बाला जी मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए महंत गोपालदास ने कहा कि जीवन में हर किसी को सभी कुछ नहीं मिलता है। जीवन की डोर भाग्य, प्रारब्ध और पुरुषार्थ के हाथों में है। अगर संतोष का सहारा न हो तो इंसान टूट जाए और जिंदगी बिखर जाए।
उन्होंने कहा कि जब इंसान किसी कार्य को नहीं कर पाता है और उसे असफलता मिलती है तो वह भाग्य को दोष देने लगता है। यही कहता है कि शायद ईश्वर को यह मंजूर न था। कोई बहुत परिश्रम करता है और थोडा ही कमा पाता है, परिवार का खर्च चलाना कठिन हो जाता है। इसके विपरीत कोई बहुत थोडे से ही परिश्रम में इतना कमा लेता है कि उसे कई दिनों तक कमाने की आवश्यकता नहीं होती। इसी को भाग्य कहा जाता है। यहां व्यक्ति की प्रतिभा, योग्यता, दक्षता और अपने विषय अथवा क्षेत्र में विशेष योग्यता का जो उसके परिश्रम में लगी है उसका भी मूल्यांकन होता है। हमें अपनी पालाता विकसित करनी चाहिए तभी हमारा समुचित मूल्यांकन हो सकता है नहीं तो हम जीवन भर अपनी असफलता के कारणों को दूसरों में ढूंढते रहेंगे और कुंठित होंगे।
जीवन सतत गतिशील रहता है एक पल के लिए भी रुकता नहीं। तमाम लोग हमसे जुडते रहते हैं जिनमें कुछ अपने परिवार के सदस्य भी हो जाते हैं, जिनका कुछ वर्षो पहले तक कहीं अता-पता नहीं होता और उनसे भावनात्मक संबंध बहुत गहराई तक बन जाते हैं जैसे कि अपनी संतान या पत्नी आदि।
इन सबको हमसे अपेक्षाएं भी रहती हैं, होना स्वाभाविक भी है क्योंकि इन सबके भरण-पोषण का दायित्व भी हम पर रहता है किंतु इन सभी का भाग्य भी साथ रहता है। इनके हिस्से का भाग्य इन्हें मिलता है। माध्यम चाहे हमें ही बनना पडता हो।
आवश्यकतानुसार कभी-कभी अपनी संतानों के खर्चे अपने से कहीं अधिक होते हैं, जबकि कमाते हम हैं। यह उनके भाग्य का ही भाग होता है। हम केवल अपने लिए ही नहीं जीते, हमसे जुडे बहुत से लोग होते हैं जो केवल हमारे ही सहारे होते हैं, जैसे हमारे परिवार के सदस्य।
कभी-कभी तो जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते जीवन की संध्या हो जाती हैं और हम आशाओं के सहारे जीवन गुजार देते हैं। इस प्रकार संसार और जीवन चक्र का चलता रहता है। हमें केवल अपने कर्तव्य को देखना है अधिकार को नहीं।
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