Friday, August 21, 2009

गणपति बप्पा मोरया

भारत भर में ज्यादातर हिंदू परिवारों में भगवान गणेश की पूजा होती है। सनातन धर्म को मानने वाले सभी संप्रदाय विघ्नेश्वरगणेश की पूजा सबसे पहले करते हैं। महाराष्ट्र में मराठा श्रद्धालु गणपति को अपना आराध्य मानते हैं।

श्रीमंत पेशवा-सरकार गणेशजीकी उपासक थीं। उनके शासनकाल में गणेशोत्सवराजकीय ठाट-बाट के साथ मनाया जाता था। श्रीमंत सवाई माधवराव के शासनकाल में यह महोत्सव शनिवारवाडाके गणेश महल में आयोजित होता। उस समय यह उत्सव छ:दिनों तक चलता था। गणेशजीकी प्रतिमा के विसर्जन की शोभायात्रा ओंकारेश्वरघाट पहुंचती, जहां नदी में विग्रह का होता था विसर्जन। इसी तरह अन्य मराठा सरदारों के यहां भी गणेशोत्सवआयोजित होते।

दस दिनों का त्योहार :वर्ष 1892ई. तक मराठा-नरेशों के महलों तक सीमित था गणेशोत्सव।लोकमान्य तिलक की प्रेरणा और प्रयासों से वर्ष 1893ई. में पुणे में इसे सार्वजनिक रूप से मनाने की शुरुआत हुई। उन्होंने छ:दिनों के इस धार्मिक अनुष्ठान को दस दिन का सार्वजनिक उत्सव बना दिया। गणेश पुराण के अनुसार, भादो माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी के दिन गणेशजीप्रकट हुए।

इसलिए भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी के दिन गणेश-प्रतिमा की स्थापना और भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्दशी को विसर्जन की प्रथा बन गई। राष्ट्रीय उत्सव : केसरी पत्रिका में उस समय के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी खानखोजेने यह विचार प्रकट किया था कि पुणे में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में गणेश-उत्सव न केवल देशभक्ति के प्रचार का माध्यम, बल्कि राष्ट्रीय उत्सव भी बन गया। पूणेके अलावा, मुंबई, अमरावती, वर्धा, नागपुर में भी सार्वजनिक गणेश-उत्सव मनाया जाने लगा। सच तो यह है कि इस उत्सव के माध्यम से क्रांतिकारियों को संगठित करने का कार्य होने लगा। धार्मिक उत्सव होने के कारण अंग्रेज सरकार भी इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाती थी।

इस प्रकार लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सवको राष्ट्रीय उत्सव बनाकर देश की आजादी के आंदोलन में अपना एक विशिष्ट योगदान दिया।

स्वराज्य का संदेश :तिलक के अलावा, कई नेता गणेशोत्सवके अवसर पर स्वराज्य और एकता का संदेश देते थे। इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार भी होने लगा। धीरे-धीरे महाराष्ट्र का प्रत्येक नगर गणपति बप्पा मोरयाके उद्घोष से गूंजने लगा और यह स्वराज्य-प्राप्ति का साधन बन गया।

साहित्य और कला को प्रोत्साहन :गणेश-उत्सव के कारण जहां एक ओर राष्ट्रीय चेतना को बल मिला, तो वहीं दूसरी ओर साहित्य और कला को भी प्रोत्साहन मिला।

उत्सव के सभी कार्यक्रम मराठी, हिंदी या अन्य किसी स्थानीय भाषा में होते थे, जिससे जन-जन में भारतीय भाषाओं के प्रति आदर की भावना उत्पन्न हुई। मेले [ख्याल] के लिए कवि गीत रचकर देने लगे। इस तरह पोवाडे[वीर रस की कविताएं] लोकप्रिय होते चले गए। रंगमंच ने भी प्रगति की। नए-नए नाटक-प्रहसन आदि लिखे और खेले जाने लगे। गणेशोत्सवके कारण ही मराठी रंगमंच में नया जीवन आया। शाहीर[लोकगीत] और लावनी के प्रति लोगों में आकर्षण बढा।

मूर्तिकार प्रतिवर्ष गणेशजीकी छोटी-बडी असंख्य मूर्तियां बनाने लगे, जिससे मूर्तिकला और उसके कलाकारों को संरक्षण मिला। इस तरह लोकमान्य ने गणेश-उत्सव को देश की सर्वागीण प्रगति का लोकप्रिय आधार बना दिया। वर्ष 1920में तिलक की मृत्यु हो गई, लेकिन यह राष्ट्रीय चेतना का महापर्वबन गया।

आज यह उत्सव इतना लोकप्रिय हो गया है कि अन्य धर्मो को मानने वाले भी इसमें बडे उत्साह के साथ भाग लेते हैं। अब महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि भारत के ज्यादातर राज्यों में गणेशोत्सवधूमधाम के साथ मनाया जाने लगा है। विदेश में आप्रवासी भारतीय भी गणेशोत्सवका आयोजन करने लगे हैं।

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