोनों ने ही अवन्तीपुर(उज्जैन) में मुनि सांदीपनजी के गुरुकुल में प्रवेश लिया तथा बडे-बडे दैवीय कार्य किए।
नृपश्रेष्ठककुद्मीकी तपस्वी कन्या रेवती से बलराम जी का पाणिग्रहण हुआ। राजा ककुद्मीको ब्रह्मा जी ने रेवती-हेतु बलराम जी को वर प्रस्तावित किया। रेवती ने भगवती की आराधना की। बलराम जी को वर रूप में पाया। रेवती भी अपने पति के समान ही तेजस्विनी व गम्भीर थी।
बलराम जी शेषावतारहैं। परब्रह्म परमात्मा श्रीशेषभगवान ही इस संसार के विधाता, परिपोषकऔर संहर्ता हैं। समय-समय पर यह सृष्टि भगवान शेष में ही लय और शेष से ही प्रकट होती है। भगवान शेष अपने भक्त, उपासक और ज्ञानियोंको इच्छा के अनुसार मुक्ति और भक्ति प्रदान करते हैं। भागवतमेंभगवान श्रीकृष्ण ने शेषावतारभगवान् बलभ्रदको अपना धाम बताया है-शेषाख्यं धाम मामकम्।विद्वानों ने धाम का अर्थ प्रभाव, शक्ति व तेज माना है। इन सबका भगवान बलदेव में समावेश है। न तो भगवान् श्रीकृष्ण श्रीबलभद्रसे अलग हैं और न श्रीबलभद्रही भगवान श्रीकृष्ण से अलग हैं, दोनों एक ही हैं।
भागवत माहात्म्य के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारकामें निवास के अनन्तर ब्रज भी रिक्त हो गया था। जिस समय राजा परीक्षित हस्तिनापुर के शासक बने ब्रज का अधिकांश भाग वन रूप में ही था। उस काल में ही श्रीकृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्रनाभको मथुरा की गद्दी पर बिठाया गया था। राजा वज्रनाभने आध्यात्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत हो चार देव और चार देवियों के श्री विग्रह ब्रज मण्डल में प्रतिष्ठित कराए। उन्हीं में श्री केशवदेव,श्रीहरदेव,श्रीगोविन्ददेवके साथ ही बलदेव जी को रेवती सहित उन्हीं के प्रिय स्थल बलभद्र वन में प्रतिष्ठित कराया था। कालान्तर में वे ही भूमिस्थपूजा-अर्चना स्वीकार करते रहे और अगहन शुक्ल पूर्णिमा सम्वत्1638वि.को पुन:श्रद्धालु भक्तों के हितार्थ प्रगटे।अन्तरात्मा की विशेष प्रेरणा से भगवान् शेष के जन्म-जन्मान्तर के अनन्य भक्त एवं श्री शेष के सगुण स्वरूप एवं विभवावतारभगवान् बलदेव के अर्चावतारकी पूजा करने की अमिट इच्छा रखने वाले आदि गौड अहिवासीब्राह्मण महर्षि सोभरिके वंशज श्री कल्याण देवाचार्यजी वहीं हरे-भरे वट वृक्ष तले भगवान के ध्यान में मग्न रहने लगे। सदैव की भांति एक दिवस इनकी श्री दाऊजीके ध्यान में निर्विकल्प समाधि लगी हुई थी कि भगवान बलदेव ने रेवती के साथ भक्तवरगोस्वामी कल्याण देव जी को साक्षात दर्शन दिए। आनन्दातिरेक से भक्त के नेत्रों में अश्रुधारा बह निकली। भगवन्ने कहा मुझको आप इसी वट वृक्ष तले से खुदवा कर प्रकट करो। श्यामा गाय यहीं पर स्वयमेव मेरे ऊपर दूध देती है। यह कहकर भगवान अंतर्धान हो गए। इधर गोकुल के गोस्वामी गोकुलनाथजी महाराज अपनी श्यामा गौ के दूध देने के वृत्तांत से बडे चिन्तित थे। भगवान ने उन्हें भी स्वप्न दिया कि मेरे प्राकट्य में कल्याण देव को सहयोग करो। जब गोकुलनाथजी विद्रुमवनआए तो कल्याण देव जी कस्सी से स्थल खोदते हुए मिले। भगवान श्री विग्रह रूप में प्रकट हुए तथा युगल छवि को कल्याण देव जी की कुटिया में सिंहासन पर विधि-विधान से प्रतिष्ठित किया गया। गोकुलनाथजी ने अपनी उसी श्यामा गाय के दूध की खीर का कटोरा भगवान के सम्मुख अर्पित किया जो भगवान के मुख्य नैवेद्य के रूप में आज तक मान्य है। उसी स्थल पर गोकुलनाथजी ने भगवान के प्रथम मंदिर का निर्माण कराया। मार्गशीर्ष(अगहन)पूर्णिमा को पूरे ब्रजमंडलमें दाऊ जी महाराज का प्राकट्य महोत्सव मनाया जाता है। बलराम,बलदेव,बलभद्र,दाऊ आदि नामों से इनकी प्रसिद्धि है।
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