पाप का बाप काम, क्रोध और लोभ है, दुर्वासना इसकी बहन है। विवेक रूपी पुरुष की शांति रूपी पत्नी को दुर्वासना भगा देती है और अपने अधीन करके विषय भोगों की इच्छा कराती है जिससे जीव अशांति को प्राप्त होता है इसलिए आत्मिक शांति प्राप्त करने के लिए जीवन में काम, क्रोध और लोभ से दूर रहना अति आवश्यक है।
पंडित जी ने कहा कि जिस घर का काम और क्रोध का डेरा हो वहां शांति कैसे हो सकती है और शांति के बिना सुख कैसे संभव है। दुर्भावनाओं से दूर रहकर मनुष्य को प्रभु की निष्काम भक्ति का रास्ता अपनाना चाहिए क्योंकि इससे व्यक्ति जहां ईश्वर की समस्त दया का अधिकारी होता है वहीं मानसिक सुख भी भोगता है। मनुष्य का जीवन अमूल्य होने पर भी जीवन रोका नहीं जा सकता किन्तु जीवन यात्रा को परिवर्तित जरूर किया जा सकता है।
अहं और ममता जीव के बन्धन का कारण है इसलिए शरीर से अहं और शरीर के संबंधी प्राणी पदार्थो से ममता का त्याग करना साधक को जरूरी है। जो मनुष्य अपने मन का गुलाम है वह लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता अपितु लक्ष्य की प्राप्ति तो वही कर सकता है जिसने मन को गुलाम बना रखा है। जीवन में सफलता चाहने वालों को एक-एक क्षण की कदर करनी चाहिए क्योंकि दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन बीता हुआ समय कभी दोबारा नहीं आता। संकल्पों का स्वरूप से नष्ट होना ही संकल्पों का त्याग नहीं, किन्तु जैसे ज्ञान से पूर्व अपने को संकल्पों का कर्ता मानता था और अब तत्व ज्ञान होने पर अपने को संकल्पों का साक्षी मानता है।
किसी मानव में त्याग की भावना कितनी है इस बात से न केवल उसकी महानता का पता चलता है बल्कि इसी के अनुसार वह लोगों में अधिक लोकप्रिय भी पाया जाता है। जीवन में त्याग की भावना हर मनुष्य में होना बहुत जरूरी है क्योंकि त्याग से जहां मन को शांति मिलती है वहीं प्रभु भी ऐसे मनुष्य से प्रेम करते हुए उसका साथ देते हैं।
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