जुआरी भाग्य को बनाता नहीं आजमाता है जबकि किसान अपने कठिन परिश्रम एवं मेहनत से अपने भाग्य का निर्माण करने वाला स्वयं होता है। किसान अपनी समस्त शक्तियों को भीतर से खींचकर बाहर ले आता है, इसीलिए उसे कृषक कहा जाता है।
पंडित जी ने कहा कि कृषक शब्द कृष्टि से बना है और कृष्टि का अर्थ है मेहनत कर गुप्त शक्तियों का विकास करने वाला। वेदों में बहुधा कृष्टि शब्द पूर्ण विकसित मनुष्य के लिए आया है हर मनुष्य को कृष्टि नहीं कह सकते। जिसने अपनी अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास किया है वहीं कृष्टि या पूरा मनुष्य है। इसी प्रकार कला कौशल करने वाले सभी उद्योगी पुरुष खेती से किसी न किसी प्रकार संबंध रखते हैं। कृषि मूल हैं, अन्य समस्त व्यवसाय शाखा मात्र है। आम की शाखा भी आम ही कहलाती है। कृषि और कृष्टि शब्द कितने महत्वपूर्ण और व्यापक हैं, इसका पता अंग्रेजी के कल्चर शब्द से होता है। कल्चर के लिए संस्कृत में संस्कृति शब्द है। कृषि और संस्कृति में थोडा सा ही भेद है। कल्चर का साधारण अर्थ है एग्रीकल्चर या खेती। हिंदी भाषा में खेती, खेतिहर, किसान शब्दों के बहुत संकुचित अर्थ है इसलिए शायद कोई बडा आदमी खेतिहर या किसान कहलाने में संकोच करेगा। कृषक समाज का अधोभाग समझा जाता है परंतु संस्कृत का कृषि शब्द संस्कृत शब्द से भी अधिक उत्कृष्ट है क्योंकि संस्कृति या संस्कार का अर्थ तो है ही शोधना या मैल को दूर करना।
उन्होंने कहा कि चावलों से कंकडियों को बीनकर फेंक देना चावलों का संस्कार है परन्तु कृषि का अर्थ है गुप्त शक्तियों का विकास करना, जैसे बरगद के छोटे से बीज में निहित शक्तियों का इस प्रकार प्रादुर्भाव होना कि बरगद का बडा वृक्ष हो जाए। जैसे बरगद के बीच में बरगद की शक्तियां निहित है। जैसे बरगद का बीज घडे के भीतर पडा वृक्ष नहीं हो सकता जब तक कि उसकी कृषि न की जाए, इसी प्रकार मनुष्य की शक्तियां बिना कृषक के बाहर नहीं आती। उन्होंने कहा कि माता-पिता आचार्य, समाज, सरकार ये सब वस्तुत: कृषक हैं। जो मानवी शक्तियों को खींचकर बाहर लाते और मनुष्य को साधारण पशु से सुसंस्कृत, सुविकसित तथा कृष्टि बना देते हैं।
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